Book Title: Marathi - Tattvasara
Author(s): Changdev Vateshwar
Publisher: Prachya Granth Sangrahalay

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Page 48
________________ [२५] अनाश्रय वर्ततु, निर्गुणातीत मत्तु, अनुचित्तें कर्म करि तु, न बंधिजसि ॥ ७३ ॥ ___ परि तेंचि अनुचित्त कर्भ ऐसें, जे साक्षात परमानंदवशे, नेणौनि पाविजे आपैसें, जाणौनियां ॥ ७४ ॥ ___ जब ऐसें बोलिलें, तव शिष्याचे ध्वनित जाणितलें, उचितानुचित उरलें, कैरयेनि किजे ॥ ७५ ॥ तैसा केवळ शुद्ध बुद्ध, जेथे मावळला लोकत्रय संमधु, तरि अनुचित्त कर्म निषेधु, एथें कैचा ॥ ७६ ॥ ऐसें शिष्यचि, जाणितले मनिचे, तरि संतोषौनि गुरुचें, हेचि वाक्य ॥ ७७ ॥ ___एहविं भोगु का भोक्ता, कर्म का कर्ता, हे नाहिं चि तत्वता, ज्ञानियांसि ॥ ७८ ॥ ___ जरि रात्रि दिवसाचिये घरोपरि, असति काय सूर्याचा घरिं, तरी शुभाशुभे दुसरि, होति तेयां ॥ ७९ ॥ येणे जाणें ऐसे, नेणतेयाप्रति दिसे, जरि कांहीं जाणतेया ऐसें, जाणीतले ॥ ८ ॥ जरि जाणीतले, तरि शुभाशुभ निमाले, पाप. पुण्य गेलें, जळौनियां ॥ ८१ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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