Book Title: Mahavira Jayanti Smarika 1977
Author(s): Bhanvarlal Polyaka
Publisher: Rajasthan Jain Sabha Jaipur

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Page 19
________________ संसार में सैंकड़ों उदाहरण हमें ऐसे सरलता से सुलभ हो जावेंगे जो हमें संगठन का महत्त्व बता सकें । संगठित तिनके बुहारी का रूप लेकर घर के कूड़े कर्कट को बाहर फेंकने में सफल होती है किन्तु असंगठित अवस्था में स्वयं भी कूड़े के ढेर के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं होती। यही हाल रस्सी का है। छोटे छोटे तन्तु जब संगठित होकर रस्सी का रूप ले लेते हैं तो बड़े बड़े मस्त हाथी भी उससे बांधे जा सकते हैं । अलग-अलग होने की अवस्था में उन तन्तुनों को एक बालक भी प्रासानी से तोड़ सकता है । अलग अलग लकडियां आसानी से तोड़ी जा सकती हैं किन्तु जब वे भारे के रूप में हो उन्हें भुकाया भी नहीं जा सकता । जो संगठिन ईटें मकान का निर्माण करती हैं वे ही असंगठित अवस्था में मलबा कहलाता है । महासागर का निर्माण अनन्त छोटी-छोटी बिन्दुओं से ही होता है । वैदिक मान्यतानुसार हम जिस युग में रह रहे हैं वह कलिकाल है। जैन मान्यत नुसार यह पंचम दुखमा नामक काल है । नाम भेद के अतिरिक्त इनके स्वरूप में कोई विशेष अन्तर नहीं है। महाभारतकार ने इस युग में संगठन की शक्ति का विशेष महत्व बताया है। उन्होंने कहा है'संघे शक्तिर्कलीयुगे' कलियुग में संगठन के अतिरिक्त और कोई शक्ति नहीं है । संगठन के इस महत्व को हमने नहीं समझा इसलिए किसी भी क्षेत्र में भाज हमारी कोई आवाज नहीं है । हमारे से कम संख्या वाले सिख सम्प्रदाय की जो स्थिति है क्या हम उसकी तुलना कर सकते हैं। सरकार भी उनकी आवाज को अनसुना करने का साहस नहीं कर सकती क्योंकि उनकी आवाज के पीछे सगठन की शक्ति होती है । मुस्लिम सम्प्रदाय की भी यही बात है। प्रसन्नता की बात यह है कि हमारी समाज के नेताओं ने इस कमी को अनुभव कर सम्पूर्ण दिसम्बर समाज का एक संगठन बनाने का निर्णय किया किन्तु खेद है विघ्नसंतोषी जीवों को वह प्रिय नहीं हवा । अभी तो उसका विधान बन कर भी तैयार नहीं हवा और उसने विधिवत कार्य करना भी प्रारंभ नहीं किया कि प्रथमैव ग्रासे मक्षिकापात हवा । पूज्य कानजी स्वामी तथा उनके भक्तों द्वारा प्रकाशित साहित्य को लेकर जो भी कुछ अाज समाज में नाटक खेला जा रहा है क्या वह हमारा सिर लज्जा से झुकाने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसके पीछे वे लोग हैं जिनकी रोजी रोटी ही ऐसे झगड़ों को बढ़ावा देने के पीछे चलती है । खेद की बात तो यह है कि इस झगड़े में उपाधिकारी विद्वानों और कुछ साधु सन्तों का भी हाथ है। ये वे ही लोग हैं जो समाज में प्रत्येक अच्छी बात का विरोध करते पाए हैं। पू. वर्णी जी को जिन्होंने पीछी कमण्डलु लोसने की धमकी दी थी। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी का भी जिन्होंने विरोध किया था। ये कोई न कोई झगड़ा हमेशा ही समाज में खड़ा रखना चाहते हैं जिससे कि उनका जीवन यापन होता रहे। खेद है कि कुछ मुनि लोग भी इस झगड़े में सम्मिलित होगए हैं। वे कभी इधर या उधर वक्तव्य देते रहते हैं। उन्हें भी भ्रम है कि कहीं भक्तगण उनका आहारदान बंद न करदें। मुनियों को इस झगड़े से क्या लेना। वे तो ज्ञान ध्यान तप में ही लवलीन रहने वाले होते हैं । ये लोग भगवान् महावीर के अनुयायी और जैनधर्म तथा दर्शन के तलस्पर्शी अध्येता कहे जाते हैं। क्या भगवान महावीर के अनुयायी ऐसा ही कार्य करते हैं ? क्या जैन शास्त्रों का अध्ययन हमें यह ही सिखाता है ? जैन शास्त्रों का स्वाध्याय करने से पूर्व हमें निक्षेपों और नयों को भले प्रकार समझना चाहिये, स्याद्वाद तत्व जो कि जैनागम का प्राण है, हदयंगम करना चाहिये । निक्षेप हमें बताता है कि शब्दों का प्रयोग कैसे होता है । नाम निक्षेप से किसी का भी नाम ( viii ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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