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ज्ञान और शील में इतरेतर विरोधाभास नहीं है किन्तु यथार्थ की भाषा यह है- 'णवरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति' - शील के बिना विषय ज्ञान का विनाश कर देते हैं। भगवान् महावीर ने इसीलिए कहा - 'सीलं जेसु सुसीलं सुजीविदं माणुस तेसि' - जिनमें सुन्दरशील है, उनका मनुष्य जीवन सुजीवित है ।
जातिवाद की अतात्विकता को व्यक्त करते हुए भगवान् महावीर ने आज से २५०० वर्ष पूर्व अपनी क्रान्तिवाणी में कहा था
णीचो वि होइ उच्चो, उच्चो णीचत्तणं पुण उवेई । जीवाणं खुकुलाई, पधियस्स व विस्समंताणं ।।
नीच उच्च हो जाता है और उच्च पुनः नीचत्व को प्राप्त कर लेता है। जीवों के लिए कुल (जाति) पथिकों के विश्राम स्थल की तरह हैं ।
जैन धर्म में विनय परम्परा को बहुमान प्राप्त है। गुरु के प्रति विनय शिष्य का आत्मधर्म है। भगवान् महावीर ने इस तथ्य को बहुत स्पष्टता से प्रकट करते हुए कहा- 'न यावि मोक्खो गुरु हीलणार' - गुरु की अवहेलना से मोक्ष प्राप्त नहीं होता ।
भगवान् महावीर ने जनता की बात को जनभाषा में प्रस्तुत किया । आमजनता रूपक और उदाहरण की शैली में ही किसी बात को अच्छे प्रकार से हृदयंगम करती है। जनभाषा के उदाहरण भी महावीर की वाणी में सुन्दर ढंग से निरूपित हुए हैं। विज्ञ और अज्ञ शिष्य के प्रति कहा गया है
रमए पंडिए सासं, हयं भदं व वाहए । बालं सम्मइ सासतो, गलियस्सं व वाहए । ।
विज्ञ शिष्यों पर शासन करता हुआ गुरु उसी प्रकार आनन्दित होता है, जिस प्रकार भद्र घोड़े पर शासन करने वाला वाहक । मूर्ख शिष्यों को शिक्षा देता हुआ गुरु उसी प्रकार कष्ट पाता है, जिस प्रकार गलि अश्व का वाहक ।
प्रस्तुत संकलन के ३८ परिच्छेद हैं। इनमें धर्म, दर्शन, तत्त्व, व्यवहार, शील, चर्या आदि जीवनस्पर्शी मौलिक सूत्रों का संग्रह किया गया है। विषय और सामग्री दोनों का ही चयन मौलिक और अर्थपूर्ण है। उक्त संदर्भों से महावीर वाणी का गरिमा- वैशिष्ट्य प्रकट होता है। एक ही संकलन में इतनी अधिक सामग्री का उपलब्ध होना सचमुच ही रामपुरियाजी के पुरुषार्थ का द्योतक है। अब तक के प्रकाशित महावीर वाणी के अन्य संकलनों में यह सबसे बड़ा है। भगवान् महावीर २५०० वां निर्वाण महोत्सव महासमिति की साहित्य प्रकाशन योजना के अन्तर्गत यही एक कृति है जो जनता के हाथों में पहुंच सकी। केवल जैन ही नहीं अपितु अन्य व्यक्तियों के लिए भी महावीर को समझने में यह कृति सहायक हो सकेगी ऐसी आशा है। श्री श्रीचंद रामपुरिया इस संकलन के लिए वास्तव में ही साधुवाद के पात्र हैं।
मुनि गुलाबचन्द्र ‘निर्मोही’