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१. अनुत्तर मंगल २०. पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पभासंता।
आयारं देसंता आयरिया तेण वुच्चंति।। (आव० नि० ६८८)
ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार-इन पाँच आचारों का जो स्वयं पालन करते हैं, दूसरों को कथन करते हैं और स्वयं आचरण द्वारा दूसरों को प्रदर्शित करते हैं, वे साधु आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। २१. पवयणजलहिजलोयरण्हायामलसुद्धबुद्धिसुद्ध छावासो।
मेरु व्व णिप्पकंपो सूरो पंचाणणो वण्णो ।। देस-कुल-जाइसुद्धो सोमंगो संगभंगउम्मुक्को। गयण व्व निरुवलेवो आयरिओ एरिसो होइ।। (ध० १, १, १)१
प्रवचनरूपी समुद्र के जल के मध्य में स्नान करने से अर्थात जिनागम के गंभीर अध्ययन और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गयी है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु के समान निष्कंप है, जो शूरवीर हैं, जो सिंह के समान निर्भीक हैं, जो देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, जो सौम्यमूर्ति हैं, जो संग से रहित हैं, जो आकाश के समान निर्लेप हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। २२. पंचाचारसमग्गा पंचिंदियदंतिदप्पणिद्दलणा।
धीरा गुणगंभीरा आयरिया एरिसा होति।। (नि० सा० ७३)
पंचाचारों से परिपूर्ण, पंचेन्द्रिय रूसी हाथी के मद का दमन करने वाले, धीर और गुणगंभीर ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। २३. आयरियनमुक्कारो सव्वपावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं तइयं हवइ मंगलं ।। (आव० नि० ६६२)
आचार्य परमेष्ठी को किया हुआ नमस्कार सर्व पापों का प्रकर्ष से नाश करने वाला है और सर्व मंगलों में तीसरा मंगल है। २४. बारसंगो जिणक्खाओ सज्झाओ देसिओ बुहेहिं।
तं उवइसंति जम्हा उवज्झाया तेण वुच्चंति।। (आव० नि० ६६५)
बारह अंग जो जिन देव ने कहे हैं उनको पण्डित जन स्वाध्याय कहते हैं। उस स्वाध्याय का उपदेश करते हैं, इसलिए वे मुनि उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं। २५. रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा।।
णिक्कंखभावसहिया उवझाया एरिसा होति।। (नि० सा० ७४)
रत्नत्रय से संयुक्त, जिन-कथित पदार्थों के उपदेशक, शूरवीर और निराकांक्ष-भाव सहित ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी होते हैं। १. पृ० ४८।