Book Title: Marathi - Tattvasara
Author(s): Changdev Vateshwar
Publisher: Prachya Granth Sangrahalay

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Page 40
________________ [ १७ ] त्यजं कर्म निष्कर्म भावना, व्याप्य व्यापक कल्पना, भेदबुद्धि विवंचना, करिसि झणें ॥ ७ ॥ त्यजिं पृथ्वि मागौति, आपें आप तेथिं, तेजि तेज निरुति, निरोपिं पा ॥ ८ ॥ आत्मरूप पवनीं पवनु त्यजिं, आकाशीं आकाश यजिं, शेषि उरेल त्या भजिं, आत्मरूपा ॥ ९ ॥ त्यजिं बुद्धि चित्त अहंकारु, आणि शून्य मानी विकारु, तेथ उरैल तो विचारु, लाभू विशेषिं ॥ १० ॥ कदालिस्तंभू उकलिता. शून्यगर्भु फळितां, तेणें आकारें वर्ततां, कैवल्य तुं ॥ ११ ॥ कदलिगर्भ दिसे तैसें रूप तुझें असे, स्वयं गुरु तुझें, तरिचि जाणिजे ॥ १२ ॥ नातरि तया मना संहारु, वेदविद्येचा विचारु, तेंचि तत्वसार साचारु, जाण पुत्रा ॥ १३ ॥ मन पवन शून्नीं हारपति, तल्लीन मन तेचि गति, तया परौतें कांहिं आथि, तुं वांचौनि ॥ १४ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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