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महावीर वाणी
संकलनकर्ता : श्रीचन्द रामपुरिया प्रकाशक : भगवान महावीर २५०० वीं निर्वाण महोत्सव महासमिति
२१०, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली।
भगवान् महावीर की पचीससौवीं निर्वाण शताब्दी के अवसर पर जैन विद्या मनीषी श्री श्रीचन्द रामपुरिया द्वारा संकलित 'महावीर वाणी' का प्रकाशन एक अभाव की पूर्ति करने वाला सिद्ध हुआ है। विगत पांच दशकों में भगवान् महावीर की वाणी के अनेक संकलन प्रकाश में आए किन्तु उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो समग्र जैन समाज में व्यापक प्रसार पा सके। यही कारण है कि उन संकलनों की स्थिति उसी क्षेत्र के ईर्द-गिर्द रही जहां से उनका उद्गम हुआ था। स्वयं रामपुरियाजी का भी एतद्विषयक एक अन्य संकलन सन् १९५३ में 'तीर्थकर वर्धमान' के नाम से प्रकाशित हुआ था। यद्यपि वह महत्त्वपूर्ण श्रम सम्पन्न और अधिकृत था एवं आचार्य विनोबाभावे ने उसे उस समय की एक सर्वोत्तम कृति के रूप में अभिहित किया था किन्तु वह मात्र श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों पर आधारित होने के कारण समग्र जैन समाज में सम्मत नहीं बन सका । भगवान् महावीर की पचीससौवीं निर्वाण शताब्दी पर जैनों के सभी सम्प्रदायों ने कुछ सर्व सम्मत कार्यक्रम निर्णीत किए। उन कार्यक्रमों में साहित्य लेखन और प्रकाशन भी एक अंग था। उसकी क्रियान्विति की निष्पत्ति ही प्रस्तुत कृति है। इसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर समी ग्रन्थों का सार संकलित है अतः इसका समग्र जैन समाज में व्यापक प्रसार हो सकेगा, ऐसी आशा सहज ही की जा सकती है। ___ भगवान् महावीर जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर थे। उन्होंने आत्मदर्शन-से अपनी अनुभूत वाणी में कहा-जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया। जेण विजाणति से आया, तं पडुच्च पडिसंखाए-जो आत्मा है वह विज्ञाता है। जो विज्ञाता है वह आत्मा है। जिससे जाना जाता है, वह आत्मा है। जानने की शक्ति से ही आत्मा की प्रतीति होती
महावीर ने सत्य का सन्धान किया और अपनी अनुभव पुरस्सर वाणी में कहा–'सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहादी मारं तरति' | जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है, वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है। इसके साथ उन्होंने यह भी कहा कि सत्य का भय से कोई अनुबन्ध नहीं होता। भयभीत व्यक्ति कभी सत्य को नहीं पा सकता। 'सप्पुरिसनिसेवियं च मम्गं मीतो न समत्थो अणुचरिउं'।