Book Title: Marathi - Tattvasara
Author(s): Changdev Vateshwar
Publisher: Prachya Granth Sangrahalay

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Page 41
________________ [१८] रजी वेवस्ते तमः, रज सत्विं अभिन्न, सत्व शुन्नीं शून्य, विलयो पावे ॥ १५ ॥ ऐसे गुण गुण विरमले मग स्वयं शून्य उरलें, तें स्वरूप आपुलें, फुर्डे जाणा ॥ १६ ॥ जैसी कर्पूरदीप, राणिवी लोपावे ज्योति, शेषि उरे तें प्रति, स्वयं जाण ॥ १७ ॥ भरितें घटु भरितु माहा शून्य पुरीतु, तद्भावे बिंबतु, आपणचि ॥ १८ ॥ जैसि उदकामध्यें घागरि, तरत सबाह्यभ्यंतरी, तैसा शून्य निरंतरी, सुखें असे ॥ १९ ॥ मनि मन विराले, महा शून्य उरलें, तत्वसार पावलें, तेंचि तु जाण ॥ २० ॥ चित्त चेतना मुराली, निराळंभ झाली, भृति नेति नेति बोलिली, रहस्य हैं ॥ २१ ॥ श्रुतिरहस्य. जें अप्रमेय अपार, सर्वज्ञचि सार, सर्वभूतिं अंतर, तूंचि असमी ॥ २२ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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