________________
महावीर वाणी २६. चोद्दसपुव्वमहोयहिमहिगम्म सिवत्थिओ सिवत्थीण।
सीलंधराणं वत्ता होइ मुणीसो उवज्झायो।। (ध० १, १, १)
जो साधु चौदह पूर्वरूपी समुद्र में प्रवेश करके अर्थात् जिनागम का अभ्यास करके मोक्ष-मार्ग में स्थित हैं तथा मोक्ष के इच्छुक शीलंधरों अर्थात् मुनियों को उपदेश देते हैं, उन मुनीश्वरों को उपाध्याय परमेष्ठी कहते हैं। २७. उवज्झायनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं च उत्थं हवइ मंगलं ।। (आव० नि० १००१)
उपाध्याय परमेष्ठी को किया हुआ नमस्कार सर्व पापों का प्रकर्ष से नाश करने वाला है और सर्व मंगलों में चौथा मंगल है। २८. निव्वाणसाहए जोए जम्हा साहति साहुणो।
समा य सव्वभूएसु तम्हा ते भावसाहुणो।। (आव० नि० १००४)
मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले योगों को-रत्नत्रय को जो साधु सर्वकाल अपनी आत्मा से जोड़े और सर्व जीवों में समभाव को प्राप्त हों, वे मुनि भाव-साधु कहलाते हैं। २६. दंसण-नाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं ।
साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ।। (द्रव्य० सं० २२१)
जो दर्शन और ज्ञान से पूर्ण एवं मोक्ष के मार्गभूत सदा शुद्ध चरित्र को साधते हैं वे मुनि साधु परमेष्ठी हैं। उनको मेरा नमस्कार हो। ३०. विसयसुहाणिअत्ताणं विसुद्धचारित्तनिअमजुत्ताणं ।
तच्चगुणसाहयाणं सहाय किच्चुज्जयाण नमो ।। (आव० नि० १००६)
विषय-सुख से जो निवृत्त हो गये हैं, विशुद्ध चारित्र और अभिग्रह आदि नियमों से जो युक्त हैं, क्षमा आदि तात्त्विक गुणों के जो साधक हैं और दूसरे साधकों को सहाय करने में एवं मोक्ष के साधक कर्तव्यों में जो निरंतर उद्यमी हैं, ऐसे साधु परमेष्ठी को मेरा नमस्कार हो। ३१. साहूण नमोक्कारो सव्वपावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं पंचमं हवइ मंगलं ।। (आव० नि० १०११)
साधु परमेष्ठी को किया हुआ नमस्कार सर्व पापों का सर्वथा नाश करने वाला है और सर्व मंगलों में पाँचवाँ मंगल है।
१. पृ० ३२। २. साहण-पाठान्तर।