________________
२. उपदेश
११
२. सुत्तेसु यावी पडिबुद्ध-जीवी न वीससे पंण्डिए आसु-पन्ने। घोरा मुहत्ता अबलं शरीरं भारुण्ड-पक्खी व चरप्पमत्तो।।
(उ० ४ : ६) आशुप्रज्ञ पंडित सोये हुए व्यक्तियों के बीच में जागृत रहे। आयुष्य में विश्वास न करे । मुहूर्त बड़े निर्दय हैं, शरीर दुर्बल है, अतः मनुष्य भारण्ड पक्षी की भाँति अप्रमत्त रहे। ३. चरे पयाइं परिसंकमाणो जं किंचि पासं इह मण्णमाणो।
(उ० ४ : ७ क, ख) आत्मार्थी पुरुष पद-पद पर पापों से शंकित रहता हुआ तथा यत्किंचित् पाप को भी पाश मानता हुआ चले। ४. छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं आसे जहा सिक्खिय-वम्मधारी।
(उ० ४ : ८ क, ख) जैसे शिक्षित और तनुत्राण-कवच को धारण करने वाला अश्व युद्ध में विजय प्राप्त करता है, वैसे ही आत्मार्थी मनुष्य स्वच्छन्दता के निरोध से मोक्ष को प्राप्त करता है। ५. स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा एसोवमा सासय-वाइयाणं। विसीयई सिढिले आउयंमि कालोवणीए सरीरस्स भेए।।
(उ० ४ : ६) (धर्म के प्रति) जो अप्रमाद पूर्व में प्राप्त नहीं हुआ वह बाद में प्राप्त हो जायेगा-ऐसा कथन शाश्वतवादियों का है। पहले प्रमत्त रहने वाला मनुष्य आयुष्य के शिथिल होने और काल के आ पहुँचने पर शरीर-भेद के समय विषाद को प्राप्त होता है। ६. खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे। समिच्चं लोयं समया महेसी अप्पाण-रक्खी चरमप्पमत्तो।।
(उ० ४ : १०) आसक्ति के त्यागरूप विवेक को शीघ्र प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः हे मोक्षार्थी ! उठो। कामभोगों को छोड़ो। लोक को-जीवों को अच्छी तरह जानो और उनके प्रति समभाव पूर्वक व्यवहार करते हुए आत्म-रक्षक होकर अप्रमत्त भाव से विचरो। ७. मन्दा य फासा बहु-लोहणिज्जा तह-प्पगारेसु मणं न कुज्जा। रक्खेज्ज कोहं विणएज्ज माणं मायं न सेवे पयहेज्ज लोहं।।
(उ० ४ : १२)