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तो भी अनके वचन काम कर गये । जिन विद्यार्थियोंको मैं अच्छी तरह जानता था कि वे शौकीन और आरामतलब हैं, वे भी अत्साह में आ गये और उन्होंने अपनी राय जिस प्रयोगके पक्षमें दी । अब व्यवस्थापकोंने अपनी अक आखरी किन्तु ठूली कठिनाभी पेश की । कहने लगे. 'नौकरोंको आजके आज नौकरीसे मुक्त करना हो तो अनको तनखाह देनी पड़ेगी । पैसे लाने पड़ेंगे। जिस वक्त खजानचीके पास नहीं हैं । ' गांधीजीके पास होते तो वे तुरन्त दे देते। वे यहाँ मेहमान थे, किससे माँग सकते थे ? सुनके आश्रमवासी भी आश्रमके मेहमान ही ठहरे। अनके पास कुछ नहीं था । मि० अँड्र्यूज़के पास भी अस वक्त कुछ नहीं था । मैं था अक घूमनेवाला परिव्राजक । तो भी पता नहीं कैसे गांधीजीने मुझसे पूछा - ' तुम्हारे पास कुछ हैं ? ' मैंने कहा " हैं।" मेरे पास करीब दो सौ रुपये निकले । मैंने उन्हे दे दिये । फिर क्या ? नौकरोंको तनख्वाह दे दी गयी, और वे आश्चर्यचकित होकर चले गये । अब सवाल अठा, रसोअीघरका चार्ज कौन ले । मेरी तो फुड रिफार्मर्स लीग चल ही रही थी। गांधीजीने मुझसे पूछा - 'लोगे ?' मैंने अिन्कार किया । आत्मविश्वासके अभाव के कारण नहीं, मिस प्रयोग पर मेरी अश्रद्धा थी सो भी नहीं, किन्तु मैं जानता था कि यह सारी अनधिकार चेष्टा है । मैने कहा 'मेरा छोटासा प्रयोग चल रहा है। अससे मुझे सतोष है । जितना बड़ा व्यापक परिवर्तन अकाओक करना मुझे ठीक नहीं जँचता । ' लेकिन fra तरह गांधीजी रुकनेवाले थोड़े ही थे । और झुनका भाग्य भी कुछ जैसा है कि अगर अक आदमीने अिन्कार किया, तो अनका काम करनेके लिये दूसरा कोअी न कोभी अन्हें मिल ही जाता है । मेरे मित्र राजंगम् अथवा हरिहर शर्मा शान्तिनिकेतनमें ही काम करते थे। जिन्हें हम अण्णा कहते थे । वे तैयार हो गये। कहने लगे - 'मैं चार्ज लूँगा ।' अब सवाल आया, मदद कौन करेगा | तब मैंने कहा 'जब मेरे मित्र कोभी काम अठाते है, तब मदद करना मेरा धर्म होता है । मैं यथाशक्ति मदद करूँगा । ' गांधीजीने कहा 'तुम्हारा प्रयोग जो छोटे पैमाने पर चल रहा है, असका भिस बड़े प्रयोगमें विसर्जन करो और सारी शक्ति अिसीमें लगा दो ।'
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