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प्राक्कथन
भगवान महावीर के अनुसार आत्मा शाश्वत है। ज्ञान और दर्शन उसके लक्षण हैं। आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख की शक्तियों से सम्पन्न है, पर कर्मों के आवरण के कारण सांसारिक प्राणी में वे प्रगट नहीं होतीं । भगवान् महावीर ने आवरण-विच्छिन्न सम्पूर्ण शुद्ध आत्मा की सिद्धि - उपलब्धि का मार्ग बताया ।
सांसारिक प्राणी के सुख-दुःख उसके स्वयंकृत हैं - उसके किये हुए अच्छे-बुरे कृत्यों के परिणाम हैं, अतः आत्मा को सत्प्रवृत्ति में नियोजित करना चाहिए और दुष्प्रवृत्ति से निवृत करना चाहिए । कण्ठछेद करनेवाला शत्रु भी वैसा अहित नहीं करता जैसा दुष्प्रवृत्त आत्मा अपने-आप का करती है। इस भूमिका में भगवान महावीर ने उपदेश दिया- अपने-आप के साथ ही युद्ध करो। बाह्य शत्रुओं के साथ युद्ध करने से क्या सिद्ध होगा ? आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतने से ही परमसुख की प्राप्ति होगी ।
अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ ? अप्पाणमेव अप्पा जइत्ता सुमेह ||
आत्मा को शुद्ध रूप में उपलब्ध करने का मार्ग भगवान महावीर के अनुसार है - सर्व पापों का त्याग, अस्रवों का निरोध, संवर की साधना । उन्होंने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की युगपत् साधना से मोक्ष की उपलब्धि बताई है।
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भगवान महावीर का उद्घोष था - "सच्चं भगवं" - सत्य भगवान् है । "सच्चं लोकम्मि सारभूयं " " - सत्य लोक में सारभूत है । यहाँ उन्होंने वाचा - सत्य की बात नहीं कही है, परम सत्य की उपासना की चर्चा की है। उन्होंने मनुष्य मात्र को सत्य के अन्वेषण में लगने की प्रेरणा दी - अप्पणा सच्चमेसेज्जा ।"
सत्य की पूजा और भय विरोधी तत्त्व हैं । भगवान् महावीर ने सत्य की भावनाओं में कहा है-"न भाइयव्वं” - भय मत करो । “भीतो य भरं न नित्थरेज्जा" - भयभीत मनुष्य सत्य का भार नहीं ढो सकता । "सप्पुरिसनिसेवियं च मग्गं भीतो न समत्थो अणुचरितुं" - भयभीत मनुष्य सत्य के मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता ।
भगवान् महावीर का उपदेश था -* - "मेत्तिं भूएसु कप्पए" प्राणिमात्र के साथ मैत्री साधो । “न विरुज्झेज्ज केणइ " - किसी के साथ वैर-विरोध मत करो। सब जीवों के प्रति संयम ही अहिंसा है- "अहिंसा निउणं दिट्ठा सव्वभूएस संजमो ।" "समया सव्वभूएसु सत्तुमित्सु वा जगे - शत्रु हो या मित्र - जगत् के सब जीवों के प्रति समभाव की साधना