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२. उपदेश
इस प्रकार प्रमादबहुल जीव शुभ-अशुभ कर्मों द्वारा जन्म-मृत्युमय संसार में परिभ्रमण करता है। इसलिए हे गौतम ! तू समय-भर के लिए भी प्रमाद मत कर । ६. धम्म पि हु सद्दहन्तया दुल्लहया काएण फासया।
इह कामगुणेहि मुच्छिया समयं गोयम् ! मा पमायए ।। (उ० १० : २०)
उत्तम धर्म में श्रद्धा होने पर भी उसका आचरण करने वाले दुर्लभ हैं । इस लोक में बहुत सारे लोक काम-गुणों' में मूर्च्छित रहते हैं। इसलिए हे गौतम ! तू समय-भर के लिए भी प्रमाद मत कर। ७. परिजूरइ ते सरीरयं केसा पण्ड्रया हवन्ति ते।
से सोयबले य हायई समयं गोयम ! मा पमायए।। (उ० १० : २१)
दिन-दिन तेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है। तेरे केश पक-पक कर श्वेत होते जा रहे हैं और श्रोत्र (आँख, नाक, जीभ और स्पर्श) का पूर्व बल घटता जा रहा है। इसलिए हे गौतम ! समय-भर के लिए भी प्रमाद मत कर। ८. परिजूरइ ते सरीरयं केसा पण्ड्रया हवन्ति ते।
से सव्वबले य हायई समयं गोयम ! मा पमायए।। (उ० १० : २६) । जैसे-जैसे दिन बीत रहे हैं, तेरा शरीर जीर्ण होता जा रहा है। तेरे केश पक-पक कर श्वेत होते जा रहे हैं और पूर्व सर्व-बल क्षीण होता जा रहा है। इसलिए हे गौतम ! समय-भर के लिए भी प्रमाद मत कर। ६. अरई गण्डं विसूइया आयंका विविहा फुसन्ति ते। विवडइ विद्धंसइ ते सरीरयं समयं गोयम ! मा पमायए ।।
(उ० १० : २७) अरति, फोड़ा-फुन्सी, विसूचिका तथा नाना प्रकार के घातक रोग तेरे शरीर को आक्रांत कर रहे हैं। उनसे तेरा शरीर बल-हीन होकर ध्वंस को प्राप्त हो रहा है। इसलिए हे गौतम! समय-भर के लिए भी प्रमाद मत कर। १०. वोछिन्द सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं।
से सव्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम ! मा पमायए।। (उ० १० : २८)
जैसे शारद-कमल अपने ऊपर से जल को गिरा देता है, वैसे ही तू ही अपने स्नेह (मोह) को व्युच्छिन्न कर। पूर्व सारे स्नेह से मुक्त हो निर्लिप्त बन। हे गौतम ! समय-भर के लिए भी प्रमाद मत कर। १. इन्द्रिय-विषय। २. 'सोयबल'-श्रोत्रेन्द्रिय बल । इसके आगे की २२ से लेकर २५ तक की गाथाओं में क्रमशः चक्षु,
नाक, जिहा और शरीर बल के द्योतक शब्दों का प्रयोग है। संक्षेप के लिए इस २१वीं गाथा के अनुवाद में उपलक्षण रूप से सर्व इन्द्रियों के नाम दे दिए हैं।