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सुनकी दलील ठीक थी। मै चुप हो गया। लेकिन मैंने मनमें कहा-'सस्था न आपकी है, न मेरी; और गुरुदेव भी (शान्तिनिकेतनमें रविवाबूको गुरुदेव कहते थे) मिस समय यहाँ नहीं हैं। अितना बड़ा अत्पात आप क्यों करने जा रहे हैं ?'
बापने श्री जगदानन्द बाबू और शरद बाबूको बुलवाया और पूछा कि 'यहाँ रसोअिये और नौकर मिलकर कुल कितने आदमी है ? ' जब अन्हें पता चला कि करीब पैंतीस, तो बोले-'अितने नौकर क्यों रखे जाते हैं ? अिन सवको छुट्टी दे देनी चाहिये।' व्यवस्थापक बेचारे दिमृद्ध हो गये। अन्हें सीधे कहना चाहिये था कि हम अकाओक असा नहीं कर सकते। किन्तु अन्होंने देखा कि मि० अंड्यज़ और पियर्सन बापूके प्रस्तावके पक्षमे है, और गुरुदेवके दामाद नगीनदास गांगोलीभी असी प्रभावमे आ गये हैं। और विद्यार्थी तो ठहरे बदर | किसी भी नयी बातका खफ्त सुन पर आसानीसे सवार हो जाता है। सारा वायुमडल अत्तेजित हो गया। मैंने देखा कि मि० अॅड्रयूजको स्वावलम्बनका अितना अत्साह नहीं था जितना ब्राह्मण जातिके रसोभियेको निकाल देनेका। विश्व-कुटुम्बमें विश्वास करनेवाली जितनी बडी संस्थामें ये ब्राह्मण रसोअिये अपनी रूटि चलाते और किसीको रसोगीघरमें पैठने नहीं देते।
लेकिन हम लोग' सामाजिक या धार्मिक सुधारके खयालसे प्रेरित नहीं हुसे थे; हमे तो जीवन सुधारकी ही लगन थी।
तय हुआ कि बापू विद्यार्थियोंको सिकटा करके पूछे कि असा परिवर्तन अन्हें पसन्द है या नहीं । क्योंकि, नौकरोंके चले जाने पर काम तो अन्हींको करना था। मि० अंड्यज़ बापूके पास आकर कहने लगे - 'मोहन, आज तो तुम्हे अपनी सारी वक्तृता काममें लानी पड़ेगी । लड़कोंको असी 'जोशीली अपील करो कि लड़के मंत्रमुग्ध हो जायँ । क्योंकि तुम्हारी अिस अपील पर ही सब कुछ निर्भर है ।' बापूने कुछ जवाब नहीं दिया ।
विद्यार्थी अिकटे हुमे । हम लोग तो गांधीजीकी जोशीली अपील सुननेकी सुत्कण्ठासे अपना हृदय कानमें लेकर बैठ गये।
और हमने सुना क्या ? ठडी मामूली आवाज़; और विलकुल व्यवहारकी वाते। न असमें कहीं वक्तृता थी, न कहीं जोश । न भावुकता (sentiment) को अपील थी, न बहुत शृंची या लम्बीचौड़ी फलश्रुति ।