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पहला भारा जिसको सुखमासुखम नाम से पुकारते थे। इसमे मनुष्य भद्रक, सरल स्वभावी, अल्परागी और सुन्दर स्वरूप वाले, निगेग्य शरीर वाले और अपना खाना पानादि सर्व कार्य दस जाति के कल्प वृक्षों से करते थे। उनके सन्नति का यह हाल था कि एक लड़का और लड़की युगलक रूप में जन्म लेते थे और वह युवावस्था प्राप्त होने, पर गृहस्थ धर्म कर लेते थे । इसी तरह- दूसरा पारा जिसको सुखमादुःस्वम के नाम से संबोधन करते थे । तीसरे पारे के अन्तम एक युगलिया वश में ७ कुलकर उत्पन्न हुए ( भन्य मताव लम्बी इसको मनु के नाम से पुकारते है ) कुल करों का यह काम होता था कि वह चित मर्यादा बांधे, और लौकिक व्यवहार मे मनुस्) को चलाते याने ( समय के राजा) इसी तरह दूमरे युगलक वंश मे भी ७ कुलकर हुए । सव मिला कर १४ कुलकर हुए । १५ वां कुलकर श्रा ऋषभदेव माना है । इन पिछले ७ कुलकरो के यह नाम थे। (१),विमलवाहन (२) चक्षुमान (३) यशस्वान (४) अमिचन्द्र (५) प्रश्रेणी (६) मरुदेव और 1७) वानाभिराय । इनकी यह महीपियो के यह नाम है (१) चन्द्रयशा (२) चन्द्रकान्ता (३) सुरुपा (४) प्रतिरुपा (२) चक्षुकान्ता (६) श्रीकान्ता (७) मरुदेवी इनका उत्पति स्थान गङ्गा व सिन्ध के मध्य खण्ड से माना गया है । अब तीसरा आरा व्यतीत होने आया, इस जम्बु द्वीपके भरत खण्ड में नामिराय कुलकर के पट्ट महिषि माता मेरुदेवी के गर्भ में “ बारहवे भव मे जो ब्रिजनाभ नामा चक्रवर्ति का जीव था. वह आषाढ़ कृष्णा ४ के दिन सार्थ