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बापूके चरित्रका यह पहलू नटराजन्ने ही भैसे सुन्दर शब्दोंमें व्यक्त किया है ।
fret प्रसके साथ अक और प्रसग याद आता है.
अक प्रमुख मुस्लिम कार्यकर्ता के बारेमें बातें चल रही थीं। मैंने rus किसी सार्वजनिक अनुचित व्यवहारका जिक्र किया। बापूने दुःखके साथ कहा - ' तबसे असकी मेरे पास पहले जैसी कीमत नहीं रही। लेकिन अससे क्या ? असका कुछ नुकसान नहीं होगा । मेरे मनमें किसीकी कीमत बढ़ी तो क्या और घटी तो क्या ? मेरा प्रेम थोड़े ही कम होनेवाला है । '
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१९२६-२७ की बात है । खादीदौरा पूरा करके बापू अडीसा पहुँचे । वहाँ हम लोग अटामाटी नामके अक गाँवमें पहुँचे । बापूका व्याख्यान हुआ । फिर लोग अपनी अपनी भेंट और चन्दा लेकर आये कोभी कुम्हड़ा लाया, कोभी विजौरा (विजपुर, मातुलिंग) लाया, कोभी बैंगन लाया और कोओ जंगलकी भाजी । कुछ गरीबोंने अपने चीथड़ोंसे छोड़ छोड़कर कुछ पैसे भी दिये । समामें घूम घूमकर मैं पैसे अिकट्ठे कर रहा था । पैसोंके जगसे मेरे हाथ हरे हरे हो गये थे। मैंने बापूको अपने हाथ दिखाये । मुझसे बोला न गया। दूसरे दिन सुबह बापूके साथ घूमने निकला । रास्ता छोड़कर हम खेतोंमें घूमने चले | तब बापू कहने लगे ८ कितना दारिद्र्य और दैन्य है यहाँ ! क्या किया जाय भिन लोगोंके लिये ? जी चाहता है कि मेरी मरणकी घड़ीमे झुदीसामें आकर जिन लोगों के बीच मरूँ । अस समय जो लोग मुझे यहाँ मिलने आयेंगे, वे तो जिन लोगोंकी करुण दशा देखेंगे । किसी न किसीका तो हृदय पसीनेगा और वह अिनकी सेवाके लिये आकर यहाँ स्थायी हो जायगा । " जिस पर मैं क्या कह सकता था ! झुनकी अिस पवित्र भावनाका धन्य साक्षी ही हो सका ।
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