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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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॥ॐ ॥
॥ श्री जिनाय नमः ॥
महात्मा पद-वाची जैन ब्राह्मणों
का
संक्षिप्त इतिहास
लेखक --
पं० काश्यपगोत्री कोरंटावाल अवटंकी पं० वक्तींवरलाल महात्मा उदयपुर निवासी
संवत् २००२ R TELL
}
{
वीर संवत् २४७१
मूल्य २
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श्री हंसराज बच्छराज नाहटा सरदारशहर निवासी
द्वारा
जैन विश्व भारती, लाडनूं को सप्रेम भेंट
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(७)
रहने में प्रजा को निर्विघ्न स्थान मे सुरक्षित रखने का विचार श्रा, एकवार महाराज कुमार श्री प्रतापसिंहजी के कॅवर श्रीअमरसिहजी की मन्नत उतारने को श्री कैलाशपुरी में श्री एकलिङ्गजी महाराज आये वहाँ देवाग भीतर उन्होने अपने विचार माफिक सुरक्षित स्थान समझा क्योंकि यहाँ चारो तरफ पर्वतमाला होने से प्राकृतिक सुद्ध कोट और भूमि भी उर्बरा. अच्छा जलवायु का होना निश्चय कर नगर वसाना आरम्भ किया था। वि० सं० १६८२ मे हमारे पूर्वज रूपचन्द्रजी ने मेरता से यहाँ आकर पोसाल बाँधी जहाँ पर पोसाक नियन की उस मोहल्ले का नाम मातीचोहट्टा के नाम से प्रसिद्ध है, इसके प्रमाण मे एक प्राचीन सन्द का हवाला देता हूँ। 'रूपचन्दजी के चतुर्थ पुत्र लाजी नाम के थे। ये व्य करण पाठी थे। उनके हस्त लिखित एक शिल' नेख वि० सं० १७०८ का वैशाख सुद ७ गुरुवार का कैलाशपुरी मे एकलिङ्गाजी के मन्दिर में दक्षिण द्वार श्री कालिका माताजी के मन्दिर के पीछे श्री गोस्वामीजी महाराज बड़े रामानन्दजी महाराज के समाधि स्थान पर आज लौ प्रशस्ति रूप में विद्यमान है, इसके सिवाय और भी रान की सन्दो से यहाँ पा गहना सिद्ध होना है, रूचपन्दजी से लेकर बसन्तिलाल, गनपत नाल का सजरा नीचे दर्ज है।
रूपचन्दजी .
रामचन्दजी अमरचन्दजी शुभकर्णजी बेलाजी पालालजी
। राजनगर करेड़ा मोविन्दगढ़ .
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हीराचन्द्रजी
1
चोथमजी
दीप चन्दजी
( ६ )
रामचन्द्रजी
कल्याणदासजी पोखरजी
/ लखमीदासजी कालुजी
1 ब्रह्मचारी रहे
कल्याणजी
नीमच
I
मानजी ऽ धनजी
1
गोरधनजी
भगवानजी
चतुरभुजजी
ड्रॅगजी
1
1
'
T
खेमराजजी चम्पालालजी प्रेमचन्दजी
०
1
वक्तावरलाजी गोढ़ गये नीमच
-
दाजी
मोही
T
रखवदासजी
०
बसन्तिलालजी
गनपतलालजी
इस व्यक्ति के पिताजी का नाम खेमराजजी था । इनका जन्म समय संवत् १८६४ है । यह महाशय ज्योतिष, गणिन, भूगोल, खगोल आदि शिक्षा में पूर्ण थे। इसकी तसही क
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(१)
चाहो तो महताजी राय पन्नालालजी की हवेली पर उनके कँवर फतहलालजी ने पुस्तकालय कायम किया है, उसमें उस समय के प्रसिद्ध पुरुषों के चरित्र समेत संक्षेप इतिहास के मौजूद हैं। उक्त पण्डितजी ने दो विवाह किये थे। पहला तो देलवाड़ा (मेवाड़) मे नाणावाल गच्छि भारद्वाज गोत्रीय पण्डित रतनजी के पुत्र मय्याचन्दजी की पुत्री वृद्धिवाई के माथ दूसरा विवाह नकुमई ग्वालियर साँडेर गच्छ वसिष्ठ गोत्री खुमाणजी की कन्या गेदवाई के साथ किया। इनकी ज्योतिष विद्या की प्रखरता के विषय में मैं सिर्फ एक ही उदाहरण देता हूँ । सं० १६१४, ईस्वी सन् १८५७ मे जो हिन्दुस्तानियो के व अग्रेजो के युद्ध हुआ जिसको गदर के नाम से प्रसिद्ध किया जाता है, इस समय राजकीय ज्योतिष पण्डितो ने भीपण रूप से युद्ध होने की घोपणा की थी लेकिन इन महाशय ने एक भविष्य वाणी लिख मारफत मोड़जी गोटा वाला के श्री जी मे नजर कराई। उक्त वाणी मे यह मजमून था "मेवाड़ में बदले लोगों की सेना आवेगा लेकिन उदयपुर से १२ कोस के अन्तर पर युद्ध होगा, और वे लोग परास्त होकर भागेंगे। व उनके घोड़े शस्त्र वगैरह सामान श्री जी मे नजर होगा । मेवाड़ को हानि न पहुँचेगा और अंग्रेजो की हुकूमत कायम रहेगा। चुनाचे यह युद्ध रूकम गढ़ के छापर में हुआ और वे लोग परास्त होकर भाग गये। सामान यहाँ नजर हुआ, वाद अमन होने के सर्वे भविष्य वाणीयें नजर हुई उनमें यह ठीक मिली जिस पर महागणाजी श्री स्वरूपसिहजी साहब ने प्रसन्न होकर राज्य सन्मान से सन्मानित किए, याने स्वर्ण के कड़े सिरोपाव
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(१०)
अमरमाही पगड़ी बाँधने व डंको की पछेवड़ी बाँधने डीड़ी पहर कर मोजाना दार से आशीर्वाद देने के लिये प्रान का व राज में पण्डित ज्योतिपियो में भरती करने आदि इज्जत बक्षो । इसका वृत्तान्त वि० सं० १६१४ पौष शुक्ला १२ की मिती में राजकीय कपड़ा का भण्डार व पाण्डेजी की ओवरी मे दर्ज है। बाद मे महाराणाजी श्री शम्भूसिहजी के राज समय मे राजकीय पाठशाला पण्डित रत्नेश्वरजी के निवेदन पर कायम हुई । उसका नाम 'शम्भूरत्न पाठशाला' रक्खा गया। वहाँ पर शहर के छात्र हमारे पोसाल पर पढ़त थे उनको लेजा कर वहाँ स्थापित किए
और उक्त पण्डितजी को प्रधान अध्यापक (हेडमास्टर ) नियत किये। और मिस्टर इंगल साहब को सुगरिएटेण्डेण्ट कायम किया। हमारे पोसाल पर शहर के छात्र,दिवाणादिको के पुत्र ब सर्व जाति के लड़के पढते थे। वि० सं० १९२८ में इनको ग्राम का दान देना निश्चय हुआ। लेकिन यह आध्यात्मिक बल के थे तो निवेदन कराया के मै पृथ्वी का दान लेना नहीं चाहता उस पर मासिक २०) रुपये कर बक्षे और ताम्बापत्र कर बना "उपर श्रीरामजी वगैरह दस्तूर माफिक सहो व भाला फिर महाराजधिराज महाराणा जी श्री शम्भूसिंहजी आदेशात् माहातमा खेमराज डूंगरसिंह का कस्य थने रुपया २०) अखरे बीस महावारी दाण का धर्मादा मे श्रीरामार्पण कर बख्श्या है सो हमेशा मिला जायगा । यो पुण्य श्री जो को है आगे मामूली श्लोक, इन महाशयो,के नाम शिष्य धर्मपालन करने वालो के पात्रो का अलकाब भी वास्ते मुलाहजे के संक्षेप रूप में दर्ज करता हूँ। महता अगर चन्दजी के वंशज महता देवी चन्दजी
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(११) रुपनाथदामजी का पत्र जहाजपुर से वि० सं० १६२२ वै० सुद ७ "मिद्ध श्री उत्यपुर शुभस्थाने सर्वोपमा विराजमान लायक बावजी श्री खेमराजजी पेमराजजी जोग जहाजपुर से देवचन्द मघनाथदाम की वन्दना वॉचमो अठाका समाचार भला छे
आपका महा मना चाहिजे तो म्हाने परम सुख होवे आप मोटा छो प्रजनीक को मदीप D कृषा महरबानी राखो छो ज्य ही रखावमी नीका रह मो डीला को जस राम्ब सो हास्याँ पर
आपकी माजी ने पावॉ धोग कीजो। महताजी मुरली धरजी को पत्र न. १६२५ फागण विद द "सिद्ध श्रा उदयपुर शुभ सुथाने मरव श्रापमा लायक गुरु महाराज श्रीखेमराजजी एतान जहापुर श्री महा मुरली वर लिखता दण्डवत बचावसी अप्रञ्च ।। महना अजीतहिजो को पत्र वावजी श्री ५ श्री खेतराजजो,तूं बन्दना बञ्चावनी प्राधा रेसी कृपा महरवानगी हे ज्यू ही रेवे अपरञ्च । महताजी पन्नालालजी सी. आई ई. "सिद्ध श्री गुरु महागन श्री ५ श्री खेमराजजी हजूर पन्नालाल की दण्डवत मालूम होव महरवानी है ज्यू ही रहे। वि० सं० १९२२ का चेत बद २ इनको मं० १८८७ का पोप विद ५ सी. आई. ई. का खिताव नमगा गवर्नमेण्ट मरकार आलीये हिन्द से अता हुआ। इनकं लघु भ्राता लक्ष्मीलालजी का पत्र कनेरे ग्राम से। 'सिद्ध श्री उदयपुर शुभ सुथान सरव अोपमा सदा विराजमान अनेक ओपमा लायक पुज्य बावजी साहब श्री १०८ श्री खेमराजजी एलान श्रीकणेरा थी मदा संवक लछमीलाल महता लि. दण्डोत पावाँ धौग मालूम होवे अठारा समाचार श्री आपकी कृपा सुनजर कर भला है आपरा सदा भला चावे तो सेवक ने परम आनन्द होवे सदा सेवक पर सुनजर गुरु पणो है जी V
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(१२)
ज्यादा रखावेगा । वि० सं० १९२० प्र० सावण विद ६ कटारिया महताजी वख्तावर सिंहजी वि० सं० १९२० वै० विद ४ पत्र "सिद्ध श्री गुरु महाराज श्रीखेमराजजी तूं महता वस्तावरसिह जी अरज मालूम होवे । महताजी रुघनाथसिहजी रो पन वि० सं० १९२६ पोष सुदी १३ । 'सिद्ध श्री श्री श्री श्री श्री १०८ श्री श्री बावजी साहब श्री खेमराजजी हजूर में कमतरीन रुघनाथसिह की दण्डवत मालूम होवे। उमरावा में देलवाड़ेराज राणा फतहसिहजी को रुको गुरुजी खीमराजजी सुराणा फतहसिह को पावॉ लागणो बाँचजो । इन पण्डितजी का परलोकवास वि० सं० १९३० का श्रावण शुक्ला १ को ३६ की आयुष्य मे हुआ इन महाशयो ने अपने अन्तकाल की तिथि से एक वर्ष पूर्व एक टीप लिखी कि वि० सं० १६३० का श्रावण शुक्ला १ क दिन मेरा शरीर छूट जावेगा और दूसरी टीप मे यह दर्ज किया कि बि० सं० [१९३१ का आश्विन कृष्णा १३ के दिन श्री जी भी स्वर्गवास पदार जावेगा । चुनाचे श्रावण सुद १ के दिन का शरीर छूट गया । यह हाल श्री रावजी रावबहादुर बख्तसिहजी बेदला ने श्री जी में अरज किया उस पर कलमदान में से दीपे निकाल मुलाहजे फरमाई गई और फरमाया कि आज खेमराज जैसा ज्योतिषी मेवाड़ मे से उठ गया श्रीएकलिंगजी की मरजी है-महाराणाजी श्री जी शम्भू सिहजी जी. सी. एस. आई का जन्म वि० सं० १६०४ पौष कृष्णा १, राज्याभिषेक वि० सं० १६१८ का सुद १५ स्वर्गवास सं० १९३१ का आश्विन कृष्णा १३ हुआ।
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(वख्तावरलाल का जीवन चरित्र)
इस व्यक्ति का जन्म विक्रम संवत् १९२३ का भाषाद कृष्णा १२ सोमवार को हुआ दो वर्ष के बाद मातेश्वरी का परलोक वास होगया, और सात वर्ष की भायु में पिता भी परलोक वास कर गये । इस संकटमय अवस्था का समय श्रीमान राय पन्नालालजी सी. आई. ई. प्रधान रियासत मेवाड़े व इनके भ्रातागणों व श्रीमान महताजी वख्तावरसिंहजी व उनके _सुपुत्र कॅवर गोविन्दसिहजी की सहायता से व्यतीत हुआ । इस बाल्यावस्था में उस जमाने मुआफिक सामान्य पढ़ाई की गई । वि० सं० १९३६ का आसाढ़ मास में राज श्रीमहक्मे खास में बजुमरे अहल्कारों में मुलाजिम हुमा । वि० सं० १९४२ का मृगशीष मे पहला विवाह कांकरोली मे श्रोसबाला अवटंकी गौत्तम गौत्री नाथूलालजी की कन्या से हुआ । इनसे वसन्तीलाल का जन्म वि० सं० १९४६ में हुआ । इनका अन्तकाल वि० सं० १६५७ में होगया। फिर दूसरा विवाह प्राम करेड़ा राजाजी का में गौतम गौत्री ओसवाल अवटंके रामचन्द्रजी की कन्या से हुआ । इनसे एक बाई हुई और वि० स०६८ में इनका इन्तकाल होगया। तब फिर तीसरी शादी चाणसमा ई. बड़ोदा गुजरात में पुनम्या अवटंक के मढर गौत्र में पं० ताराचन्दजी की कन्या से हुई । इनसे गनपतलाल का जन्म वि० सं० १९७० का मृगशीर्ष शुक्ला ६ बुधवार के दिन हुआ पिताजी का परलोकं वास वि० सं० १९३० में हुभा था। उस भरसे में ज्यो २०) मासिक ताम्र पत्र के मिलते थे
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(१४) वह दाणं दारोगा ने देना बन्द कर दिया उस पर यह तनख्वाह पीछी मेरे नाम पर साबित कराने का हुक्म होने के लिये राज श्रीमहक्मे खास में दरख्वास्त दो । उस पर महेक्में मौसूफ से असल महकमें माल में भेजी जावे के बदस्तूर, सायल ने दवावता रहे, मबरखा भाद्रपद शुक्ला ४ वि० सं० १६२० हु. नं. ३१३ हुआ और महकमें माल सहु. नं० ११३ भा० सु०८ सं० १६३०, नकल वास्त तामील हुक्म महकमे खास क दारोगा दाण पास भेजी जावे । इस पर तनख्वाह पीछी मिलनी शुरू होगई। पिताजी के इन्तकाल के १२ दिन बाद कपड़ा के भण्डार से सफेद पाग आई वह बाँधकर श्रीजी में आशीर्वाद देने गया तो नजर करने बाद महतानी पन्नालालजी ने अज किया के नो क्षेमराज को बेटो है अग्इका बापको श्रीजी इन्नत बक्षी ची माफक उत्तर कार्य करनो भी जरूरी है और इके सिवाय इ के पिता के सरकारी दुकान का करजा ५००) व्याजु है । यो जो बालक है। वो पर श्रीमहाराणाजी श्रीशम्भूसिहजी ने आज्ञा .बक्षी के उत्तर कार्य के लिये तो ५०१) नकद
और करजा छूट किया जावे । उसकी तामील होकर ५०१) नकद मिले। निसे व निगरानी महता वख्तावरसिंहजी उत्तर क्रिया में द्वादशा किया नाकर जाति में १) एक कल्दार रुपे की दक्षिणा दी गई । फिर महाराणाजी श्री सज्जनसिहजी के राज्य समय मे रियामत का बजट बान्धा गया। उसमें यह तनख्वाह धर्म सभा कायम कर कुल धर्म खाता उसके तालुक किया गया। उस समय २०) के बजाय १०) माहवार कर दिया गया। उस का हाल व पंडित ज्योतिपियों में नाम दरज होने का हाल साबत
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(१५)
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का बहोड़ा जो राजश्री महकमें खाम में खास श्रीजी हजूर के दस्तखतो का है उसमें दग्न है । बि०स० १६४५ में करनल सी. के. एम. वाल्टर साहब बहादुर एजेन्ट गवर्नर जनरल राजपूताना सु० आवू ने एक सभा वास्ते कायदा राजपूत सरदारों के राजपूताना में अपने नाम से कायन की । चुनाचे उसकी शाखा उदयपुर में भी कायम हुई वि. सं० १९४६ उसमें मेम्बर सर्दार इस मुआफिक मुकरिर हुए। वेदने राव बहादुर रावजी तख्तमिजी व रात्रतजी जोधामिहजी सलूम्बर, देलवाड़े राज राणा फतहसिंहजी राय बहादुर, व महताजी राय पन्नालालजी सी. आई.ई. मेम्बर व सेक्रेटरी व महामहोपाध्याय कविराज शामलदासजी, व सही वाला अर्जुनसिहजी व पुरोहित पद्मानाथजी, व गव वख्तावरजी, यह आठ मेम्बर मुकर्रि हुए । इस सभा में तरक्की देकर महताजी मौसूफ ने इस व्यक्ति की महकमे वाम से यहाँ बदी करदी । फिर वि० सं० १६४७ में झालावाड़ में झाड़ोल व ठीकाने मादड़ी के दरमियान मौजे अदका - लिया के बराड़ का तनाजा था, उसकी तहकीकात पर भेजा गया। साथ में सवार, पहरा, ऊट, चपरासी हरकारा धोडा था। वहां तहकीकात करता था उस समय राजश्री महकमें खास से रु० नं० ११७३ मत्ररवा चेत सुद १४ वि० सं० १६४७ 'सिद्धश्री श्री वख्तावरलालजी महात्मा जोग राज श्री महकमे खास लि. प्रच' सादिर हुआ, और भी राज के महकमें जात व अ दालतों की तहरीरें इस माफिक जारी हैं। अदालत सदर दिवानी, सुन्सफी व पुलिस वगेरा से "मिद्धश्री महातमाजी श्रीख्नावरलालजी योग्य । वि स १६५८ में वास्ते फैमापन
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(१६)
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कानून सभा तमाम इलाके मेवाड़ में दौरा किया। साथ में सवार पहरा, ऊंट, घोड़ा, सांडिया, चपरासी वगैरा थे। उस समय में ठिकाने उमरावान में से फोजदार कामदारी की तहरीरात इस माफिक हुई मसलन बेगम "सिद्धश्री मुकाम बेगम सुभसुथाने सर्व अोपमा बावजी श्री वख्तावरलालजी अन्डर सेक्रटरी वाल्टर कृत राज पुत्र हित कारिनी सभा बेगू से रावतजी श्री सवाई मेघासहजी का फौजदारी कामदारां लिखता जुहार वांचसी । अठाका समाचार श्रीजी की कृपाकर भला है । राज का सदा भला चाहिजे राज म्हारे घणी बात है। सदा हेत इकलास है ज्यूही रखावसी अप्रच"। ठिकाने हमीरगढ़ "सिद्धश्री महात्माजी श्री वख्तावरलालजी जोग हमीरगढ़ थी रावत श्रीमदनसिंहजी लिखता जैश्रीएकलिंगजी की वांचसी । अठाका समाचार श्रीजी की सुनजर कर भला है। राजका सदा भला चाहिजे । अपंच" | ठिकाना बोहड़ा से "सिद्धश्री मुकाम दौरा सुभसुथाने सरव श्रोपमा जोग बावजी श्री वख्तावरलालजी जोग बोहड़ा थो रावसजी श्री नाहरसिंहजो लि० जुहार पांचसी । अठाका समाचार श्रीजी की सुनजर कर भला है राज का सदा भला चाहिजे अप्रच। ठिकाने लणदा "सिद्ध श्री मुकाम लणदा सुभसुथानेक सरब अोपमा जोग बावजी श्रीवस्तावरलालजी जोग लणदा थी रावतजी श्री जवानसिंहजी लिखता जुहार वांचसी अठाका समाचार श्रीजी की सुनजर कर मला है। राजका सदा भला चाहिजे । अपच । रूपाहेली बड़ी "सिद्धश्री श्रीराजश्री वाल्टर कृत राज पुत्र हितकार नी सभा का अन्डर सेक्रेटरी श्री यख्तावर लालजी महात्मा जोग रूपाहेली कला से राजभी
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. (२५) है कि जो कुछ भी मेने सुना था वो बिलकुल सत्य निकला। मिर्फ शहर में ही इलाज नहीं करते, गावों में भी जाते है। मुझे इस बात को जानकर बड़ा आनन्द हुआ कि यह अपनी चिकित्सा में आयुर्वेदीय औषधिया भी काम में लेते हैं और स्वयं बनाने का कष्ट उठाते है। मैं इनकी हर बात मे सफलता चाहता हूँ।
इनसे मेरा सम्बन्ध थोड़े ही दिनों का नही है लेकिन कई पुश्तो से-चला प्रारहा है । मैं ५०) रु० गरीबो को दवा मुफत बाटने के लिये भेट करता हूँ । तारीख १५-२-१६२६ ई.
द. महत फतहलाल सर्टिफिकेट डाक्टर एस. एच पण्डित डी. ओ. एम. एस इगलण्ड एम. एस, बोम्बे ता०२६-११-२६ ई. 'ये महा. शय महाराणा साहिब श्रीयुत् फतहसिह जी के नेत्रों का इलाज करने आये तत्र स्वयं अस्पताल मे आकर निरीक्षण करके दिया:
'डाक्टर बसन्तीलाल से उदयपुर मे फिर से मिलने से बहुत खुशी हुई जिनको मैं बहुत बरसो से विद्यार्थी व डाक्टरी की हालतो में बखुली जानता हूँ, हिन्दुस्तानी वं अंग्रेजी दोनो तरह की चिकित्मा को टीक तहह से जानते है इनको आयुर्वेदिक पद्धति के अनुसार इलाज करने का बहोत शोक है और यहाँ की जनता को जरुरीयात को पूरी करने के लिये ये पूरी २ कोशिश करते है, यह हर एक विषय मे अच्छा शोक रखते है और मुझे पूरी उम्मेद है कि यह अपनी महिनत व दील-चस्पी के कारण एक अच्छे चिकित्सक की शोहरत हासिल करलेगे अव
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(३४) ॐ स्वस्तिनःइन्द्रोवृद्धश्रवा स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तारक्षोअरिष्टनेमिः स्वस्तिनो वृहस्पतिर्दधातु । दीर्घायुस्त्वाय बलायुर्वाशुभंनातायु रक्ष२ अरिष्टनेमि स्वाहाः ॥ यहां जरा गौर कीजिये कि अरिष्टनेमि जैन में २२ वां तीर्थकर है इसलिये यह मन्त्र नैनियों का होना साबित है। फिर यजुर्वेद मन्त्र--ॐ त्रैलोक्ये प्रतिष्ठाना चतुर्विशति तीर्थकरणां ऋषभादि वर्तमानान्तान सिद्धानां शरणं प्रपद्ये ।
अब पौराणों के प्रमाण
श्रीमद्भागवत के ५ स्कन्द में श्रीऋषभदेव को साक्षान, परमेश्वर का अवतार मानकर इतिहास दिया और पाखीर में नमस्कार किया।
"नित्यानुभूत निजलाभनिवृत तृष्णाः । श्रेयस्य तद्वचनया चिरसुप्तबुद्धेः । लोकस्पयोकरुणयो भयमात्म लोकमाख्या नमोभगवते ऋषभायतस्मै । ब्रह्माण्डपुराण में-"नाभिस्तु जनयेत्युत्रं मरुदेव्या मनोहरम् । ऋषभ क्षत्रिय श्रेष्ठ सर्व क्षात्य पूर्वकम् ॥ "ऋषमाद्धारतो जज्ञेवीर पूत्रं शताग्रजः । राल्भषिच भरतं महाप्राज्यमाश्रितः ॥ शिवपुराण में शिवोवाचः "अष्टषष्ठीषु तीर्थेषु यात्रायां यत् फल भवेत् । आदिनाथस्य स्मरणेनापितद्भवेत् ॥
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( ३५ )
योग वसिष्ट रामायण - वैराग्य प्रकरण में स्वयं श्रीरामचन्द्र भाज्ञा फर्माते हैं
hy
" नाहम रामो नमेवान्छामावेषु च तमे मनः । शान्तिमा स्थातुमिच्छामि चात्मनेव जिनो यथा ।। "
Begin
नगरपुराण के भवावतार रहस्य में "अकारादि हकारान्त मुर्द्धा धोरेफ संयुते नाद बिन्दु कलाकान्त चन्द्र मण्डल सन्निभं । एतद्देविपरंतत्वयो विजानातितन्तवः संसार बन्धनं छित्वा सगच्छेत् परमगतिम ||
प्रभास पुराण में - " भवस्य पश्चिमे भागे वामने न तपः कृतम् तेनैव तपसा कष्टः शिवः प्रत्यक्षतांगतः ॥ पद्मासन समासीनः श्याम मुर्तिर्दिगम्बरः । नेमनाथ शिवोथेवं नाम चक्रेऽस्य वामनः ॥ कलिकाले महाघोरे सर्व पाय प्रणाशनम् । दर्शनात स्पर्शनादेव कोटि यज्ञ फल प्रदम।। देखो जैन तीर्थकरों में नेमनाथ २२ वां तीर्थकर है और इनका श्याम वर्ण होना ग्रन्थों में लिखा हैं ।
नागपुराण - दर्शयन् वर्त्म वीराणां सुरा सुर नमस्कृतः ।
नीतित्रयस्य कर्नायो युगादौ प्रथमोजिनः ॥ सर्वज्ञ सर्वदर्शी च सर्व देव नमस्कृतः । छत्रत्रयी मिरापुज्यो मुक्तिमार्ग सौवन्दन ॥ आदित्य प्रमुखा सर्वे बद्धांजलिभिरीशितुः । ध्यायन्ति भावतो नित्यं दधियुग निरंगम् ॥
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( ३६ ) .
कैलाश विमले रम्ये ऋषभोय जिनेश्वर । चकार स्वावतारं यो सर्वः सर्व गतः शिवः ॥
भवानी सहस्र नाम से "कुण्डासना जगद्धात्री बुद्धमाता जिनेश्वरी । जिनमाता जिनेन्द्रा च शारदा हँस वाहिनी ||
मनुस्मृति में कुलकरों के नाम दिये जिनको मनु कहते हैंकुलाविजं सर्वेषां प्रथमो विमल वाहनः । चक्षुष्माश्च यशस्वी वामिचन्दोधव प्रसेनजित् ॥ मरुदेवी च नाभिश्च भरते कुल सत्तमः । अष्टमो मरुदेव्यां नाभेर्जा उरुक्रमः ॥ दर्शयन वर्त्म वीराणां सुग सुर नमस्कृतः । नीतित्रय कर्तायो युगादौ प्रथमो जिनः ॥
भर्त हरिशतक वैराग्य पुराण -
एट्रो रागीषु राजते प्रियतमा देहद्धि घोरिहरो । नीरागेषु नो विमुक्त लालना सँगो नयम्मात्परः ॥ दुर्बार स्मरबाण पन्नग विष व्यासक्त मुधोजन | शेषकाम विबितोहि विषयाऩभोक्तु नमोक्तुक्षम ॥
दक्षिणा मूर्ति महस्र नाम से
शिवौवाचः - जैन मार्ग रतोजैनो, जितः क्रोध जितामतयः ॥
वैशम्पायन सहस्र नामकालनेमि निहावीरः शूरः शौरि जिनेश्वरः ।
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दुर्वासा ऋषि कृत महिम्न स्तोत्र
तत्र दर्शने मुख्य शक्तिरिति चत्वं ब्रह्म कर्मेश्वरी। कर्ताऽईन पुरुषो हरिश्व सविता वुद्धः शिवस्वे गुरु ।।
___ श्री हनुमान नाटकयशैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मोति वेदान्तिनो। बौद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवः कर्तेती नैयायका ।। अईन्नित्यय जैन शासन रताः कर्मेति मी सकाः । सोयं वो विद्धानुवांछित फलं त्रैलोक्यनाथ प्रभु।।
इन धर्म ग्रन्थों के सिवा व्याकरण से भी प्राचीनता सिद्ध होती है।
शकटायनाचार्य चे स्तुति की हैनमः श्रीबर्द्धमानाय (महावीर) प्रबुद्धा शेषवस्तवे । येन शब्दार्थ सम्वन्धा सावर्ण सुनिरुपिताः ॥
आगे देखिये यही शकटायनाचार्य अपने व्याकरण के प्रत्येक पदान्त में "महा श्रमण संघाधिपतेः श्रुत केवलि देशी चार्यस्य शाकटायनस्य" यह शाकटायन आचार्य परम जैनी थे जैसा कि टीक कार यक्ष वर्मन कहते है, "स्वस्ति श्री सकल ज्ञान साम्राज्य पदमाप्तवान् महाश्रमण संधाधिपतिर्यशाकटायन ।” शाकटायन के उणादि सुत्र में "जिन" शब्द व्यवहारित हुआ है।
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( ३८ )
इण जस जिनिडुप्य विभ्योनक सूत्र २५६ पाद ३ सिद्धान्त - कौमुदी कर्ता ने इस सुत्र की व्याख्या में 'जिनोऽर्हन कहा है ।
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मेदनी कोष मे भी "जिन" शब्द का अर्थ "अर्हत" जैन धर्म के आदि प्रचारक हैं ।
वृत्तिकारगण भी "जिन" के अर्थ में 'अन्' कहते हैं । यथा उणादि सुत्र सिद्धान्त कौमुदी ।
आधुनिक काल के योरोपियन भी जैन धर्म की प्राचीनता समर्थन करते हैं। जैसा कि जर्मन, के डा. जेकोबी ४० वर्ष से जैन साहित्य का अभ्यास कर रहे हैं और कितने ही जैन स्कॉलर तैयार किये हैं। बल्कि सन् १९१५६० मुताविक वीर संवत् २४४२ में जैन साहित्य सम्मेलन जोधपुर में लम्बा भाषण दिया था ।
"
इसी तरह बंगवासी एम. एम. डाकूर शतशचन्द्र विद्याभूषण एम. ए. पी. एच. डी. प्रेसिडेण्ट जैन लिटरेरी कानफ्रेन्स जोधपुर में अपनी वक्तृतादि जिसमे जैन धर्म के महत्व का वर्णन किया
इसके सिवाय सन् १९०४ ई० मे बड़ोदा नगर में कान्फस के मौके पर श्रीमान् बड़ौदा नरेश ने जैन धर्म की प्राचीनता प्रसंशा का व्याख्यान दिया
फिर इसी सन् की ता० ३० नवम्बर के दिन भारत गौरव के तिलक पुरुष शिरोमणि इतिहासज्ञ माननीय पण्डित बाल
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(३६)
गंगाधर तिलक सम्पादक केशरी ने अपने व्याख्यान में कहा कि "जैन-धर्म अनादि है।
___ यह विषय निर्विवाद है और जैन धर्म ब्राह्मण धर्म के साथ निकट सम्बन्ध रखता है, शक चलाने की प्रथा (कल्पना) जैन भाइयो ने ही उठाई । गौतम बुद्ध महावीर का शिष्य था, बौद्ध धर्म के पहले जैन धर्म का प्रकाश था। जैन धर्म के ही "अहिंसा परमो धर्म” इस रदार सिद्धान्त ने ब्राह्मण धर्म पर चिरस्मरणीय छाप मारी है।
हिंसक यज्ञ छुडाये। जिन यज्ञो में हजारो पशुओ की हिसा होती थी इपके प्रमाण मेघदूत आदि कारों में मिलते हैं। यह श्रेय जैन धर्म के ही हिस्से में है। ब्राह्मण और हिन्दुओ में माँस भक्षण और मदिरा पान बन्द हो गया यह भी जैन-धर्म का ही प्रताप है-पूर्वकाल मे जैनधर्म के कई धर्म-धुरन्धर पण्डित हो गये हैं। इसके सिवाय ज्योतिष शास्त्री भास्कराचार्य के ग्रन्थो से भी इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है।
और देखिये सु-प्रसिद्ध श्रीयुत महात्मा शिववृत लालजी वर्मन एम. ए. सम्पादक 'साधु' 'सरस्वती-भण्डार', तत्वदर्शी 'मार्तण्ड' लक्ष्मी भण्डार' सन्त-सन्देश' ने साधु नामक सुदू मासिक पत्र जनवरी सन् १९११ ई० के अंक में प्रकाशित किया है । उसके कुछ वाक्य यहाँ उद्धृत करता हूँ(१) 'गये दोनो जहाँ नजर से गुजर, तेरे हुश्न का कोई नश
न मिला'
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(४०)
(२) यह जैन आचार्यों के गुरु पाक दिल, पाक खयाल मुज
‘स्सम पाकी व पाकी जगी थे। हम इनके नाम पर और
इनके बे नजीर नफ्सकुशी व रिाजत की मिसाल पर . जिस कदर नाज ( अभिमान) करे बजा है।
हिन्दुओ! अपने इन बुजर्गों की इज्जत करना सीखो." तुम इनके गुणों को देखो, उनकी पवित्र सूरतो का दर्शन करोउनके भावो को प्यार की निगाह से देखो 'यह धर्म की कर्म की चमकती, दमकती, झलकती हुई मूर्ति है... • .............. उनका दिल विशाल था व एक बे पाँया कनार समन्दर था। इन्होने मनुष्य क्या सर्व प्राणियो की भलाई के लिए सबका त्याग किया और अपनी जिन्दगी का खून कर दिया। यह अहिंसा की परम ज्योति वाली मूर्तियाँ है । यह दुनियाँ के जबदश्त रिफार्मर है। यह ऊँचे दर्जे के उपदेशक हैं। यह हमारी कौमी तवारिख के कीमती बहुमूल्य रत्न हैं। पार्श्व यह ऐतिहासिक पुरुषहता ते बात तो बधीरीते संभवित लागे छ, केशि
खामि के जे महावीर स्वामिना समय माँ पाव ना सम्प्रदाय नो एक नेता होय तेम देखाय छो। जरमन जेकोनी "सब से पहिले इस भारत वर्ष में ऋषभदेव नाम के महर्पि उत्पन्न हुए" वे दयावान भद्र परिणानी पहले तीर्थकर हुए।
जिन्होने मिथ्यत्व अवस्था को देख कर, सम्यग-दर्शन, सम्यग-ज्ञान और सम्यग्-चरित्र रूपी मोक्ष शास्त्र का उपदेश किया। इसके पश्चात अजीत नाथ से लेकर महावीर तक तेइस तीर्थंकर अपने २ समय में अज्ञानी जीवों का मोह अन्धकार
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(४१)
नाश करते रहे । श्रीतुकाराम शर्मा लट्ट, वी. ए. पी. एच. डी. एम.
आर. ए. एस. एम. ए. एम. बी एम. जी. ओ. एस. प्रोफेसर क्वीन्स कालेल बनारस, जैसे उन्हे आदि काल में खाने, पीने, न्याय, नीति, कानून का ज्ञान मिला वैसे ही अध्यात्म शास्त्र का ज्ञान भी जीवों ने पाया । और वे अध्यात्म शास्त्र में सब है। जैसे 'साँख्य योगादि 'दर्शन और जैनादि दर्शन' तब तो सज्जनो
आप अब अवश्य जान गये होगे कि जैन मत तब से प्रचलित हुश्रा, जब से संसार में सृष्टि का आरम्भ हुआ-(सर्वतंत्र, स्वतन्त्र सल्पम्प्रदाय स्वामि राम मिश्र शास्त्री)
वेदों मे सन्यास का नाम निशान भी नहीं है, उस वक्त में संसार छोड़ कर वन मे जाकर तपस्या करने की रिती वैदिक ऋषि नही जानते थे। वैदिक धर्म सन्यास-आश्रम की प्रवृत्ति ब्राह्मण काल में हुई है । जिसका ममय करीब ३००० वर्प जितना पुराणा है। यही राय श्रीयुत रमेशचन्द्र दत्त अपने 'भारत वर्ष की प्राचीन सभ्यता का इतिहास नामक पुस्तक में लिखते हैं। तब तक के दूसरे ग्रन्यों की रचना हुई जो 'ब्राह्मण' नाम से पुकारे जाते हैं। इन ग्रन्थो में यज्ञो की विधि लिखी है। यह निस्सार और विस्तिर्ण रचना सर्व साधारण के क्षीण शक्ति होने और ब्राह्मणों के स्वमताभिमान का परिचत देती है । संमार छोड़ कर वन में जाने की प्रथा जो पहिले नाम मात्र को भी नहीं थी, चल पडी और 'ब्राह्मणो' के अन्तिम भाग अर्थात् आरण्य मे वन की विधि क्रियाओं का वर्णन है।
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। (४२.) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र, ने, इतिहास-समुच्चयान्तर्गत काश्मीर की राजवंशावली में लिखा है। कि "काश्मीर के राजबंश में ४७ वाँ अशोक राजा हुआ, इसने ६२ वर्ष राज्य किया। श्रीनगर बसाया और जैन मत का प्रचार किया। यह राजा शचीनर का भतीजा था,। मुसलमानों, ने. इसको शुकराज व शकुनी का बेटा लिखा है। इसके समय मे श्रीनगर में ६ लाख मनुष्य थे। इसकी सत्ता समय सन् १२९४. इस्वी पूर्व कहा है। (देखो इतिहास. समुच्चय पृष्ठ १८ )" और भी इतिहास समुच्चय में रामायण का समय वर्णन करते समय पृष्ठ ६ पर अयोध्याकाण्ड मे हरिश्चन्द्र जी लिखते हैं। "अयोध्या की गलियो मे जैन फकीर फिग करते थे। (बाबू हश्चिन्द्र अग्रवाल खास वैष्णव सम्प्रदाय के थे।)
फिर डाक्टर फुहररने "एपिग्राफी औफ इण्डिया" के वाल्यूम २ पृष्ठ १०६-२०७ पर लिखा है। "जैनियों के बाइसवे जीर्थकर नेमीनाथ एक एतिहासिक पुरुष हैं।"
भगवद्गीता के परिशिष्ट श्रीयुत 'बखे' स्वीकार करते हैं कि नेमनाथ श्रीकृष्ण के भाई थे । जब कि २२ वें तीर्थंकर श्रीकृष्ण के समकालीन थे तो शेष २१ तीर्थकर श्रीकृष्ण से कितने पहले होने चाहिये।
मि. आव जे० एडवाई मिशनरी, निसन्देह जैन धर्म ही पृथ्वी पर एक सच्चा धर्म है। और यही मनुष्य का
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आदि धम है और जैनियों में आदिश्वर को बहुत प्राचीन और प्रसिद्ध पुरुष जैनियो के २४ तीर्थकरो में सबसे पहले हुए हैं। ऐसा कहा है।
भारत में पहले ४०००००००. जैनी थे। उस मत में से निकल कर बहुत लोग दूसरे धर्मों में चले गये जिमसे संख्या कम हो गई।
वावू कृष्ण नाथ बनर्जी "जैनी मा मे लिखते हैं। भगवान महावीर के पश्चात विक्रम १३ वी शताब्दियो तक जैनधर्म अच्छी उन्नति पर था। मौर्यवंश, कुल चुरिवंश, बत्रमी वंश, कदम्ब चश, राष्ट्रकूट वंश, परमार वंश, चौल्पूक्य वंश के राजा
ओ ने धर्म की बहुत उन्नति की जिसके शिला लेख और ताम्र पत्र आज इतिहास मे उच्च स्थान प्राप्त कर चुके है। . श्रीयुत महामहोपाध्याय सत्य सम्प्रदाचार्य सर्वान्तर पं० खामी राम मिश्र शास्त्री भूत प्रोफेसर संस्कृत कॉलेज बनारस अपने व्याख्यान मे, जो पोप शुक्ला १ विक्रम संवत् १९६१ मे काशी मे हुआ कहते हैं(१) वैदिक मत और जैन मत सृष्टि के प्रारम्भ से बराबर
अविछिन्नं चले आये हैं। और इन दोनो मतों के सिद्धान्त विशेष सम्बन्ध रखते हैं। जैसा कि पहले कह चुका हूँ। अर्थात् सत्यकार्य वाद, सत कारण वाद, परलोकास्तिव,
आत्मा का निरविकारत्व, मोक्ष का होना और उसका नित्यत्व, जन्मान्तर के पुण्य पाप से जन्मान्तर मे फल
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(४४)
भोग, व्रतोवासादि व्यवस्था, प्रायश्चित्त व्यवस्था, महाजन पूजन, शब्द प्रभारव्य इत्यादि समान है ।
( २ ) जिन जैनो ने सब कुछ माना है उनसे घणा करने वाले कुछ जानते ही नहीं और मिथ्या द्वेष मात्र करते हैं।
(३) जैन और बोद्ध में जमीन आसमान का अन्तर है दोनों को एक जानकर उससे द्वेष करना अज्ञानियों का कार्य है ।
(४) सबसे अधिक अज्ञानी वे हैं जो जैन सम्प्रदाय के सिद्ध लोगों में विघ्न डालकर पाप के भागी होते हैं ।
"
(५) सज्जनों ! ज्ञान, वैराग्य, शान्ति, क्षांति, अदम्भ, अनिर्ष्या, अक्रोध, श्रमात्सर्य, अलोलुप्ता, शम, दम, अहिंसा, समदृष्टिता इत्यादि गुणों में से प्रत्येक गुण ऐसा है कि जिस में वह पाया जावे उसकी बुद्धिमान लोग पूजा करने लगते हैं तब तो जहाँ ये ( जैनो में ) पूर्वोक्त सत्र गुण निरतिशय सीम होकर बिराजमान है उनकी पूजा न करना क्या इन्सानियत का कार्य्य है ।
(६) पूरा विश्वास है कि अब आप जान गये होंगे कि वैदिक सिद्धान्तियों के साथ जैनों का विरोध का मूल केवल अझो की अज्ञानता है
1
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(६) मैं आपसे कहाँ तक कहूँ बड़े २ नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जैन मत खण्डन किया है जिसे सुन देख कर हँसी आती है ।
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() मैं आपके सन्मुख आगे चलकर स्यादवाद का रहस्य कहूँगा
तब आप अवश्य जान जायेंगे कि वह अभेद किला है, उसके अन्दर वादि, प्रतिवादियों के माया मय गोले प्रवेश नहीं कर सकते परन्तु साथ ही खेद के साथ कहना पड़ता है कि अब जैन मत का बुढ़ापा आगया है मब उसमें इने
गिने ग्रहस्थ विद्वान रह गये हैं। (e) मन्जनों ! एक दिन वह था कि जैन सम्प्रदाय के प्राचार्यो
को हुँकार से दसों दिशाएं गून्ज उठती थी। (१०) सजनों ! जैसे काल चक्र ने जैन मत के महत्व को
ढोंक दिया है वैसे ही उसके महत्व को जानने वाले
लोग भी अब नहीं है। (११) रजबसा चेसूर की वैरी के बखान:- यह किसी भाषा
कवि ने कहा है । सननो ! आप जानते हैं कि मैं उस वैष्णव सम्प्रदाय का आचार्य हूँ। और साथ ही उसकी तरफ कड़ी नजर से देखने वालों का दीक्षक मी हूँ। तो भी भरी मजलिस में मुझे यह कहना सत्य के कारण आवश्यक हुआ है कि जैनों का ग्रन्थ समुदाय सारस्वत महा सागर है उसकी ग्रन्थ संख्या उतनी 'अधिक है कि उनका सूची-पत्र भी एक निवन्ध हो जा
यगा । उस पुस्तक समुदाय का लेख- और लेख्य कैमा गम्भीर है, युक्ति पूर्ण, भावपूर्ण, विषद और अगाध है इसके विषय में इतना ही कह देना उचित है कि जिन्होंने
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(४)
इस सारस्वत समुद्र में अपने मतिमन्थान को दाल करें
चिर आन्दोलन किया है वे ही जानते हैं। (१२) तब तो सज्जनों ! आप अवश्य जान गये होंगे कि जैन
मन तत्र स प्रचलित हुधा जद से संसार सृष्टि का आ
रम्भ हुआ। (१३) मुझे तो इसमे किसी प्रकार का भी उन नहीं है कि जैन
दर्शन, वैदान्तादि दशों से पूर्व का है भादि।
इत्यादि २ ऐसे बहुत से प्रमाण हैं परन्तु प्रन्थ विस्तार भय से अधिक न लिख मै अपनी लेखनी को विश्राम देता हूँ।
इन प्रमाणों से श्राप महानुभावों को जैन धर्म के महत्व तथा प्राचीनता का.बोध होगया होगा अब अागे के लिये इस विश्वोपकारी, विशाल, कल्याणकारी धर्म के पवित्र कुलाकार प्रवृत्ति मार्ग के चलाने वाले ग्रहस्थ गुरु और कल्याणकारी मोक्ष मार्ग के गाइड धर्म गुरु निग्रन्थों को उत्पत्ति का इतिहास सुनाना अत्यावश्यक समझ वर्णन करता हूँ।
दूसरा अध्याय [ जिसमें हर दो गुरुओं की उत्पत्ति का वर्णन- कथानुयोग से]
आप महाशय जानते हैं कि जैन ग्रन्थों में ज्ञान का अक्षय भएडार है। उसके ४ भाग किये गये हैं। (१) द्रव्यानुयोग (२) कथानुयोग (३) गणितानुयोग (४) चरणकरणानुयोग।
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(४७)
१. द्रव्यनुयोग उसे कहते हैं जिमको अन्य भाषा में फिलास, फी या दर्शन शास्त्र कहते हैं ।
1
२. कथानुयोगः - इसमें महा पुरुषों के जीवन चरित्र हैं । ३. गणितानुयोगः -- इसमें गणित ज्योतिष का विषय है ।
४. चरणकरणानुयोगः -- इसमें चरण सत्तरी व करण सत्तरी
का वर्णन है ।
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इन चारों पर बहुत से, सूत्रों व ग्रन्थों की रचना हुई है, उनमें से बहुत तो नष्ट होगए और बहुत से मौजूद हैं। संसार परिवर्तन शील है । सदा काल एकसा नहीं रहता । पहले संसार भोग भूमिका क्रीड़ा क्षेत्र बना हुआ था । विश्व को, अनुपम शान्ति उस काल में अनुभव हो रही थी, याने न तो किया फाण्ड थे, न लेन देन का व्यापार ही था । पाप पुण्य भी नहीं समझते थे । सिर्फ दस जाति के कल्प वृक्ष मनोवांछित फलों का दान देते थे । उससे उनका निर्वाह होता था । वे वृक्षों के नीचे ही निवास करते थे । यह समय युगलकों का था । उसकी सूक्ष्म झांकि कराता हूँ ।
इस जगत को जैनी द्रव्यार्थिक नय के मत्तानुसार- शाश्वत अर्थात् हमेशा प्रवाह में ऐसा मानते हैं । और दो प्रकार के कालों में समय का भाग करके छ आरो के नाम से विभक्त किया । उपर कहे हुए दो कालों को इस नाम से पुकारते थे । अवसर्पिणी काल, और दूसरे को उत्सर्पिणी काल । इन कालों का मान दम कोटा कोटि सागरो एस का शानका ने माना है। यहां अवसर्पिणी काल के आरो का नाम लिखता हूँ
"
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पहला भारा जिसको सुखमासुखम नाम से पुकारते थे। इसमे मनुष्य भद्रक, सरल स्वभावी, अल्परागी और सुन्दर स्वरूप वाले, निगेग्य शरीर वाले और अपना खाना पानादि सर्व कार्य दस जाति के कल्प वृक्षों से करते थे। उनके सन्नति का यह हाल था कि एक लड़का और लड़की युगलक रूप में जन्म लेते थे और वह युवावस्था प्राप्त होने, पर गृहस्थ धर्म कर लेते थे । इसी तरह- दूसरा पारा जिसको सुखमादुःस्वम के नाम से संबोधन करते थे । तीसरे पारे के अन्तम एक युगलिया वश में ७ कुलकर उत्पन्न हुए ( भन्य मताव लम्बी इसको मनु के नाम से पुकारते है ) कुल करों का यह काम होता था कि वह चित मर्यादा बांधे, और लौकिक व्यवहार मे मनुस्) को चलाते याने ( समय के राजा) इसी तरह दूमरे युगलक वंश मे भी ७ कुलकर हुए । सव मिला कर १४ कुलकर हुए । १५ वां कुलकर श्रा ऋषभदेव माना है । इन पिछले ७ कुलकरो के यह नाम थे। (१),विमलवाहन (२) चक्षुमान (३) यशस्वान (४) अमिचन्द्र (५) प्रश्रेणी (६) मरुदेव और 1७) वानाभिराय । इनकी यह महीपियो के यह नाम है (१) चन्द्रयशा (२) चन्द्रकान्ता (३) सुरुपा (४) प्रतिरुपा (२) चक्षुकान्ता (६) श्रीकान्ता (७) मरुदेवी इनका उत्पति स्थान गङ्गा व सिन्ध के मध्य खण्ड से माना गया है । अब तीसरा आरा व्यतीत होने आया, इस जम्बु द्वीपके भरत खण्ड में नामिराय कुलकर के पट्ट महिषि माता मेरुदेवी के गर्भ में “ बारहवे भव मे जो ब्रिजनाभ नामा चक्रवर्ति का जीव था. वह आषाढ़ कृष्णा ४ के दिन सार्थ
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सिद्धि विमान से चव्य होकर स्थिति हुआ । और चैत्र कृष्णा ८ के दिवस उत्तराषाढ़ा नक्षत्र मे श्री आदि नाथ भगवान का प्रादुर्भाव इम जगत में हुआ, जो श्री ऋषभदेव के नाम से सम्बोधन होत हैं । यहाँ मै युगलकों की कथा का समर्थन अन्य मतों से भी करता है जैसाकि अहल इस्लाम के धर्म ग्रन्थो में भी दरज है कि सबसे पहले इम जगत में आदम नामी मनुष्य और हव्वा नामक खी पैदा हुए थे । उनके दिन प्रति एक जोड़ा, लड़का व लड़की पेंढा होता था । और वो ही स्त्री पुरुष नाता कर लेते थे । आदम और हव्वा का होना इसाई धमात्र लम्बी भी मानते हैं" ।
श्री ऋषभदेव का जन्मोत्सव करने को धर्म देव लोक से इन्द्र समेत ६४ इन्द्रव ५६ दिग कुमारियां मेरु पर्वत पर आए । 'इनमें रत्न प्रभा पृथ्वी की मोटी तह में निवास करने वाले चमर चन्चानामा नगरी का चमरेन्द्र और बाजी चन्चा नाम नगरी का इन्द्र बलि भी समेत त्रेयस्त्रिश क ( कर्म काडि) देवताओं के आए और जन्मोत्सव मनाया । तदनन्तर इन्द्रादि देवना तो अपने २ स्थान पर चले गए और कुछ त्रेयविशंक देवनाओ को बनिता नामक नगरी में ही रखे गए । इसका यह कारण था कि भगवान का विवाह व राज्याभिषेकादि ऋत्य कगने थे व जगत में यह संस्कारादि चलाने थे । उन देव' ताओं की सन्तति से इस जाति की उत्पति है । उम समय में इस जाति के गुरु सन्तानीया नाम से सम्बोधन करने लगे ! इस इतिहास को पढ़ने से आधुनिक नवा शिक्षित पाश्चात्य विद्या
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(५०)
के पाठितों को यह आश्चर्य युक्त बात मालुम होकर शंका पैदा करेंगे कि देवताओं का पृथ्वी पर आना व उनसे मनुज सन्तति होना असम्भव हैं क्योंकि देवता निवार्य होते हैं । इस शंका के निवाथे जैन मत के शाबों का प्रमाणा देता हूँ। कथानुयोग के आधार पर कलि काल सवज्ञ श्री मद् हेमचन्द्रा चार्य जी महाराज ने वि. स. ११२० मे त्रिष्टी शिला का पुरुषचरित्र रचा । उसके तृतीय सर्ग का दूसरा वर्ष जहाँ उर्ध्वलोक का वर्णन है, 'भुवनपति, व्यन्तर ज्योतिषी और ईशानदेव लोक सुधि के देवता अपने भुवन में रहे वा बलि देवियों के साथ विषय सम्बन्धी अङ्ग से वाहे, वे संकलिष्ट कर्म वाला
और तीन अनुराग वाला होने से मनुष्यों की तरह काम भोग मे लीन होवे है, और देवागना के सर्व अङ्ग सम्बन्धी प्रीति को मेलवे है, इसके बाद दो देवलोक के देवता स्पर्ष मात्र से, दो देवलोक के देवतारूप देखने मे और दो देवलोक के देवता शब्द अवणथी और अनन्त बिगेरे चार देवं लोक के देवता मात्र बड़े चिन्तववा से विषय ने सेवन करे। इस प्रकार विषय रस में प्रविचार वाला देवताओं से अनन्त सुख वाला देवता ग्रेवेवकादिक मे है जो विषय सम्बन्धी प्रविचार रहित है" मैंने भी अपनो जाति उत्पत्ति उन्हीं त्राविशंक देवता जो भुवनपति, व्यन्तगदि भुवन में निवास करने वालो से ही होना लिखा है, फिर इसम शका जैसी कौनसी, बात है। इसके सिवाय बाइस, समुदाय के पुज्य जवाहिरलालजी ने व्याख्यान दिया, उसका सारं लेकर साहित्य प्रेस, अजमेर मे मुद्रित हुभा (व्याख्यान
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सार संग्रह पुस्तकमाला) में सत्य मूर्ति श्री हरिश्चन्द्र-तारा के चरित्र मे हरिश्चन्द्र को सूर्यवशीय माना है। सूर्य देवता होना विश्व विदित है। उनका जो वंश चला तो देवताओ के सन्तान होना भी मानना पड़ेगा।
फिर लिखा है कि देवताओ के स्त्रीये अप्सराएँ होती हैं। इसके सिवाय आप महाशयो को पूर्ण प्रकार से विदित है कि चौबीस ही तीथकगे का जीव देव-लोक से चव्य होकर मनुज सन्तति मे जन्म लिया है और यहाँ पर उनसे सन्तति होना सर्वोपरि मान्य है।
फिर देखियेगा कि रन-चूद. विद्याधरी का राजा, विद्याधर वशी देवता थे। उनके माता पिता और पुत्र कनक-चूड होने का शास्त्रो में वर्णन है। विद्याधर वंश को देवयोनी मे होने का प्रमाण मे अमर-कोप के पहले काण्ड का ११ वॉश्लोक देता हूँ।
विद्याधराप्मरो यक्ष रक्षो गन्धर्व किन्नराः । पिशाचो गुह्य को सिद्धो भूतौमिदेवयोनयः ॥
इसके सिवाय देवता वैक्रेय रूप भी धारण करते हैं, जैसा कि इन्द्र ने भगवान के जन्म स्नात्र के समय परं ५ रूप धारण किये व इन रत्नं प्रभव-सूरिजी ने भी औश्या व कोस्ट नगर के मन्दिर में प्रतिष्ठा समय दो रूप धारण किए देखो
औश्या चरित्र व जन्म कल्याण । दूमरा वैदिक मतानुसार प्रमाण, रामायण मे, मनुराजा ओर शतरूपा रानी ने तप किया उससे प्रसन्न होकर साक्षात् परब्रह्म परमात्मा अपने स्वरूप का
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वरदान दिया वैसे ही राजा दशरथ को वरदान दिया उससे श्री रामचन्द्र का अवतार हुआ। इसी तरह श्री मद्भागवत के दशवें । स्कन्ध में श्रीऋपभ देवजी की जन्म कथा में वर्णन किया है कि राजा नाभिराय ने पुत्रार्थ कामना से यज्ञ कराया उससे प्रसन्न होकर साक्षात परब्रह्म अपने समान पुत्र होने का बरदान दिया और ऋषभावतार हुआ । जिनसे भरतादि सौ पुत्रों की उत्पत्ति हुई। फिर देखिये रामयण मे किस्किन्धाकाण्ड मे ब्रह्मा से रच्छ राज नामा वानर का होना व सूर्यके वीर्यम सुग्रीव व इन्द्र के वीर्य से बाली की उत्पत्ति मानी है। और हनूमानजी को वायु पुत्र माना है। इसके उपरान्त वाल्मिकी कृत रामायण में बालकाण्ड मर्ग १७ चाँ श्लोक वाँ "ऋपश्च-महात्मन-सिद्धविद्याधरो रगाइनका वानर योनी में जन्म लेना लिखा है । इसके उपरान्त शिव विष्णु के बीच जनकपुर मे घनुप भङ्ग के समय युद्ध हुआ । उसके लिये "हुँकारेण महास्तन्भिस्तोय त्रिलोचन” फिर भी इतिहासो से यह प्रमाणित होता है कि देवता कइ एक राजाओं की सहायता करने को व इसी तरह इन्द्रादिको की सहायता करने के लिए यहाँ के राजाओं का जाना माना है। उसका एक उदाहरण वाल्मीकि रामायण का देता हूँ।
___ "रावण वरदान से मानी होकर चन्द्रलोक को बिजय करने गया" व दशरथ का इन्द्र की मदद के लिए जाना भी लिखा है। गीता के चौथे व दशवें अध्याय मे श्रीकृष्ण भगवान् ने अर्जन के प्रति आज्ञा फरमाई
इमम् विवस्वते योगं प्रोक्तवाहनहमध्ययम् । । विवखन्मनवे प्राह मनु रिक्षवाकवेऽब्रवीत् ॥१॥
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प्रहण नहीं कर सकते। तो भरत ने विचार किया कि राजभोग नहीं करते है तथापि प्राण के धारण के लिये अहार तो करेंगे? ऐसा विचार कर ५०० गाडी भरवा कर अहार मँगवाया तो उसके लिये भी भगवान ने निषेध किया कि मुनियों के लिये श्राधा कर्मी प्रहार काम का नहीं तद मरत दुःखी हुभा और इन्द्र से पूछा कि अब मे अहार की क्या व्यवस्था कर इन्द्र ने कहा “यह सब अहार सब गुणों में बढ़ चढ़े हुए पुरुषों को दे डालो भरत ने विचार किया कि साधुओं के सिवाय विशेष गुण वाले पुरुष और कौन होगा ? अच्छा अब मुझे मालुम हुआ । देश विरति के समान श्रावक विशेषगुणोत्तर है इसलिये सब उनके अर्पण कर देना चाहिये । भरत राजधानी में आकर सर्व श्रावकों को बुलाकर कहा आप लोग सब सदा भोजन के लिये मेरे घर भाया करो और कृषि आदि कार्य में न लगकर स्वाध्याय में निरत रहते हुए निरन्तर अपूर्व ज्ञान को ग्रहण करने में तत्पर रहो । भोजन करने के बाद मेरे पास भाकर प्रतिदिन यह कहाँ करो 'जितो भगवान वद्धत भी स्तसमान माइन माइन' अर्थात् तुम जीत गये हो भय वृद्धि को प्राप्त होता है इसलिये आत्मागुण को न भारो न माने जब भोजन करने वालों की जीयादा वृद्धि हुई होती देख पाकशाला के अध्यक्ष ने निवेदन किया कि इतने भोजन करने वाले प्रावे है कि समझ में नहीं आता कि वे श्रावक ही है या नहीं उसपर. मरत ने श्रानादि कि तुम भी तो श्रावक ही हो इसलिये परिक्षा कर भोजन दिया कगे तब से भोजन करने वालो से पुछता कि तुम कौन हो वे कहते कि श्रावक, तो पुछता कि श्रावकों के
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(६२) किसने ब्रत है तो वे कहते के १२ व्रत, पांच अणुव्रत और ७ शिक्षाबत, तब वह सन्तुष्ट होता और बाद परीक्षा श्रावकों को भरतराज को दिखलाता तब भरत उनकी शुद्धि के लिये उन में कांकणी रत्न से उतरा संग की भाँति तीन रेखायें, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, के चीन्ह स्वरूप करने लगे यहाँ से जीनों पवित की उत्पति हुई और छठे महीने नये २ भावकों की परीक्षा की माकर घीन्हा किये जाते । मन्त्र के पाठ के अन्तमें महा नशक है उसके उच्चारण वार २ करने से संसार में महाना नाम से प्रसिद्ध हो गये वे अपने बालकों को साधुओं के देने लगे। उनमे से कि तनहिस्वेच्छा पूर्वक विरक्त होकर व्रत ग्रहण करने लगे और कितने ही परिषह सहन करने में असमर्थ होकर श्रावक रह गये । कांकणिरत्न से अंकित होने के कारण उन को भोजन मिलने लगा । राजा इस प्रकार भोजन देते थे तो लोग मी जीमाने लगे उनके स्वाध्याय के लिये चक्रवर्ति ने महतो की स्तुति और मुनियों तथा श्रावकों की समाचारी से पवित्र ४ वेद रचे वो पढ़ने लगे वे महाना ब्राह्मण कह लाने लगे कांकणि रला की रेखा के बदले जिनोपवित धारण करने लगे भरत राजा के पश्चात सूर्ययशा गद्दी बैठा उसने सुवर्ण मई जिनो पवित की चाल चलाई और महायशा आदि राजा के समय चांदी की जिनोपवित बादमें सुत्रकी निनोपवित धारण करने लगे । “सुर्ययशा के बाद महायशा इसके बाद अतिवल व बलभद्र बाद बलवीयं उसके बाद कीर्ति वीर्य बाद नन वीर्य
और उसके बाद दण्डवीर्य ऐसे पुरुषों तक ऐसा ही आचार ' जारी रहा इन्होंने भी इस भरतार्द्ध राज्य भोगा और इन्द्र के
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(६३)
रचे मुकुट धारण किया । इम इतिहास के पढ़ने पर कितनेक यह शंका करेंगे कि हा वेशक महाणो ( गृहस्थ गुरुपों) की उत्पत्ति शाबो से पाई जाती है लेकिन भगवान सुविधिनाथक चन्द्र प्रभु के कितनेक काल पश्चात् जैन धर्म के चातुर्सङ्ग का विच्छेद होगया था तो वे गृहस्थ गुरु भी विच्छेद चले गये फिर उत्पति कब से और क्यो हुई " लेकिन यह शंका निर्मूल है क्या माने कि अव्वल तो उस समय चातुसंग का विच्छेद जाना पाया नहीं जाता हॉ अलबते अकाल से साधुसाध्वीयों का विच्छेद जाना अवश्य वर्णन है यह वाक्य तो ऐमा प्रतीत होता है कि जैसे पुरुष रामजी के इतिहास में प्रसिद्ध है कि इन्होंने २१ बार पृथ्वी को नीक्षत्री कर दी थी यह एक तरह का पाण्डितों का गूढ रहस्य है इसके प्रमाण में यह ही काफि होगा कि रामायन में धनुष्य यज्ञमें धनुष उठा ने के लिये दश हजार राजाओं का एक ही बार बल करने के बारे में चौपाई दरज है "भूप सहस दस एक ही बाग, लगे उठावन टरे न टारा" इसके साथ ही श्रीरामचन्द्र से संवाद होकर पुरुष गम जी पराजय होकर आशीर्वाद देकर वनमें मिधारे तो फिर पृथ्वी निक्षत्री होती तो यह राजा व रामचन्द्र कौन थे । ऐसा ही इस भयंकर समय में साधु साध्वीयों का विच्छेद हूँ वा उस समय में धर्म की रक्षा इन ही गृहस्थ गुरुओं ने की इसका प्रमाण और न देकर सिर्फ कल्पसूत्र में संजतीयों की पूजा का पाठ देखो उससे साफ प्रमाणित होगा | असंजतीयों ने (असंजमी नोन्होंने संनम नही लिया) उन गृहस्थ गुरुओं ने रक्षा की इसके सिशय दूसरा प्रमाणा गृहस्थ गुरु पूजनीय
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(.६४१) होने की साक्षी में कल्प सूत्र लाफ साफ साक्षी देता है कि भगवान महावीर माता त्रीपला देवी के गर्भ में आये और माता को स्वप्न हुए उन स्वप्नों को सुनकर राजा सिद्धार्थ ने उन - स्वप्नों के फल पुछने के लिये पाण्डितो को बुलवाने की आज्ञा दी तो प्रचारक गण क्षत्री कुण्ड के मध्य भाग में होकर जहाँ स्वप्न पाठक जोतिषियों के घर थे वहाँ गये वहाँ से जोतिषी लोग पाए तो राजा ने नमस्कार सतकार सन्मान पूजन कर यथोषित आसन पर बैठाये याने पूर्व में भद्रासन लगे थे उन पर बैठाये यहाँ यह शंका कोई करे कि वे जोतिषि अन्य मताव लम्बि होगे तो इसके प्रमाण में यह दलिल काफ़ी होगा के उन जोतिषियों ने राजा को आशीर्वाद श्री पार्श्वनाथ की स्तुति पढ ' कर दिया फिर गना के प्रश्न के उत्तर में जोतिपियों ने स्वप्न फल.कहा | अब फिर दूसरा प्रमाण इसी कल्प सूत्र के पांचवें व्याख्यान में दरज है वो देता हूँ जो श्रीभगवान महावीर के, जन्म के तीसरे दिवस सूर्यचन्द्र दर्शन कगने की विधि होती है " गृहस्थ गुरु ( संस्कार कराने वाला विद्वान गृहन्धा गुरु जैन ब्राह्मण अहंन देव की प्रतिमा के सामने स्फटिकर-नवाचा. दो की चन्द्रमा की मूर्ति स्थापन कराके प्रतीष्ठा पूजन करके माता और बालक को स्नान कराके अच्छे वन पहिराकर चन्द्रोदय के समय रात्रि में चन्द्र मन्मुख माता पुत्र को बैठा कर ऐसा मन्त्र पढ़े " ॐचन्द्रोसि, निशाकरो, । नक्षत्र पति रसि, ओषधि गोंसि भस्य कुलस्प ऋधि वृद्धि कुरु २ ;ऐसा बोलकर गृहस्थ गुरु माता व पुत्र को चन्द्र के दर्शन करावे और नमस्कार करावे फिर माता उस बालक को गुरु के पर्गा लगाके
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(६५)
पीछे गुरु प्राशीर्वाद देवे । सर्वोषधि मित्र मरि चिराजिः सर्वापदासहरणे प्रवीणः । करोति वृद्धि पक्रनेपिवंशे युष्माकमिदं: मतं प्रसन्नः ॥१|| चन्द्र दर्शन के बाद सूर्य दर्शन करते है उसकी विधि । दूमरे दिन प्रभात में सूर्योदय के समय सुवर्ण या तांबे की सूर्य मूर्ति बनवाकर पूर्व की तरह स्थापन कर ग्रहस्थ गुरु इस तरह मन्त्र पढ़े । ॐ अर्ह सूर्योंसि, दिन कगेसि, तो पहरो. सि, सहस्त्रकिरणोसि, जगच नरसि, प्रसिद्ध अस्य कुलस्य तुष्टिं पुष्टि प्रमोद कुरु २ एसा मन्त्र उच्चारण कर भाता व पुत्र को सूर्य दर्शन करावे और माता बालक को गुरु के पगा लगावे गुरु आशीर्वाद दे 'सवे सुग सुर वंद्यः कारयिता सर्व कार्याणाम् म्यांखि जगच तुमंगलदस्त सपुत्राय ॥१॥ इस इतिहास से आप की गृहस्थ गुरुओं का पूजनीय यदव उस समय में गृहस्थ गुरु
ओ का होना प्रमाणित होगा । इसके सिवाय कल्प सूत्र टिका बाल व बोध नामी राजेन्द्र सूरिक्रत के पेज २०० में इस जाति की उत्पत्ति का समर्थन इस प्रकार किया है । इवे एक दिवसे भगवान अष्टापद पर्वत उपर समोसरा तेवारे भरत महागजा ये विचार न्यु २ जे बिर्जु तो म्हारा थी कांह थतोन 'थो पण
आसर्वे साधुओं ने "e६ भाइयो ने दीक्षा ली वे) अहार बोहरा उतो लाभ पामुतेवारे एवो जाणी ५०० गाडा सुखडी नामरी लाग्यो अने भगवान ने कह चाला गोस्वामीजी आज ना दवसे पासर्वे साधुउने अहार कराववानु हुकम म्हारे घेर थइ जाय तो गणो जरुढो थाये तेबारे भगवान ने कहों आधा कर्मिक राज्य पिड साधुअोंने लेवु कल्पे नहीं बलि सन्मुख अहार लइ आव्युते माठे साधुओं लीधो नहीं एवु: जोइ भरत राजा
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ए जाणो जेहुँ नो सर्व प्रकारे भक्ति रहित थयोए वो सोचकर वालाग्योते जोड इन्द्र महाराज ने भरत को कहा कि तुम्हारे से अधिक गुणवाले होय तेने यह अहार जमाडो पछी भरतेपण ते प्रहार, श्रावको ने नमाडो इटाथी ब्रह्म भोजन चालु थयो । हवे भरत गजा सदा सर्वदा श्रावको ने जमाडे छेकेटलाकका लपछी जेवारे धणा जमनाग्यवाते वारे परीक्षा करीने सर्व ने सेलाणीना कांगणी रत्न नीज नोइ अपीत था देवगुरु अने धर्म रूपी त्रण तत्व सम्बन्धी त्रण रेखा प्रत्येक श्रावक ने करी ती हाथी जनोइ आपवानी चाल पड़ी इहा ऋषभदेव की स्तुनि का ४ वेद थया भरत के पाटे आदि त्ययशा ने सोने की जनऊ करी ने एमज जमाडो एमज आठ पाट लगे श्रावक जमाडा इस इतिहाससे भी पूर्व लिखा इतिहास का समर्थन होता है। आगे १६ सस्कारों के कराने बाबत'आपको मालूम होगा कि सस्कार कराना कितना जरूरी है जिसको तीर्थ करोतक को धारण करना पड़ा जैसा कि समस्थ परम थे के जानकार श्रीभगवान अर्हतमी गर्भ से लेकर राज्यभिषेकादि परयन्त संस्कारों को अपने देहमे धारण करते हुए तथा देश विरति रूप गृहस्थ धर्म में प्रतिभाव वह सम्पकत्वारोपण रूप आचार आचर्ण करते हुए तथा निमेश मात्र शुल्क ध्यान करके प्राप्य केवल ज्ञान के वास्ते दीर्घ काल तक यति मुद्रातपः चरणादि धारण करते हुए तथा केवल ज्ञान होने बाढ पर की उपेक्षा करके रहित चिदानन्द रूप भगवान ममव सरण में विराजकर धर्म देशना, गणधर स्थापना और संसयव्य व च्छेद तथा देवादिकों के किये हुए छत्र चाम रादि अति शययुक्त सिंहासन पर विराज कर सर्व को आचार में
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(६७)
चलने का उपदेश दिया भगवान के निर्वाण बाद इन्द्रादि देवता
ओ ने अन्तेष्टिक्रिया की वगेरा अहन के मत में लोकोत्तर पुरुषों को आचार ही मुख्य प्रमाण है यर्श तक क रामायण मे देखिये दशरथ चन्द्रादिको ने अपने कुलगुरु वशिष्ट इस्लाम धर्म में भी निकाह. खतनादि सस्कार अपने गुरुओं से ही काकै सा सन्मान किया कराना होता है ऐसे ही अग्रज भी शादि आदि संस्कार अपने गुरुओ से कराते है पर बड़े पश्चाताप का मुकाम है कि हमारे जैन भाई आधुनी ममय में देवगुरु आज्ञा उल्लघन कर अपने यहाँ सस्पार कर्म अन्यमतावलम्बियों के हाथ से कराना सिद्ध किया है उसका कुफल उठाते हुए भी सचेतन होते यह कहाँ तक शोमनीय है लेकिन यह गृहस्थ गुरुओ को भूल जाने का कारण है । इसमें कोई महाशय यह भी शंका पैदा करेगा कि भगवान आदि नाथ ने सर्व हक्क महाणों को ही मोंप दिया तो निग्रन्थ साधुत्री को मान्यता का तो कोई हक ही नहीं रहा, नहीं नहीं ऐसा न समझिये आप जरा मोचे कि संसार में दो तरह के धर्म प्रवर्तमान है उसमें पहले भगवान ने प्रवर्ति मार्ग कायमकर उसके यावत कार्य है धन पर इस जाति का हक कारमा किया और जव भगवान ने कल्पानकारी दिक्षा धारण कर मोक्ष मार्ग का रास्ता. बताया उस पर उपदेशक साधु मुनि निग्रन्धों का हक कायम किया याने इन शेनों मार्गों को चलाने का उपदेशक गृहस्थ गुरु व निप्र. न्थ गुरुओं को कायम किये यहा आप सोचो कि संसारी कार्यों से कहीं ऊँचा मोक्ष मार्ग निवृत्ति मार्ग है इसलिये निवृति मार्ग दर्शक निग्रन्थ गुरुजीयादा सन्मान योग्य माने
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(६८)
गये वरना दोनों प्रकार के गुरु श्रादि नाथ के समय से चले
आते है और अपने २ मार्ग में पुज्य है । इस इतिहास को त्रिष्टीशला का पुरुष चरित्र नामी ग्रन्थ जो कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी महाराज ने विक्रम सं. १२२० में गजा कुमार पाल के अनुरोध से रचा है उसको देखिये उसमें इसी माफिक उत्पति इस जाति की होना व पुज्यता व महत्वतों का वर्णन मिलेगा इसके सिवाय श्री मद बर्द्धमान सूरि कृत ओचार दिन कर निग्रन्थ के २४ स्तम्भ उपनयन संस्कार विधि को देखिये उसमें भी जैन ब्राह्मण माहणा की उत्पत्ति का प्रकाशन पड़ेगा भारद्वाज गौत्रिय, चन्द्रगच्छ मेणवाल अवटंकिय, महात्मा महा शय अपने आचार्य धनेश्वर सूरिजी महाराज जो गुप्त संवत ४७४ में वहत्रभीपुर के महाराज धिराज श्री शिलादीत्य जिनका नाम हाल की फहरिस्त में इतिहास वेता ध्रुव भट से सम्बोधन करते है उनके गुरुपद पर आरूढ़ होनेका इतिहास इस तरह देते है । और इनका इस संवत में विद्यमान होने के प्रमाण में एक दोहा भी प्रसिद्ध है । "संवत चार चीमोत्तरे हुआ धनेश्वर सूर । शत्रु जयमहातमरचा शिला दित्य हजुर ॥ " इनका इस संचयत में होने के विषय मे महामहोपाध्याय राय बहादुर पंडित गौरीशंकरजी श्रोमा अपने रचीत इतिहास में इस तरह शंका करते है। "धनेश्वर सूरि ने शत्रुजयमहातम बनाया था जिसमें वह अपने को वह श्रमीक राजा शिला दिस्यका गुरु बतलाता है शिला दित्य४७७ होना मानता है,परन्तु वास्तवमें यह पुस्तक विक्रय, संवत की तेहरवी शताब्दी या उसके पीछे की बनी होना चाहिये बोंकि उसमें राजा कुमारपाल का जीकर है।
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(६६) जो विक्रम सम्वत ११६६ से १२३० तक राज्य किया था । इसलिये धनेश्वर सूरि का कथन विश्वास योग्य नहीं" सो यह विचार उक्त पण्डितजी का भ्रम सूचक है क्योंकि शन्त्रजय महा. ल्य में साफ वर्णन है कि श्रीभगवान महावीर इन्द्र प्रती भविष्य वाणी फरमाइ के “ विक्रमा दीत्य पीछे ४७७ वर्षे धर्म की वृद्धि करने वाला शिला दीत्य राजा थशेत्यार केडे भा जैन शाशन की भन्दर (पाटणनी गादी ) कुमारपाल, वाइड, वस्तुपाल अने शमरा शाह वगेरह प्रभाबिक पुरुष थशे" इसी भविष्य वाणी का इम ग्रन्थ में ठक्त झटारक ने वर्णन दर्ज किया है न के कुमारपाल के राज समय में बनाया देखो शन्त्रुजय महातम पेन ११३ पाश्वनाथ चरित्र । इस बाणी को जैन समाज कदापि मिथ्यान मान सकेगा आज भी भविष्य वाणी जोतषियों पर ननता विश्वाम करती है फिर भगवान के वल्पज्ञ नी की वाणि कैसे मिथ्या हो सके । पण्डितजी महाराज आपने जो राजस्थान इतिहास बडे परिश्रम च सोध, खोज, के साथ बनाया इसके लिए हम आपको अनेक धन्यवाद देते है । लेकिन फिर भी संसार में सर्व प्रकार के लोग बसते है उन सवी की मति समान नही होती जैसे कि विश्वेश्वर नाथजी रेहु ने तुलसी सम्बत ३०१ वेसाख मान की माधुरी में आप पर आक्षेप की या वो दरज है उससे तो श्रीमान परिचित होवे ही गे । भागे मैं छठे शिला दीत्य का संवत ४७४ में होने के प्रमाण आधुनिक इतिहासों से होता है वो देता हूं । यह सं. ४७४ वलभी सं. जो विक्रम सम्वत ७१८ में होने का अनुमान होता है। क्यों कि भाखरी शिला दीत्य राजा का दान पत्र सबसे पिछले ४६
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(७०)
का लिखा हुआ पाया है और विक्रम सम्वत से २४१ वर्ष बाद बल्लभो सम्वत का चलना इतिहास वेताओं ने माना है । डाक्टर जी बुलर ने एक और नये पत्र से मालुम किया कि छठे शिक्षा दीत्य जो हाल की फहरिस्त में ध्रुव भट के नाम से कहलाया जाता है । इसी तरह एम. यू. जैनी जेक्ट ने सन १६३६ इम्वी विक्रम सम्वत १८९३ में यह बयान किया है कि चीनी यात्रि हुएन्सग भी इस राजा को उसी नाम से जाना ताथा जन की उसने ६३६ इ. वि० सं० ६६६ हिज्री १८ के थोडे समय पीछे उक्त राजा से मुलाकात की थी. देखो वीर विनोद नामी वृहत इतिहास मेनाइ आगे मैं शन्त्रुजय महातम का संक्षेप वर्णन करता हूँ इस ग्रन्थ को पहले श्री युगादि भगवान की भाज्ञा से पुण्डरिक नामा गणधर ने जगत कल्याणार्थ देवताओं से सत्कार पाया हुआ सवालक्ष श्लोक में रचा उसके पश्चात श्री महावीर स्वामि के पन्चम गणधर सुधर्मी स्वामि जो माधुनिक निग्रन्थ सम्प्रदाय के अधीनायक थे । उन्होंने संक्षिप्त रुपसे चोइस हजार श्लोक का बनाया इसके पीछे १८ राजाओं का अधिनायक सोराष्ट्र देशके महाराजा ने शन्त्रुनय का उद्धार किया वो शिला दीत्य छठे के आग्रह से (सर्व अंगो सहित योग मार्ग को सम्पूर्ण जानने वाले स्याद वादमें बडे २ बौधो का मद सताने वाले मिशाल भोग छता उसकी इच्छा का तदन त्याग करने वाले शुद्ध चारित्र से निर्मल अङ्गवाला अनेक प्रकार की लब्धियों से युक्त वैराग्य के समुद्र, सर्व विद्याओं में निपूर्ण और राज गच्छ के धारण करने वाले महात्मा श्रीधनेश्वर सूरि, ने प्राचीन ग्रन्थों में से सार भूत लेकर शन्त्रुजय मह म
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(1) यो थारो नहको मारे चेनो ठीकाणा का हकदार वास्ते लीदो मो माग ठीका गणागे मालक यो लडको है, मै मारी राजी खुशी से रखा, इबाबत माहे कोई भाइ गगस्यो दखल करवा पावे नही, इसमज मुनफा दस्तावेज तो लडका का पारीस को करदे,
और मुनासिब से नालर वांटे और बीनको रखना जाहिर करदे यो नहको भटर कजोरे चेजो वे चुमे जिस दिन जात वीरदरी का कोई मटारक जी के नाम कागज लीखे जिसमें वीन लड़के को शिष्य करके नाम देवे चेलो राख्या बाद मुनामीच जाण दीक्षा फा सुमहोग्त विचार के गनपति स्थापन करे, जीतना विवाह का मामान होवे जीतना करे तब दीक्षा का सुमहोरत का दिन आवे जिम दिन वीन का पाग अगर क्षक होवे सो उतार लेवे पीछे उनको गुरु होवे सो गुरु मन्त्र सुगावे जीदन श्री."जीमाहे सुद्ध सालो आवे सो ओडावे जोदन सु पछेडी धारणा करे और लीस गेज से श्रीजी में प्राशीर्वाद दे, वानकी बैठक पर साबीत होजावे, इतनी वीधान करा पेली श्री. "जी में आशीर्वाद देणो गेर मुनामीब है और जीदन दीक्षा मिल जावे जीदिन सुनीखावट माहे प्राचार्य जी कर के नाम लिख्यो जावे जब वो चेलो भटारकजी गेर हाजर हुमा ठिकाणा रो हकदार होवे कदाचत भटारकजी गेर हाजर हुवा बाद चेला को गादी बैठावे जीरी विगत- -
श्रवल तो मेवाड मालवो आमद अणाती नही देसा माहे मटार जीरा दोही ठीकाणा है, खुद उदेपुर मध्ये सो अलग २ गच्छग है एक तो नेणावाल गच्छ, दुमरा कचना गच्छ रा है दोनो ही का कुरव कारण :रा हमरजादभेट तीन ही देसा माहे
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(८०) . हाल चालु है नब जगच्छ रा भटारक गेर हाजीर होवे ली गच्छ में न गीच लागती रो लडकों होवे जीने बैठावे नगीच नहीं मीले तो दरा गच्छ माहे तलास करे सायद गच्छ माह भी योग नहीं बणे तो हमारी जात ८४ गच्छ हे जी माहे सु तलासी करके रखे, कदाचीत बादी जात माहे पीयोग नहीं बणे को ब्राह्मण का बड़का ने नेर कायम भटारक नी होवे जारा हाथ सुवीरी दीक्षा का विधान करे पछे श्रीजी माहे सुदुमालो आवे एक पछेवडी सहेर का समस्त पंचा की तरफ सु श्रावे पछेषड़ी धुमधाम सु गाजीत्र वाजीत्र सु थोबकी बाड़ी ले जावे उठे गुरु मन्त्र सुणावे पठासु पालकी माहे बैठाय पाछा पोसान माहे नाय गादी ऊपर स्थापन करे, जीदिन सुवे मटारक जी कह लाचे, इम मुजीब दो सुरत से हमारे चेला गादी का हकदार होता है फकत्
भटारक वरदमानजी ग्राम चकारड़े पर लोकवास हुधा वारे हाथ सु चेलो नहीं मुडो जी पर वि. सं १९२२ में महाराणाजी श्रीशम्भुसिंगजी के समय में दरियाफत हुई जद या हकीकत मालूम कराई लेखक का पिता क्षेमराजजी वीयाददाश्त सुन कक की मालुम वेवा पर छोटी पोसाल कवल गच्छ की हेवी पर मटारक देव राजेन्द्र सूरिजी जो नेणावाल गच्छी महात्मा मयोचन्द जी का पुत्र थे वे गादी पर कायम हावारे चेला विस्तूरचन्दजी नाम का था वाने इगादी पर मुकरिर कर किशोर राजेन्द्र सूरिजी नाम दिक्षा को राख्यो इरो दाख लोषट दर्शनों का दारोगा भट रामशंकरजी का दफसर में है।
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( ८१ )
( नकल ताम्रपत्र) अकुस । स्वस्ति श्री उदेपुर सुथाने महाराजाधिराज माहाराणा श्री भीमसिंहजी आदेशातु भटारक रामचन्द्र कस्य अप्र । उदयपुर मुक्नपुरा में समस्त महाजन सोनी कछारों रे चॅवरी १ प्रत रुपयो १) एक थाहे दीदा जावेगा आगे परवानो महाराणा श्री बड़ा जगतसिंहजी री सही रो संवत् १६८५ रा जेठ सुद १५. भोमे रा दसवासरो सो फाट गयो जणी परवाणे यो परवानो है सो पाया जावेगा। चपरी एक प्रत १) चलण रो पाया जासी दूवे श्रीमुख । संवत् १८५७ वर्षे काति विद ६ रखे उ।
मटारक किशोररायजी के शिष्य मोहनलालजी सांडेर गच्छ के रक्खे गये उसको दीक्षा वि० सं० १९७१ दूती वैशाख सुद६ को महोरथ था उस मौके पर नीशाण, हाथी, विरादडी मय करनाला के भेजने तावे राज श्री नहक्मेखास से जरिये हुकम आदी ओल राणावत इन्द्रसिंहजी दारोगा महक्मे फौज के नाम लिखा गया ( राणावत इन्द्रसिंहजी ) भटारक किशोररायजी के चेला मोहनलालजी के दीक्षा को महोरथ दूती वैसाख लुद ६ को है सो नीसाण, करनाला, हाथी, विराटडी आगे याके काम पज्यो वे और भेजा गया वे, जी माफिक अब भी कराय दोगा । संवत् १६७१ का दूती वैसाख मुदी = ता० २२-५-१६१५ ई.
द० कामवाला
दीक्षा होने पर यारो नाम प्रतापराजेन्द्रसूरिजी दीयो । दीक्षा होने वाद वैशाख सुदी १२ सं० ७१ को इस व्यक्ति के मकान पर पदरावणी हुई उस मौके पर महक्मे फौज के हाकिम के नाम दरख्वास्त वास्तै भिजाने निसाण मय करनालों व हाथी वीरादडी के दी गई । उस पर महक्मे फौज से जरिए रिपोर्ट मवरखा वैशाख सुदी १२ सं० ७१ राज श्री महक्मेखास मे वास्ते हुकम मुनासिब के भेज दरज किया के सं० १९२२ का साल का पना यहाँ
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१२)
पर दफ्तर नहीं होने से नहीं लगा; उस पर भट्ट रामशङ्करजी दरीगा षट्दर्शन से दरियाफ्त हुआ । उसके जबाव में भट्टजी मोसुफ रिपोर्ट मवरखा दुती वैशाख सुदी १२ सं० १६७१ वि० बवापसी गुजारिश होके तं० १६२२ का वैशाख विद ८ के दिन गुरॉजी क्षेमराजजी के भट्टारकंजी की पथरावणी हुई सो हाथी व निशाण पहुँच्यो है वाजे रहे । उस पर राज श्री महक्मा खास से महक्मा फौज में हुकम हुवो । पहला मुत्राफिक वन्दोवस्त करा देवे । सं० १९७१ का वैशाख सुदी १२ ता० २६ ५-१६१५ ई०
(द० काम करवा वाला का) फिर दुबारा वि० सं० १९७८ का श्रावण विद' ४ को पधरावणी हुई जिस मौके पर महक्मे फौज से जरिए चिट्ठी नं० ६ निशाण वगैरह व ... हाथी ताबे जरिए नं० १० आई ।
- भट्टारक किशोर राजेन्द्रसूरिजी का शरीर अस्वस्थ रहने से उन्होंने महाराणाजी श्री सर फतहसिंहजी के चरणों में निवेदन पत्री .लिख मारफत वहा पुरोहित अमरनाथजी के आसोज विद १२ बुधवार के दिन नजर कराई। "मारी ऊमर ७५ साल की है और हाल में मारे वीमारी है और शरीर जो 'नाशवान है जासु चरणारविन्दा में अरज है कि प्रतापराय ने शुभचिन्तक चेलो राख सं० १९७१ मे दीक्षा दीवी । अव या ठिकाणो व चेलो श्री चरणारविन्दा मे मेलू हूं सो धणी पालन करेगा।"
. पहलॉ ई ठिकाणा का भट्टारक उड्यचन्द्रसूरिजी का परलाक वास रामसेए इलाका मारवाड़ में हुआ । और भट्टारक वर्धमानसूरिजी का परलोकवास ग्राम चिकारडा मे हुआ । इस जिए उनकी अन्त्येष्ठि क्रिया का वर्णन ठिकाना में न मिलवा सुं भट्टारक कशोर राजेन्द्रसूरिजी का परलोकवास वि० सं० १९८५ का श्रासोज शुक्ला ४ हुआ। उस दिन षट्दर्शनों का दारोगा को इत्तिला कराई तो स्वयं भट्टजी रामशङ्करजी पोशाले अाया और कही के, चालचलावा को खर्चों तो ठिकाना
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(
३ )
मुंवेगा सा करज्यो । ना कह कर बाजी में मालूम करवा महलों में गया, और मालूम कीवी । जिस पर हुकम हुओ के डोल. लवाजमो पहले हुओ वे का नुश्राफिक काम करे, सरकारी तरफ मु नहीं किया जावेगा। ई वास्ते नेला प्रतापरायजी सचों को वन्दोवस्त कीयो । डोल वणायो जिस पर रुपहरी ग्राशायरा लगाई और चारों कोनों पर छतरी के चार तुरे और ऊपर एक तुर्रा टन प्रकार पॉच तुरी नाहरी लगाग के अन्दर सफेद . मलमल मंडाइ गई । दोल में गादी मोग खसा गया। जेल पर मोका मौका पर और बापो पर लाल टूल लपेट कोर लोटी गई । भट्टारकजी का शरीर पर चादर पञ्ची , राता पर दुशाला आराया और डोल में पधराया। नोकरवाली गाय ने दी गई । मुंहपत्ति घुटने पर रक्खी । योषा पास में रक्खा । पोशाल में जगभरा का नाम से होकर, सदर कातवाली व बडे बाजार के रास्ते से गंगोत्र व पाक के पास पहुंचे, नामे लवाजमो व ज्योति लालटेन में मार्ग हुई बरावर नार पी, चवर राने गये। साथ मे दो पुलिस के व्यक्ति थे । गोश्व पहुच कर रही जो भट्टारकदेव राजेन्द्रसूरिजो की छतरी के पास
गाई थी उनी प्रवेश कराने के पहले नवा. पूजन की गई, फिर रथी में पवार पारी करने के बाद, अग्नि नस्कार नेणावाल श्रीलालजी जो रतनजी के नशज उनके नजदीक रिश्ता में होने से उनके हाथ से सब हत्य किया गया और प्रतापरायजी पोशाल पर ही रहे।
अन्तिम संस्कार में प्रसिद्ध २ गोमवाल महानुभाव, ब्राह्मण, पडौसी महात्मा बन्धु वगैरह अची तादाद में थे । भट्टारकजी को दाह संस्कार कराने ले गये। पोले के ठिकाने पर वन्दोवस्त करने के लिए भट्टजी रामभकरजी व मामना हिसाव दफ्तर दौलतमिहजी पंचोली व चौकी का सार म्वरूपसिंहजी शक्तावत, पुलिस का नारायणलालजी आमेटा सहित आये,
और जरूरी सामान बाहर निकलवा कर मकानों पर चिट लगाये, डोल खर्च वगैरह में १२६ रुपये का खर्च ठिकाने का हुआ; डोल के साथ मे
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( ८४ )
पुलिस का श्राडमो भेजने के कोई रोक टोक न करने के लिये, भट्टजी के नाम लिखा उस मुशाफिक इन्तजाम होगया।
किशोर राजेन्द्रसूरिजी के पाट भट्टारक प्रताप राजेन्द्रसूरिजी को नियुक्त किये, जिम बारे में भट्टजी रामशङ्करजी पट दर्शना का दारोगा के नाम, राज श्री महक्सा खास का रुका नं. ३३४१३ ता. १७-११-२८ मृगसिर शुक्ला ५. स. १६५---
सिद्धश्री भट्टजी श्री रामशंकरजी जोग राज श्री महक्मा लि. अपरंच रिपोर्ट राज नं० ६७ कार्तिक शुक्ला १२ संवत् हाल लिखी जावे है कि जगदीश के चोक के मुत्तशिल वड़ा पाशाल हैं, वहाँ के भट्टारक किशोररायर्जा, आसोज सुनी ४ संवत् हाल फोत हुया वाके पीछे स्थान पर मुकर्रर होने के सिलसिले में दरियाफ्त से इनके मुंडित .शिष्य प्रतापरायजी जाहेर .
आया, तथा प्रतापरायजी का चालचलन अच्छा होने की १४ शख्म महाजनान वगैरह ने तस्दीक की है, और राज की रिपोर्ट इन्ही प्रतापरायजी जो ३२ वर्ष की उम्र का होकर पूर्व जन्म से महात्मा होता जाहिर
आया है, इसलिए उनकी मंजूरी बावत भट्टारक किशोररायर्जी के बजाय उनका शिष्य प्रतापरायजी को मुकर्रिर किया गया है, सो इनसे नकवलन वगैरह का इकरार लिखवाने की हस्व सरिश्ते कार्यवाही कर रिपोर्ट करे, ताके स्थान पर जो इन्तजाम है वो बरखास्तगी की कार्यवाही की जावे।
५० धर्मनारायणनी
(नकल इकरारनामा) स्टाम्प नं० १३८३४ पोष शुक्ला १०.सं० १९८५
लिखता भट्टारक प्रतापराजेन्द्रसूरि सा० शहर वडी पोशाल अप्रञ्च । इस पोशाल पर मेरे गुरुजी के पीछे श्री जी ने नुझे मुकर्रर फरमाया सो मारा जैन ठिकाना की आगली मर्यादा है याने.नागा ठिकानेदारों की जो
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मर्यादा है उस मुजित्र में भी बराबर चनूंगा, किसी प्रकार से वेजा नलंगा नहीं, ठिकाने को अावाद रवगा, ठिकाने के वास्ते जो जायदाद है उसको खुर्द बुर्द नहा करूंगा और पोशाल की मान मर्यादा वरावर
टुंगा, शिष्य मेरी जाति सिवाय अन्य को नहीं रक्खूगा, और गृहस्थाश्रम के रिश्तेदार यदि मेरे पास श्रावेंगे तो मुसाफिरान के तौर से खपगा, इस इकरार के अलावा चालू नहीं, और किसी तरह से चलना नावित हो जाय तो सरकार से हुक्म होगा तामील करूंगा, यह इकरारनामा मैंने अपनी मुशी सैरियत व अल होशियारी से लिख दिया सो सावित है। नंवत १६८५ का पौष शुका १३ द० भटारक प्रतापराजेन्द्रसूरि मात्र ' पाणेरो अर्जुनलाल की भट्टारकजी प्रतापराजेन्द्रसरिजी के
___ कहने से ८० अर्जुनलाल माय १ रुघनाथसिंह चमेसरा. साख १ गणेशमात सुराणा सान । जोशी नालाल ब. प. की भट्टारकजी के कहने से दी स्वाकृति भट्टारक प्रताप राजेन्द्रसरि गुरु किशोर राजेन्द्रसूरिजी उपरोक्त सही। उक्त पढ कर स्वीकृति दो ह प्रताप राजेन्द्रसूरि ।
पहले ३) रु० माहवार और पक्का पेटिया रोजाना मिलता था उसके बदले महाराणाजी श्री सज्जनसिंहजी के राज समय रियासत के खर्च का बजट कायम हुआ, जिसमें धर्म सभा तालुके 5) रु० माहवार करावक्षाये और भट्टारक प्रताप राजेन्द्रसूरिजी ने वरावर मिलते रहने वास्ते धर्मसभा में राज श्री महक्मे खास से जरिए हुक्म नं० ४५६३६ पौष शुक्ला १३ हिसाय दफ्तर में रुको लिख्यो गयो जिसकी नकल तामीलन धर्मसभा मे भेजी गई।
श्री वढा हजूर महाराणाजी श्री फतहसिंहजी वैकुण्ठ पधारे और हाल श्री जी गादी विराजमान हुवे सो आशीर्वाद देवा वि० सं० १९८६
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का ज्येष्ठ सुदी ६ साढ़े आठ बजे महलों गये । मट्टजी रामशंकरजा को कहलाया के आशीर्वाद देवा तात्रे उपस्थित होने के लिये अर्ज कर जवाब देवावे; जिस पर भट्टजी ने कहलाया के हाल में कुर्सी में बिराजे है सो गादी पर विराजची वेगा जब आशीर्वाद वेगा । फिर दुबारा अर्ज कराई तो आज्ञा मिली के ज्येष्ठ शुक्ला ६ सोमवार के दिन सुबह ६ बजे आवें । सो भट्टजी ने कहलाया कि आज नौ बजे महला श्री जावें और पाडेजी की ओवरी बैठ जावे । आज्ञा मुश्राफिक ८ ॥ बजे रवाना होकर महला गया और पांडेजी की ओवरी आसन बिछा कर बिठाये। सवा नौ बजे पासवानजी का मन्दिर का महन्तजी आया फिर १ । बजे लाडुवास का आयसजी आया। बाद में भट्टजी तीनो को ही श्री जी मे ले गये । स्वरूप- चौपाड़ में श्री जी को विराजवो हो उठे गया । श्री जी की गादी सामने, दो हाथ की दूरा से सजी रो प्रासन, इसके दाहिनी तरफ भट्टारकजी का श्रासन और पास में पासवानजी का मन्दिर का महन्तजी विना आसन बैठा । सिर्फ जाजम पर पाच हाथ की दूरी पर | बाद ५ मिनिट के मौख करी। श्री जी ने जाता यावतां ऊठ ताजीम दी ।
श्राजीविका पर बन्दोवस्त था वो बरखास्त करवा तावे जरिए हुकम न० २०२६४ स० १६८७ भाद्रपद शुक्ला १५ ता० ७-८-१६३० ई० गिरवा, कपासन, चित्तौड व देवस्थान में निखा गया ।
छोटी पोमाल का ढेरासर में प्रतिमाजी थे उनको बडी पोसाल पवराने और लवाजमा के लिए हुक्म नं० ७८४३१ वै० कृ० १४. मं० १६६२ हुआ । प्रतिमा पूजन विधि की है इसलिए हाथी के बजाय मियानो करा दियो जावे, बाकी फराशखाना से जाजमा २, कनात १, छायाबिरादडी, वान १ और कोतल में चालवा तावे घोड़ा १, हाथी,
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६
=७ )
निमाण मय करनाला के आये | भट्टारकनी मूर्तियों के साथ पवारी को वा मन्दिर मे पराने के लिये पवारिया उनके साथ आये । मन्दिर की पूजा करने वाले पुजारी दो के प्रति नाम रु०
१) इकतालीस तनख्वाह मिलती थी, वायिक वे =२) रु० भट्टारकजी हस्ते मिलवा को हुकर नं० ४६७६ पौत्र शुका १२ स० १६६० हुआ ।
,
इसी नेणावा की भारद्वाज गोत्री को निर्ग्रय ठिकाना "आचार्य पद" का भिरणाय इलाका अजमेर मे है जिसका वर्णन -
उदयपुर भट्टारक गम्भृतसूरिजी का दूसरा शिव्य जयवन्तसरिजी भिरणाय जिला अजमेर में "आचार्य पद" को गादी स्थापित कर विराजे । इनके शिष्य लक्ष्मीचन्द्रजी, हँसराजजी, ठाकुरसीजी, मेघराजजी, कल्याणरायजी, गोदामजी. कुशालचन्द्रजी, हेमराजजी, श्रीचन्द्रमूरि, अनोपचन्द्रसूरि गुनाबवन्द्रजी, हरकचन्द्रजी, शिवचन्द्रजी, धनरुपचन्द्रजी, विजयचन्द्रजी हाल विद्यमान है । ( ठिकाने के साथ जीविका व लवाजमा को सनदों की नकलें वहाँ से नही आई जिससे अति नहीं का । )
भट्टारकजी उदयपुर से बाहर पधारे उसकी रीति भट्टारकजी किशोर राजेन्द्रसूरिजी गांव सरदारगढ़ उपाध्यायलानजी ओसवाला के द्वादमा पर पवारे । लवाजमा छड़ी, चामर, गोटा, मेघाडम्बर, मियाना क सहित । इसी तरह गाँव केलवा वाणारस मयाचन्दजी का द्वादसा मं वि० सं० १९७४ में पधारे वहाँ भी उपरोक्त लवाजमा साथ में था ।
भट्टारक प्रताप राजेन्द्रसूरिजी विक्रम सं० १६६४ के माघ शुक्ला १२ को शाम की गाडी से आमेट पहुँच कर मियाने में विराज
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कर रात का समय होने से आमेट बाहर अखाड़े में विराजे और प्रातःकाल ठिकाने आमेट से रावतजी गोविन्दसिहजी की तरफ से घोड़े २ चॉदी के साज के कोतल में रखने के लिये व छड़ी १ चॉदी की । ठिकाने की छड़ी मय छड़ीदार हरलाल व १० जवान पुलिस मियानो, नकारखाना, मय नकारचियों के व बैड के भिजवाये ।
ग्राम आमेट के समस्त महाजन ओसवाल पंच छोटी बड़ी तड़ के व यजमान माद्रेचा, वोहरा और महात्मा जाति के समस्त दर्शनीय अखाड़े पर आये। वहाँ पंच ओसवालों की तरफ से भेंट कर दुशाला श्रोढ़ाया । बाद पंचान को मालिक श्रवण करा फिर मियाने में विराजमान कर छड़ी, चामर, गोटा, चपरास वगैरह कुल लवाजमा ठिकाने के सहित सर्व पंचान के जय-घोष करते हुवे आमेट ग्राम में सरे बाजार होते हुवे पधारे । बाजार में दुकानदार महाजन वोहरा वगैरह खड़े होकर वन्दना करते रहे और सत्यनारायण के पास जलूस सहित का फोटो लिया गया। रास्ते मे जैन मन्दिर जी के दर्शन कर भेंट करते हुवे श्री जैसिंहश्यामजी के मन्दिर दर्शन भेंट कर के पण्डित गुलाबचन्द्रजी कनरसा अवटंकी अग्नि वैश्यायन गौत्र के पोसाल पधारे। वहाँ पंडित रतनलालजी की पोशाल से पं० गुलाबचन्द्रजी की पोशाल तक पगमंडे पर होकर पोशाल के बाहर दरीखाने (जाजम, पछेवडा, गादी मोड़ा लगा हुआ था उस पर विराजे । गुलाबचन्दजी की तरफ से २५) रु० व दुशाला नजर हुआ और चरण-प्रक्षालन व नवांग-पूजा गुलाबचन्दजी ने की और दो २) रु. न्योछावर के किये । लवाजमा वालों को पारितोषिक देकर बिदा किये, फिर पात्या हुआ सो जीमण जीम वहाँ से कोठारी मोड़ीलालजी के बंगले निवास स्थान पर पधारे । शाम को फिर पांत्या हुआ और जीमे । वहाँ फिर
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( Eu )
पगार लब्ध समस्तोभद्रसूरय ऽपरनामारित्री चकवा वर राजहम
चन्द्र योगे । श्री साडेर गच्छे कलिकाल गोतमावतार समस्त भविकजनमनोऽबुंज विवोधने का दिनकर सकल लब्धि निवान युग प्रधान । जितानेक वादीश्वर बुंद प्रणतानक नर नायक मुकुट कौटि धृष्ट पदाविंद । श्री सूर्य इव महाप्रसाद । चतुः षष्ठी सुरेन्द्र संगीमानं साधु वाद । श्री संडेरकीय गण बुधावतंस । भना कुनि सरोवर राजहंस यशोवीर कुलाम्बर नमो मणि सकल चारित्री चक्रवर्ती वक्त चूडामणि भ० श्री प्रभु श्री यशोभद्रसूरय ऽपरनाम ईश्वरसूरि तत्प? श्री चहुमान वंश भृगार लब्ध समस्त निरवद्य विद्या जलाविपार श्री श्री बद देवात्त गुरुपद प्रसाद रय विमल कुल चोधक प्राप्त परम यशोवाद भ. श्री शालिसरित श्री सुमतिसूरित• श्री शांतिसरित श्री ईश्वरसरि एवं० याम्म मनेक गुणानिगण रोहण गिरीणा म्हा सरिया वंशे.पुन श्री शालि सूरित श्री सूमतिसरि तत्पट्टालंकार हार भ० श्रा शातिसरि वराणा स परिकराणा विजय राज्ये अथेह श्री मेटपाट देशे श्री सूर्यवंशी महाराजाणा)विराज श्री शिलादित्य वंशे श्री गुहृदित राउल श्री बापाक श्री खुमाणादि महाराजन्वयेराणां हम्मीर श्री खेतसिंह श्री लखमसिंह, पुत्र श्री मोकल मृगाक वंसोद्योतकार प्रताप मार्तण्डावतार श्रा समुद्र महि मंडला खण्टल अतुल महावल राणा श्री कुम्भाजी पुत्र राणा श्री रायमल्ल विजयमान प्राज्य राज्ये तत्पुत्र महाकुँवर श्री पृथ्वीराजानु शासनात् श्री उवकेश वशेय भण्डारी गोत्रे राउल ओ लाखण पुत्र श्री मं० दूदवंशे मं. म्यूर सुत मं० सार्दुल तत्पुत्राभ्या मं० सीहासमंदाभ्या सद वाधव मं० कर्मसी गरा लाखादि सकुटुम्ब युताभ्या श्री नंदकुल वत्या पुर्या सं १६४ श्री यशोभद्रसूरि मंत्र शक्ति समानिताया त० सायर कारित देव कुली काद्यद्धारत सायर नाम श्री जीनवसत्या श्री आदिश्वरस्य स्थापनाकारिता कृतः श्री शातिसूरिभि इति लघु प्रशस्तिरियलि० आचार्य श्री डेश्वरसूरिणा उत्कीर्ण सूत्रधार सोमाकेन शुभं ॥
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। १०६)
कुलवर बहुलता से इक्ष्वाकुभूमि अर्थात् विनता नगरी की माने मे निवास करता था। यह भूमि काश्मीर देश के परे थी क्योकि विनता नगरो के चारों दिशा में चार पर्वत थे। जिसमें पूर्व दिशा में अष्टापद अर्थात् कैलाशगिरि था । दक्षिण दिशा मे महा शैल्य था। पश्चिम दिशा में सुर शैल्य । उत्तर दिशा मे उदयाचल पर्वत था। पृष्ठ नं० ४६६ में । इसका समर्थन
आधुनिक शोधकर्ताओं के लेख से भी होता है । जैसा कि सरस्वती पत्रिका सन् -१६३७ जनवरी के पृष्ट २१ मे लिखा है- ताम्र युग पाषाण युग में भी उदीच्य प्राव्य दो जाति होना माना । यह नूह का प्रलय का जमाना था। मनुष्यों का विकास भारत से ही हुआ और वहाँ से संसार भर मे फैला । प्रलय काका कलकरन्दा ने तो ईसा के पूर्व ४२०० वर्ष पूर्व माना। लेकिन यह ३४७५ वर्ष पूर्व का मानने है। पाषाण युग मे मनु य नर वानर थे पाषाण युग के पश्चात् मानव जाति में धातु का युग प्रारम्भ हुआ। धातु युग का प्रारम्भ ताम्र युग से हुया । कश्मीर के पश्चिम सीमा चित्रालय में घास से गेहुँ जव पैदा होना जर्मन के अन्वेषक दल ने अनुसन्धान किया। कृपि का जन्म स्था. चित्रान है। वहाँ से दक्षिण पजाव मे आये। जहाँ सप्त नदियाँ बहती है उसका सप्त सिन्धु नाम रक्खा। उनमे सरस्वती व सिन्धु सब मे बड़ी । सिन्धु से भी सरस्वती. वड़ी। सरस्वती उस समय पायावर्त को दो सीमाओं से विभक्त करती थी। इसके पश्चिम ओर का भाग उदीच्य तथा पूर्व ओर का भाग प्राच्य कहलाने लगा। उत्तर भारत के ब्राह्मण अाज .भी प्राच्य और उदीच्य दो भागों में विभक्त है । कान्यकुब्ज, मैथिल आदि प्राच्य, पञ्जाव, सिन्धु, र राष्ट्र काठियावाड और गुजरात के ब्राह्मण उदीच्य इन दो जातियों से सारे ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई उदीच्य प्रदेश सरस्वती के पश्चिम तट देवयोनि वृत्त से मेसोपोटामिया तक फैला और प्राच्य देश इसके पूर्वी तट से बङ्गाल तक फैला । चित्राल कश्मीर ऋग्वेद मे ऋषि
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( १४२ )
पट्टा देख नामा मंडाया और यांने मान्या है सो ठाका भाई सांगा. वत होवो सो याने मानोगा दुबे काका सिर्वासहजी सं० १६८७ का चैत्र सुद७
नकल परवाना दि० बेड़ा गोडवाड़ (मारवाड़) का -
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अज ठिकाणे बेड़ा ता० २४-११-३० ई० मोहर छाप युक्त कुलगुरु इंद्रचंदजी दीपचंदजी रा वास सांडेराव तथा मारे ठिकाणा रा कुलगुरु हो और अबार मारे ठिकाणा रा नांव वगेरा माडिया है जिनरी सीख में अलावा दूजी सीख रे बन्दूक १ कारतूसी १२ नंबर री दी गई है फकत् दः अब्दुलाखां कामदार ठिकाणा - पंचोली गीसूलाल । ऊपर दर्ज है जो मूजिब महाराणाजी का परवाना व सलूंबर, बेगूं वगैरा उमरावां का पट्टा गुरां मगनलालजी प्यारचंदजी का निवास भींडर (मेवाड़) के पास भी हैं ।
क्षत्रियों में राठोड़ खांप के कुलगुरु होने का प्रमाण वृजपुरा के कुलगुरां पास
जोधपुर महार जाधिराज का परवाना -
स्वस्ति श्री महाराजाधिराज महाराजाजी श्री गजसिंहजी महा राज कुमार श्री जशवंतसिंहजी मेड़ता कोठायता रोडमल सिकेदार रामदास दीसेसुप्रसाद अठारा समाचार भला छे थारा देजो श्री दरबार रा उपाध्याय श्री भवानीकीरतजी रिखबदेवजी जावे है सो रु ३००) तीन सो कॅट दोय आदमी चार साथे देजो ए कुलगुरु छे सं० १६६२ चेत विद ४ पाये तख्तगढ़ ।
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( १४३ )
दूसरा परवाना:
स्विरूप श्री राजराजेश्वर महाराजाधिराज महाराजाजी श्री विन यसिहजी महाराज कुँवार श्री जालमसिंहजी वचनायत महात्मा खरतरा राजसिहजी ने हमारा कुलगुरु छो सो थारा बेटा पोता ने हमारा मान्या जावसी सं० १५४६ भाद्वा विद ६ मुकाम पाय तगत जोधपुर ।
महाराजाधिराज मानसिंहजी साहेबो ने कुल की वंशावली पर गाव एक बृजपुरो भेंट कीदो जो आजतक कब्जे में है ।
ठिकाना पोहकरण का परवाना
सिद्धश्री राव बहादुरजी ठाकुरा साहब श्री मंगलसिंहजी कंवर जी श्री चेनसिहजी भंवरजी श्री भवानीसिंहजी राजस्थान पोखरण खाप चापावत • विट्ठलदासोत लिखावता कुलगुरु महात्मा खरतरा आनन्दीलालजी बेटा विरदीचंदजी रा पोता रघुनाथमलजी सूं वंदना वाचजो तथा थें मारा सदाबंध सुं कुलगुरु छो सो म्हारा वंशरा चांपावत विटुलदासोत पीढ़िया लगत थारा चेटा पोता ने मान्या जावसी श्राप कुलगुरु पूजनीक छो सं० १९८४ का मिती वैशाख सुद १४ दः पंचोली किशनलाल रा छे श्री रावरे हुक्म सु ।
रास ठिकाना का परवाना:
स्वरूप श्री राव बहादुर ठाकुर साहब राज श्री नाथूसिंहजी पाहव कंवरजी श्री बहादुरसिंहजी राजस्थान रास खांप उदावत जगरा
'
नोत लिखावता कुलगुरु महात्मा खरतरा आनंदीलालजी वेटा विरदी
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( १४४ )
चंदजो रा पोता रुगनाथमलजी सुं वंदना वांचजो तथा थे मारा सदाबंध सुं कुलगुरु छो सो मारा वंश रा उदावत जगरामोत पीढिया लगात थारा बेटा पोता ने मानसी सं० १९८७ रा प्रथम श्राषाढ सुद १ दः कुशलराज कामदार कचहरी श्री रावला हुक्म ।
___ ठिकाना नीमाज (मारवाड़)
स्वरूप श्री ठाकुरा साहेब राज श्री उम्मेदसिहजी साहेब राज स्थान नीम्बाज खांप उदावत जगरामोत लिखावत कुलगुरु महात्मा खरतरा ,आणंदीलालजी बेटा. बिरदीचंदजी रा पोता रुगनाथमलजी सुं वंदना बाचज्यो- तथा थें मारा सदाबंध सुं कुलगुरु छो सो म्हारा वंशरा उदावत जगेरामात आपरा बेटा पोती ने मान्या जावसी सं० १९८७ प्र० असाढ़ सुद ६ मंगलवार द राठौड़ लालसिंह कामदार ।
. ठिकाना खरवा:सिंध श्री समस्थां भायां सगत सिंगोत योग खरवा थी रावजी. राज श्री गोपालसिंहजी लि. जै जगदीश्वरजी की वांचजो अपंच ॥ गांव विरजपुरा का कुलगुरुजी आणंदीलालजी पुखराजजी वेटा विरदीचंदजी का पोता रुगनाथमलजी का राठोड़ वंशका कुलगुरु है और नामा मांडवा वाला हैं और आपणा बड़ेरा का नावा भी येहीज मांडता आया है सो अबभी मोजूदा भोलाद रा नावां मांडवा ने
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( १४५)
आवे जद मंडाय दीज्यो अणारी मुरजादा माफक राखज्यो ए गुरु है मिति पोष विद १३ संवत् १९८६' का शनीवार । रावली सही।
ठिकाना भादराजण -
मरे पर ए कुलगुरु आपणा है सो इणाने मानस्यो ।
स्वरूप श्री राज श्री समस्था भाया जोग भादराजण थी ठाकुरा राज श्री इंद्रभाणसिंहजी लिखावता जुहार वाचज्यो अठारा समाचार श्रीजी रा तेज प्रताप थी भला छे राजरा सदा भला चाहिजे अपंच ॥ यापणा कुलगुरु महाराज खरतरा महात्मा श्री दीनानाथजी मूलजी अनीत्मलजी ये अापणा कुलगुरु है सदावंच सुं इणाने सारा भाई मानज्यो शीष नवावज्यो श्रोलाद रा नावा नहीं मंडाया होवे सो मंडाय दीज्यो सदावंच सुं श्रापणा है सो इणारी मुरजाद राखजो सं० १६०६ । असाढ़ विद ३ .
ठिकाना रायपुर (मारवाड़):ठाकुरा राज श्री मावौसिंहजी राजस्थान रायपुर खांप उदावत राज सिंगोत लिखावता कुलगुरुजी महात्मा श्री दीनानाथजी सुं वंदना वारज्यो तथा श्राप म्हारा वंशरा राज मिंगोत पीढिया लगात आप रा बेटा पोता ने मान्या जासी यो परवानो श्री ठाकुर साहव रा हुक्म मुकीनो छ द मूथा मोकमचंद पंचोली हीरालाल रा.छे सं० १६११ भादवा विद में।
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मानवे में रईस व जागीरदारों के गुरु हैं उनका इतिहास -
महाराज दलपतसिंहजी जिस समय अपने भाई बेटे की जागीरी में परगना बलाहेड़ा पाकर जोधपुर से अलग हुवे उस समय गुरां महेशदासजी को भी जोधपुर से अपने साथ लाये और अपने अलग कुलगुरु स्थापन कर तनाम जाया परण्या का दस्तूर बक्ष कर वलाहेड़े में जागीर बक्षी व वशावली सुरण करके नामे लिखवा कर लाख पसाव वक्षा । सं० १६८० गाम डावडियोप गुरॉ हीराजी को सं० १७६६ में रतलाम राज्य सस्थापक महाराजा रतनसिंहजी के पुत्र अखेराजजी से गाम रतनपुरा परगने उगदड दाल्या पाये जो आज कल देवास राज्य में हैं ।
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महाराजा रतनसिंहजी से सं०.१७१५ मे नागड़ाखेड़ा जागीर में पाये जो आजकल सीतामोह राज्य में है । गुरा कानजी सं० १७४१ मैं महाराज रुगनाथ से सासरण रुपे २०० ) की पाये । गुरा शोभजी सं० १७८७ में कुंवर वक्तसिंहजी के राजलोक से माजे भुव, ले में जागीर पाये । गुरॉ पेमजी जोधपुर महाराज अजीतसिंहजी से केरुरे मार्ग धरती बीघा २०० पाये । सं० १७६४ में व भुवाले में दरबार राजसिंहजी से जागीर पाये । गुरॉ रामलालजी से सं० १७८० में कुँअर वख्तसिंहजी से जागीर पाये । गुरॉ लालजी को महाराजा होलकर तुकोजीराव ने अपने गुरु माने थे । होलकर खानदान के उपाध्याय के बाद इन्ही के गव अक्षत होता था। महाराजा होलकर ने अपने पास रखकर खास इन्दार में गजराबाई वाली हवेली ब्राह्मणी मुताबिक आठ आदमियों का भोजन व १५०) रुपया माहवार हतखर्च त्र तमाम जाया परण्या साल गिरह वगैरह के नेग दस्तूर मिलते थे' यह लालजी महाराजा सेंविया जियाजीराव वो मेदपाटेश्वर महाराणा जी
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स्वरुपसिंहजी व जोधपुर नरेश आदि बड़े २ नृपतियों की सेवा में हाजिर हुए इनको सीतामोउ रईस श्री राजसिंहजी ने मोजे भुवाला में जागीर वक्षी । सं० १८६४ में व संवत् १६१६ में रतलाम दरवार श्री रणजीतसिंहजी ने मोजे इटावा में जागीर वक्षी व संवत १८६८ में जड़वासे महाराज तख्तसिंहजी से जागीर पाये व पोलिटिकल एजेन्ट गवर्नर जनरल सेन्ट्रल इण्डिया मिस्टर हमिलटन साहब वहादुर के साथ रह कर सेन्ट्रल इण्डिया के इतिसास व इस तरफ केण्टपतियों के खानदान की पूरी २ वक्रफियत दी व इनके बनाये हुए वंश वृक्ष अभी तक ए० जी० जी० के दफ्तर में मौजूद हैं व जब कभी रईसों में गोद लेने व हक्क हकूक के विषय में झगड़ा पड जाता है तो इस वंश-वृक्ष को ही सच्चा मान कर इसी के आधार पर फैसला होता है । साहब बहादुर ममदूह ने अपनी कलम से सार्टीफिकेट में “This is a free Bathaur Kalquru." ऐसा नोट किया है व समाचार पत्रों ने व इतिहासकारों ने समय पर आपके विषय में लिखा है--
इनके पुत्र केसरसिंहजी हुए यह महाशय महाराजा होल्कर शियाजीराव के पास रहे व इनके साथ जोवपुर महाराजा जसवन्तसिंहजी साहब से मिले व वर्तमान संधिया महाराज के जन्मोत्म्य में शरीक होके महाराजा मावोराव सेंथिया से मिले। वहां से मान पाये व जोवपुर महाराजा साहब श्री सरदारसिहजी की शादी उदयपुर दरबार महाराणा सरं फतहसिंहजी साहब के वाईजी साहब के साथ हुई । उस उत्सव में जोधपुर गये व मान पाये । सं० १९८१ में श्रीमान् बीकानेर नरेश श्री गगासिंहजी ने नहर खौली (ोपनसिरेमनी) के जलसे में पधारे श्रीमान् वीकानेर नरेश ने वायसराय साहब वहादुर श्रीमद इरविन व लेडी साहिवा ने व पञ्जाव गवर्नर जनरल
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आदि बडे २ अंग्रेजों से खुद ले जाकर दस्तापोशी याने ( हाथ मिलाया ) और उनको सम्बोधन किया कि यह हमारे गुरु हैं । परिचय कराया दूसरी मरतबा महाराजा साहब के बाई साहिबा की शादी में शरीक हुवे । सन् १९११ में बादशाह पंचम जॉर्ज सम्राट के ताजपोशी के दरबार में भी हाजिर हुवे । झाबुए राजा दिल्ली कॉन्फ्रेंस में गये वहाँ भी शरीक हुए। रईस सीतोमोह के कंवर रघुवीरसिंहजी के नाम कर्ण के मौके पर मोजा नागड़ाखेड़ा में जागीर बक्षी । पोलीटेकल एजेंट सरदारपुर ने झाबुआ गोदनशीनी के मामले में सार्टिफिकेट दिया । माबुआ रईस ने १००) सालाना कर बने इनके पुत्र निर्भयसिंहजी को रियासत सेलाना झाबुआ अलीराजपुर व मालवा प्रान्त के तमाम ठिकानों में अपने कुलगुरु मान कर फिर नई सनदें कर दी ।
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रतलाम दरबार का पट्टा:
सिधश्री " महाराजाधिराज श्री श्री रणजीतसिंहजी श्रांगु कुलगुरु लालजी धनराज भेरू ने शुभ नजर फरमाय श्री बड़ा हजूर भैरवसिंहजी रतलाम में पास रांख्या और पटो, ३६०) को कर बच्यो सो उपटो देत माहे जमीन बीघा १५१ मोजे इटावा माताजी विजासण में चोतरा सूं उगमणी तरफ की मपा दी गई सो हमेशा पुस्त दर - पुश्त पाल्या जासी पुण्यारत कर दीवी और जो कुलगुरु को हक दस्तूर जाया परण्या व नामा माडने का होवेगा वो मिल्या जावेगा थें अठे हाजर रिया जाज्यो । श्लोक मामूला । सं० १६२१ भाद्वा विद ३ हस्ताक्षर उपाध्याय मथुरालाल ।
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( १४६ )
वंशावली में नामा मंडे वो सत्कार
श्रीमन्त महाराजाधिराज महाराजाजी श्री श्री १०८ श्री. नंत हिज हाइनेस सर सजनसिंहजो साहव बहादुर जी० सी० एस० आई. के. पी. एम आई. के. सी. वी. ओ. एडी सी टु हिज गयन हाईनेम दो प्रिन्स ऑफ वेल्स की सेवा में नेजसिह वल्द भेरजी कुलगुरु मा. हाल रतलान ने एक दरख्वास्त नामा लिखाने वावत पेश होने से श्रीजी ने कराये खावन्दो ता. १-६-३३ ईस्वी मिती भावा मुढ १२ सं. १६६ शुक्रवार के सुवह १० बजे का मुहुर्त होने से वंशावली वंचने की तजवीज महल रणजीत-विलास के पूर्व जानीय ऊपर के गोखड़े में की गई। पूजन के सामान का प्रबन्ध मारफत मुन्मरिम जागीरदारान के किया गण । वहाँ श्रीजी हजूर माहब वहादुर मय श्रीमान् बड़े महाराजकुंवार श्री लोकेन्द्रसिहजी साहव और छोटे बापूलालजी श्री चंद्रकॅवरजी साहब गोखडे में विराजमान हुए, वाट कुलगुरु तेजसिंहजी मदनसिंहजी को गोखड़े में विठा कर सामने एक बाजोट के ऊपर वंशावली रखी गई और पूजन विधि सहित श्रीमन्न वढे महाराजकुँवार साहव के हाय से श्रीमती छोटा बापूलालजी श्री चन्द्रकुंवर साहिबा के हाथ से पूजन हुई भेंट ५) रुपये श्रीफल एक प्रसाद ५ पाँच सेर पूजन कराने में गुरु भागीरथजो और दाना दीक्षित मुन्दरवक्षजी थे। बाद में श्रीमन्त वढे महाराजकुँवार साहब व श्रीमती छोटे वापूलालजी साहवा ने कुलगुरु तेजसिंहजी के तिलक किया बाद में मदनसिंहजी के तिलक किया इसके बाद तेजसिंहजो ने श्रीमान् श्री हजूर साहव के तिलक किया । फिर महाराजकुँवार साहव के व छोटे वापुलाल के तिलक किया । पश्चात् वंशावली वंचनी प्रारम्भ हुई उस वक्त वहाँ पर दोबान साहब दरवार राय
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(१५०)
बहादुर देवीशंकरजी दवे व मेजर शिवजी परसनल असिस्टेन्ट जागीरदार साहब गजोड़ा मुरारीलालजी मुंसरिम जागीरदारान लक्ष्मीनारायणजी, सेक्रेटरी कोंसिल महाराज अमरसिंहजी, शिवनाथसिंहजी, मुनीम नन्दलालजी, सरदार भभूतसिंहजी, व्यासजी नाथूलालालजी चोपदारों के जगाशर याकूबजी वगैरह लोग हाजिर थे । वाद सुनने वंशावली दीवान साहब ने मुख्तसिर नाम लिखा कर मुहुर्तं किया वाद दरवार बरखास्त हुआ।
इसी तरह कुलगुरु होने बावतझाबुत्रा, कणेरी, आम्बासुखेड़ा, बरमाचल, धारसीखेड़ा श्रादि की
सन भी है:जैसे सरवण जागीरदार साहव ने लिखा
राजश्री ठाकुर साहब अमरसिंहजी स्वस्थान सरवणा कुलगुरु लालजी चिरंजीव धनराज भेरां से पायलागणो वंचसी अपरंच.॥ म्हारा पुरखाए थारा पुरखा का पग पूजा से थे मारे वंश लारे हो सपूत कपूत वेवेगा जाने मान्या जावांगा । थे राठोड वंशरा कुलगुरु हो सो थारा वंश सिवाय दुसरा कुलगुरू श्रावे तो मानागा नहीं और थांने हमेशा पुश्तदर पुश्त म्हारो थांणो वंश रहेगा जठातक मान्या जावांगा । मारफत ठाकुर साहव लालसिंहजी नकल तिरवाड़ी सदाशिव मिती चेत सुद ७ सं० १९४४ का
इसी तरह इडर मे भी बरताव है । कानोड़ (मेवाड़) रावतजी सारंगदेवोत खोप
प्रथम श्रेणी के सामन्त:सिधश्री महारावत श्री सारंगदेवजी वचनायतु गुरुजी हीरा है वाई उम्मेदकंवर री भरणावणी में गाम अचलाणा रा तलाव पार
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सन् १९१४ की बात है। जब दक्षिण अफ्रीकाका कार्य पूरा करके महात्माजी विलायत गये और वहॉसे हिन्दुस्तान लौटे, तब दक्षिण अफ्रीकाके अिस विजयी वैरिस्टरकी मुलाकात लेनेके लिअ अक पारसी पत्र-प्रतिनिधि बम्बीके बन्दर पर ही जाकर अन्हें मिला । मुलाकात लेनेवालोंमें सबसे प्रथम होनेकी असकी ख्वाहिश थी।
असने जो सवाल पूछा, असका जवाब देनेके पहले बापने कहा'भाभी तुम हिन्दुस्तानी हो, मैं भी हिन्दुस्तानी हूँ। तुम्हारी मादरी जबान गुजराती है, मेरी भी वही है। तब फिर मुझे अग्रेजीमे सवाल क्यों पूछते हो ? क्या तुम यह मानते हो कि चूंकि मैं दक्षिण अफ्रीकामे जाकर रह आया, अिसलिमे अपनी जन्मभाषा भूल गया हूँ या यह कि मेरे जैसे वैरिस्टरके साथ अग्रेजी ही मे बोलनेमे शान है १३
पत्र-प्रतिनिधि शर्मिन्दा हुआ या नहीं मैं नहीं जानता, किन्तु आश्चर्य चक्ति तो जरूर हुआ। उसने अपनी मुलाकातके वर्णनमें बापूके लिसी जवाबको प्रधानपद दिया था ।
असने क्या क्या सवाल पूछे और बापूने क्या जवाब दिये, सो तो मैं भूल गया हूँ। किन्तु सब लोगोंको यही आश्चर्य हुआ, और बहुतों को आनन्द भी, कि हमारे देशके नेताओंमे कमसे कम अक तो असा है, जो मातृभाषामे बोलनेकी स्वाभाविकताका महत्व जानता है ।
अस समयके अखबारोंमें यह किस्सा सब जगह छपा था।
बापू जब विलायतसे हिन्दुस्तान लौटे, तब मैं शान्तिनिकेतनमे था। अस सस्थाका अध्ययन करनेके लिओ झुसमें कुछ महीनों रहकर और
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शिक्षकका काम करके असके अन्दरूनी वायुमण्डलको मुझे समझना था । रविबाबूने बड़ी क्षुदारतासे मुझे वह मौका दिया था।
वहीं पर बापूके फिनिक्स आश्रमके लोग भी मेहमानके तौर पर रहते थे । बापू जब दक्षिण अफ्रीकासे विलायत गये, तत्र अन्होंने अपने आश्रमवासियोंको श्री ॲड्यूनके पास भेजा था । श्री अॅड्र्यूजने जिन्हे कुछ दिन महात्मा मुशीरामके गुरुकुलमे हरिद्वारमे रखा और बादमे शान्तिनिकेतनमें ।
अखबार पढ़नेके कारण मैं दक्षिण अफ्रीकाका अपने लोगोंका अितिहास जानता ही था । मेरे अक स्नेहीके द्वारा गांधीजीके अफ्रीकाके आश्रमके बारेमें भी सुना था । सम्भव है मुन्हींके द्वारा आश्रमवासियोंने भी मेरा नाम सुना हो । शान्तिनिकेतनमें जाते ही मैं अिस फिनिक्स पार्टी में करीब करीब शरीक हो गया। सुबह और शामकी प्रार्थनायें अन्हीं के साथ करने लगा । शामका खाना भी वहीं पर खाने लगा । ये आश्रमवासी सुबह अठकर अक घण्टा मेहनत मजदूरी करते थे । शान्तिनिकेतनवालोंने भिन्हे अक काम सौंप दिया था । शान्तिनिकेतन की भूमिके पास अक तलैया थी और पास ही अक टीला था। जिस टीलेको खोदकर तलैयाका गड़हा भरने का यह काम था । हम दस बीस आदमी यदि रोज ओक घण्टा काम करते रहते, तो न जाने कितना समय असे पूरा करनेमे लग जाता । लेकिन हमे तो निष्काम कर्म करना था। रोज बडे अत्साहसे हम अपना काम करते जाते थे । मि० पियर्सन भी हमारे साथ आते थे ।
जब बापू शान्तिनिकेतन आये, (अनके आनेका सारा बयान में अलग दूँगा । ) तो रातको देर तक हम बाते करते रहे। सुबह अठकर 1) प्रार्थनाके बाद हम मजदूरीके लिये गये । वहाँसे लौटकर आये तो क्या देखते हैं ! हम लोगोंका नाश्ता फल आदि सब काटकर अल्ला अलग थालियों में तैयार रखा है । हम सबके सब काम पर गये थे, तब माता -जैसी यह सब मेहनत किसने की ? मैंने बापूसे पूछा ( अन दिनों मैं अनसे अंग्रेजी में ही बोलता था ) - ' यह सब किया किसने ?' वे बोले – ' क्यों, मैंने किया है।' मैंने सकोचसे कहा- -' आपने क्यों किया ? मुझे अच्छा नहीं लगता कि आप सब तैयारी करें, और हम बैठे खाये । '
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क्यों असम क्या हर्ज है ?' वे वोले। मैंने कहा-'आप सरीखोंकी सेवा लेनेकी हममें योग्यता तो हो ।'
जिस पर बापूने जो जवाब दिया, असके लिये मैं तैयार नहीं था । मेरा वाक्य 'we must deserve it' सुनते ही बिलकुल स्वाभाविकतासे अन्होंने कहा 'which is a fact.' में सुनकी ओर देखता ही रहा । फिर हँसते हँसते अन्होंने कहा -'तुम लोग वहाँ काम पर गये थे और यहा नाश्ता करके फिर और काम पर ही जाओगे। मेरे पास खाली समय था । भिसलिओ तुम्हारा समय मैंने बचाया । अक घण्टेका काम करके जैसा नास्ता पानेकी योग्यता तो तुमने हासिल कर ही ली है न?'
जब मैंने कहा था we must deserve it, तो मेरा मतलब यह था कि जितने बड़े नेता और सत्पुष्यकी सेवा लेनेकी योग्यता तो हममें हो। लेकिन मेरी यह भावना अनके दिमाग तक पहुँची ही नहीं । अनके मनमें तो सब लोग अक सरीखे । मैंने सेवा की, अिसलिओ सुनको सेवा लेनेका हकदार बन गया ।
सन् १९१४ की ही बात है। महायुद्ध छिड़ गया था । और गांधीजी हिन्दुस्तान लोटे नहीं थे। शान्तिनिकेतनमें जब मैं था, तो वहाँके आम रसोजी घरमे गेहूँकी रोटी नहीं वनती थी। सब लोग भात ही खाते थे। वहाँ दो तीन बगाली लड़के थे, जो अजमेरकी तरफ रहे थे। सुनके लिखे योदी रोटियाँ बनती थीं। पहले दिन जब मैंने रोटी मॉगी, तो सबकी रोटियाँ मैं अकेला ही खा गया। रोटी सी बनी थी कि बिलकुल चमड़ा हो । असका नाम मैंने मोरक्को लेदर (Moracco Leather ) रखा था।
___ अन दिनों मैं स्वभावसे ही बड़ा प्रचारक था । सबके आहारमे मात कम और रोटी ज्यादा हो, यह मेरा आग्रह था । मेरे प्रचारके फलस्वरूप पाँच अध्यापक और ग्यारह विद्यार्थी अलग रसोजी करने लिये तैयार हो गये। मैंने अस दलका नाम रखा था Self-helpers' Food Reform League (स्वावलम्बियोंका भोजन सुधारक
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मण्डल)। हम सब मिलकर अपने हायसे पकाते थे, बरतन भी मॉजते थे, और मसाले आदिका व्यवहार नहीं करते थे। रोटी तो मुझे ही बनानी पड़ती थी। वह जैसी अच्छी बनती थी कि लीगके बाहरके आदमी भी खाने आते थे। हमारे क्लबमें सतोष बाबू मजूमदार थे। वे अमेरिकासे अध्ययन करके आये थे। मैंने अक दिन कहा कि बरतन मॉजनेसे और कमरा साफ करनेसे हमारी आत्मा भी साफ होती है । वे हँस पड़े और कहने लगे -'हृदयको साफ करना जितना आसान नहीं है ।'
कुछ भी हो हम लोगोंका बन्धुभाव खूब बढ़ा । शान्तिनिकेतनने हमें अपने प्रयोगके लिो पूरा सुभीता कर दिया था।
जब गांधीजी वहाँ आये, तो अन्होंने हमारा यह कार्य देखा। बड़े खुश हुअ किन्तु सुनका स्वभाव तो बड़ा ही लोभी । कहने लगे-'यह प्रयोग अितने छोटे पैमानेपर क्यों किया जाता है ? शान्तिनिकेतनका सारा रसोीघर ही अिस स्वावलम्बन तत्त्वपर क्यों नहीं चलाया जाता ?'
बस, दक्षिण अफ्रीकाके विजयी वीर तो ठहरे। वहाँके अध्यापकोंको और व्यवस्थापकोंको बुलवाया और उनके सामने अपना प्रस्ताव रखा । वे बड़े संकोचमें पडे । अितने बड़े मेहमानको क्या जवाब दिया जाय ! गांधीजीकी यह जल्दबाजी मुझे अनुचित-सी लगी। मैंने कहा- 'मेरा छोटासा प्रयोग चल रहा है । अगर झुन्हे पसन्द आयेगा, तो धीरे धीरे असे क्लब और भी बन जायेंगे।' मैंने यह भी कहा कि 'दो सौ आदमियोंका आम रसोभी-घर नये ढंगसे चले न चले। अिससे बेहतर यह होगा कि यहाँ पर पच्चीस पच्चीस या तीस तीस आदमियोंके छोटे छोटे क्लब बन जायें ।'
कर्मवीर मेरा प्रस्ताव थोड़े ही कबूल करनेवाले थे! कहने लगे- 'अगर आठ क्लब बनाओगे तो तुम्हे कमसे कम सोलह expert (विशेषज्ञ) चाहिये। अितने है तुम्हारे पास ? बड़ी बड़ी फौजें जैसे काम करती हैं, वैसे ही हमें करना होगा और साथ मिलकर काम करने और साथ खानेकी आदत डालनी होगी। अगर छोटे छोटे क्लब ही बनाने हैं, तो कुछ महीनोंके बाद बना सकते हो। आज तो आम रसोओ ही चलानी होगी।'
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सुनकी दलील ठीक थी। मै चुप हो गया। लेकिन मैंने मनमें कहा-'सस्था न आपकी है, न मेरी; और गुरुदेव भी (शान्तिनिकेतनमें रविवाबूको गुरुदेव कहते थे) मिस समय यहाँ नहीं हैं। अितना बड़ा अत्पात आप क्यों करने जा रहे हैं ?'
बापने श्री जगदानन्द बाबू और शरद बाबूको बुलवाया और पूछा कि 'यहाँ रसोअिये और नौकर मिलकर कुल कितने आदमी है ? ' जब अन्हें पता चला कि करीब पैंतीस, तो बोले-'अितने नौकर क्यों रखे जाते हैं ? अिन सवको छुट्टी दे देनी चाहिये।' व्यवस्थापक बेचारे दिमृद्ध हो गये। अन्हें सीधे कहना चाहिये था कि हम अकाओक असा नहीं कर सकते। किन्तु अन्होंने देखा कि मि० अंड्यज़ और पियर्सन बापूके प्रस्तावके पक्षमे है, और गुरुदेवके दामाद नगीनदास गांगोलीभी असी प्रभावमे आ गये हैं। और विद्यार्थी तो ठहरे बदर | किसी भी नयी बातका खफ्त सुन पर आसानीसे सवार हो जाता है। सारा वायुमडल अत्तेजित हो गया। मैंने देखा कि मि० अॅड्रयूजको स्वावलम्बनका अितना अत्साह नहीं था जितना ब्राह्मण जातिके रसोभियेको निकाल देनेका। विश्व-कुटुम्बमें विश्वास करनेवाली जितनी बडी संस्थामें ये ब्राह्मण रसोअिये अपनी रूटि चलाते और किसीको रसोगीघरमें पैठने नहीं देते।
लेकिन हम लोग' सामाजिक या धार्मिक सुधारके खयालसे प्रेरित नहीं हुसे थे; हमे तो जीवन सुधारकी ही लगन थी।
तय हुआ कि बापू विद्यार्थियोंको सिकटा करके पूछे कि असा परिवर्तन अन्हें पसन्द है या नहीं । क्योंकि, नौकरोंके चले जाने पर काम तो अन्हींको करना था। मि० अंड्यज़ बापूके पास आकर कहने लगे - 'मोहन, आज तो तुम्हे अपनी सारी वक्तृता काममें लानी पड़ेगी । लड़कोंको असी 'जोशीली अपील करो कि लड़के मंत्रमुग्ध हो जायँ । क्योंकि तुम्हारी अिस अपील पर ही सब कुछ निर्भर है ।' बापूने कुछ जवाब नहीं दिया ।
विद्यार्थी अिकटे हुमे । हम लोग तो गांधीजीकी जोशीली अपील सुननेकी सुत्कण्ठासे अपना हृदय कानमें लेकर बैठ गये।
और हमने सुना क्या ? ठडी मामूली आवाज़; और विलकुल व्यवहारकी वाते। न असमें कहीं वक्तृता थी, न कहीं जोश । न भावुकता (sentiment) को अपील थी, न बहुत शृंची या लम्बीचौड़ी फलश्रुति ।
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तो भी अनके वचन काम कर गये । जिन विद्यार्थियोंको मैं अच्छी तरह जानता था कि वे शौकीन और आरामतलब हैं, वे भी अत्साह में आ गये और उन्होंने अपनी राय जिस प्रयोगके पक्षमें दी । अब व्यवस्थापकोंने अपनी अक आखरी किन्तु ठूली कठिनाभी पेश की । कहने लगे. 'नौकरोंको आजके आज नौकरीसे मुक्त करना हो तो अनको तनखाह देनी पड़ेगी । पैसे लाने पड़ेंगे। जिस वक्त खजानचीके पास नहीं हैं । ' गांधीजीके पास होते तो वे तुरन्त दे देते। वे यहाँ मेहमान थे, किससे माँग सकते थे ? सुनके आश्रमवासी भी आश्रमके मेहमान ही ठहरे। अनके पास कुछ नहीं था । मि० अँड्र्यूज़के पास भी अस वक्त कुछ नहीं था । मैं था अक घूमनेवाला परिव्राजक । तो भी पता नहीं कैसे गांधीजीने मुझसे पूछा - ' तुम्हारे पास कुछ हैं ? ' मैंने कहा " हैं।" मेरे पास करीब दो सौ रुपये निकले । मैंने उन्हे दे दिये । फिर क्या ? नौकरोंको तनख्वाह दे दी गयी, और वे आश्चर्यचकित होकर चले गये । अब सवाल अठा, रसोअीघरका चार्ज कौन ले । मेरी तो फुड रिफार्मर्स लीग चल ही रही थी। गांधीजीने मुझसे पूछा - 'लोगे ?' मैंने अिन्कार किया । आत्मविश्वासके अभाव के कारण नहीं, मिस प्रयोग पर मेरी अश्रद्धा थी सो भी नहीं, किन्तु मैं जानता था कि यह सारी अनधिकार चेष्टा है । मैने कहा 'मेरा छोटासा प्रयोग चल रहा है। अससे मुझे सतोष है । जितना बड़ा व्यापक परिवर्तन अकाओक करना मुझे ठीक नहीं जँचता । ' लेकिन fra तरह गांधीजी रुकनेवाले थोड़े ही थे । और झुनका भाग्य भी कुछ जैसा है कि अगर अक आदमीने अिन्कार किया, तो अनका काम करनेके लिये दूसरा कोअी न कोभी अन्हें मिल ही जाता है । मेरे मित्र राजंगम् अथवा हरिहर शर्मा शान्तिनिकेतनमें ही काम करते थे। जिन्हें हम अण्णा कहते थे । वे तैयार हो गये। कहने लगे - 'मैं चार्ज लूँगा ।' अब सवाल आया, मदद कौन करेगा | तब मैंने कहा 'जब मेरे मित्र कोभी काम अठाते है, तब मदद करना मेरा धर्म होता है । मैं यथाशक्ति मदद करूँगा । ' गांधीजीने कहा 'तुम्हारा प्रयोग जो छोटे पैमाने पर चल रहा है, असका भिस बड़े प्रयोगमें विसर्जन करो और सारी शक्ति अिसीमें लगा दो ।'
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वैसा ही किया गया। और फिर मैं तो राक्षस जैसा काम करने लगा। बारह-अक बजे यह सब तय हुआ होगा। तीन बजे हमने चार्ज लिया और शामको लड़कोंको खिलाया। गांधीजी स्वय आकर काम करने लगे। शाक सुधारनेका काम अन्होंने किया। रोटियाँ तैयार करनेका काम मेरा था। मेरी रोटियाँ भितनी लोकप्रिय हुी कि जहाँ छह रोटिया बनती थीं, वहाँ दो सौ बनने लगी। पत्थरके कोयलेके चूल्हे, सुनपर लोहेकी गरम चादरें, और अनपर मैं दो दो रोटियाँ अकपर अक रखकर हिराफिरा कर सेंकता था। जिस तरह चार जुफन याने अक साथ आठ रोटियोंकी ओर मैं ध्यान देता था। विद्यार्थी रोटियाँ बेलवेलकर मुझे देते थे। गूंघनेका काम चितामणि शास्त्री कर देते थे। सुबहका नाश्ता दूध केलेका था। वर्तन मांजनेके लिझे भी बड़े विद्यार्थियोंकी अक टुकड़ी तैयार हो गयी थी। सुनका भी सरदार मै ही था। बर्तन मॉजनेवालोंका अत्साह कायम रहे, अिसलिओ वहॉपर कोी विद्यार्थी अन्हें कोसी रोचक अपन्यास पढ़कर सुनाता था, कभी कोमी सितार बनाता था। मेरी यह योजना शान्तिनिकेतनवाले रसिक अध्यापकोंको बहुत ही अच्छी लगी।
मिस तरह दो चार दिन गये और गांधीजी अपने मित्र डाक्टर प्राणजीवन मेहतासे मिलनेके लिओ बर्मा (ब्रह्मदेश) जानेके लिओ तैयार हो गये। हरिहर शर्माने कहा-'मैं भी अिनके साथ जागा ।' (शर्माजी पहले डा. प्राणजीवन मेहताके यहाँ लड़कोंके टयूटर रह चुके थे।) मुझे बड़ा गुस्सा आया । मैं शिकायत करने गांधीजीके पास गया। गांधीजीने मेरा काम तो देखा ही था। उन्होंने ठढे पेटे मुझे कहा,- 'तुम तो सब कुछ चला सकोगे। लेकिन अगर तुम्हारी अिच्छा है, तो अण्णाको चार छह दिनके लिझे यहाँ रख जा । वे मेरे पीछे आयेंगे।' मै और भी झल्लाया। मैंने कहा- 'जिम्मेदारी तो अन्होंने ही ली थी। अब यह छोड़कर कैसे जा सकते हैं ? और अगर अन्हें जाना ही है, तो चार छह दिनकी मेहरबानी भी मुझे नहीं चाहिये । र अन्हें कल जाना है, तो आज चले जायें।'
गांधीजीने देखा था कि मैं तो नये प्रयोगमे रंगा हुआ हूँ। कुछ भी दया किये बगैर अन्होंने कहा-'अच्छा, तब तो ये मेरे ही साथ जायेंगे।' भौर सचमुच दूसरे ही दिन अण्णा गांधीजीके साथ चले गये !!
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अिस प्रयोगका आगे क्या हुआ, सो यहाँ बतानेकी ज़रूरत नहीं। रवीन्द्रबाबू कलकत्तेसे आये | अन्होंने जिस प्रयोगको आशीर्वाद दिया। कहा कि अिस प्रयोगसे संस्थाको और बंगालियोंको बड़ा लाभ होगा।
धीरे धीरे नावीन्य कम होता गया। लड़के यकने लगे। मि० पियर्सनने भी मेरे पास आकर कहा- 'काम तो अच्छा है, लेकिन पढ़ने लिखनेका अत्साह नहीं रह जाता है।' बड़ी बहादुरीसे हमने चालीस दिन तक अिसे चलाया। फिर छुट्टियों आ गयीं। छट्टियों के बाद किसीने अिस प्रयोगका नाम भी नहीं लिया। मै भी शान्तिनिकेतन छोड़कर चला गया ।
थोडे ही दिनोंमें गांधीजी बर्मासे लौटे । हमारा प्रयोग चल ही रहा था । जितनेमें पुनासे तार आया : गोखलेजीका देहान्त (फरवरी १९१४ ) हो गया । गांधीजीने तुरन्त पूना जानेका तय किया। अिसके पहले गोखलेजी अनसे कहते थे - 'सर्वेण्ट्स आफ अिण्डिया सोसायटीके सदस्य बनो ।' लेकिन गांधीजीने निश्चय नहीं किया था। अपने राजकीय गुरुकी मृत्युके पश्चात् झुनकी यह अतिम अिच्छा गांधीजीके लिमे आज्ञाके समान हो गयी। वे पूना गये, और सर्वैट्स आफ अिण्डिया सोसायटीमे प्रवेश पानेके लिओ अर्जी दे दी।
अर्जी पाकर गोखलेजीके अन्य शिष्य घबरा गये। वह सारा किस्सा नामदार शास्त्रीजी ने दोतीन जगह अपनी अप्रतिम भाषामें वर्णन किया है । असे यहाँ देनेकी ज़रूरत नहीं । सार यह था कि वे जानते थे कि गांधीजीको वे हजम नहीं कर सकेंगे। किन्तु गोखलेजीके ही (creed) (राजनीतिक सिद्धान्तों) को गांधीजी मानते थे । औसी हालतमें अनकी अर्जी अस्वीकार कैसे की जाय, अिसी असमजसमें वे पड़े थे। परिस्थिति ताड़कर गांधीजीने ही अपनी अर्जी वापिस ले ली और अपने गुरुमाअियोंको संकटसे मुक्त कर दिया। फिर भी अवैधरूपसे सोसायटीके जलसोंमें वे अपस्थित रहते, और संस्थाको अन्होंने समय समय पर मदद मी काफी दी।
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अम्र थी। अन्हें अपने लिअ कोभी विभूति (Hero) चाहिये थी। गोखलेजीने असाधारण सहानुभूति बतायी और अनकी कदर की, जिसीसे अन्होंने गोखलेकी राजनीतिमें अपने सब आदर्श देख लिये । कुछ भी हो । गोखले बापके जीवन गुरु नहीं थे।
श्रीमद् राजचन्द्र (जो बम्बीके अक शतावधानी जौहरी थे) की धर्मनिष्ठा और आत्मप्राप्तिकी बेचैनी देखकर बापूने अनसे बहुतसे प्रश्न पूछे थे और समाधान भी पाया था। तबसे 'श्रीमद् के शिष्य तो यह कहते नहीं थकते कि राजचन्द्र गांधीजीके गुरु थे।
बापने कुछ हद तक जिस बातको स्वीकार भी किया। लेकिन जब यह बात बहुत आगे बढी, तब अन्हें जाहिर करना पड़ा कि मैं राजचन्द्रको मुमुक्षु तो जरूर मानता हूँ, किन्तु साक्षात्कारी पुरुष नहीं।
किसी समय बापूने अपने किसी लेखमें लिखा था कि 'मैं गुरुकी खोजमें हूँ। क्योंकि गुरु मिलने पर मनुष्यका अद्धार हो ही जाता है । बस, मितना लिखना था कि अनके पास सैकड़ों चिड़ियाँ आने लगीं। कोजी लिखता था, अमुक जगह अक बड़े महात्मा रहते हैं, वे बड़े योगी हैं, अन्हे सब सिद्धियाँ प्राप्त हैं, आप सुनके पास जाकर अपदेश लीजिये। कोभी किसी सत्पुरुषकी सिफारिश करता था । यदि किसीने खुदकी ही सिफारिश करते हुओ बापूके गुरु बननेकी तैयारी दिखायी हो तो मैं नहीं जानता । लेकिन बापूके अद्धारकी अिच्छासे लोगोंने अन्हें अनेक मार्ग दिखाये । अन्तमें बापूको जाहिर करना पड़ा कि 'जिस गुरुकी खोजमें में हूँ वह स्वयं भगवान ही है । भगवान ही मेरे गुरु बन सकते हैं, जिन्हें पानेके बाद कोभी साधना बाकी भी नहीं रहती । मेरी यह सारी जिन्दगी, सारी प्रवृत्ति अस गुरुकी खोजके लिओ ही है ।'
जिस तरह हम आश्रमवासी गांधीजीको बापू कहते हैं, असी तरह शान्तिनिकेतनमें लोग रविवाथको गुरुदेव कहते थे। अब गांधीजीका यह स्वभाव या रिवाज है कि जो व्यक्ति जिस नामसे मशहूर हो जाय, वही नाम वे भी स्वीकार कर लेते हैं। रविबाबका जिक्र वे 'गुरुदेव के नामसे करने
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लगे । तिलकजीको ही लीजिये • पहले बापू अन्हें तिलक महाराज कहते थे। बादमें अन्होंने देखा कि महाराष्ट्रमें लोग अन्हें लोकमान्य कहते हैं, तो अन्होंने भी लोकमान्य कहना शुरू कर दिया। यही बात है मि० जिन्नाके चारेमें भी । मि० जिन्नाके अनुयायी अन्हें कायदे आजम कहते हैं, अिसलिओ बापू भी झुनका जिक्र असी नामसे करते हैं। श्री वल्लभमानी पटेलको गुजरातके कार्यकर्ता श्री मणिलाल कोठारीने सरदार कहना शुरू किया और लोग भी अन्हें सरदार कहने लगे । बापूने यह बात सुनी तो अन्होंने भी वही नाम चलाया ।
अिन बड़े लोगोंकी बात तो छोड़ दीजिये । मै अपने परिवारमें, विद्यार्थियोंमें और मित्र मण्डलीमें काकाके नामसे मशहूर हूँ । यहाँ तक कि जब मेरा पूरा नाम दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर कहीं लिखा जाता है, तो लोग मुझे पूछते हैं कि क्या ये दत्तात्रेय बालकृष्ण तुम्हारे कोसी रिश्तेदार हैं? बस, अिसी परसे बापू भी मुझे काका ही कहते हैं। अमकी चिड़ियोंमें भी 'चिरजीव काका से प्रारम्भ करते हैं और समाप्त करते है 'बापूके आशीर्वाद' से। नामके 'लिले 'काका' शब्द केवल विशेष नाम रहा है, असका कोभी विशेष अर्थ नहीं है । जिसी तरह, रथीबाबू (रविबाबूके लड़के)को अथवा श्री विधुशेखर शास्त्रीजीको लिखते समय रविबाबूका जिक्र गुरुदेव नामसे ही करते है, क्योंकि वही नाम अन लोगोंको प्रिय है। ज्यादा नहीं जाननेवाले लोगोंने अिससे अनुमान लगाया कि गांधीजी रविबाबुको अपना गुरुदेव मानते हैं!
अिसी सिलसिलेमे अक छोटा-सा प्रसंग यहाँ लिख देता हूँ। मैं शान्तिनिकेतन गया, तो सबसे पहले गुरुदेवसे मिला । अनसे कहा कि मैंने आपके गीतांजलि आदि अथ पढे हैं, अब मैं आपके कुछ आध्यात्मिक अनुभव जानना चाहता हूँ। मै विशेष प्रश्न पूछू असके पहले वे कहने लगे-'लोग मुझे गुरुदेव तो कहते हैं, लेकिन मैं गुरुमें विश्वास नहीं करता। मैं नहीं मानता कि कोभी किसीका गुरु बन सकता है, कोसी किसीको मार्ग बता सकता है । अध्यात्म मेक असा क्षेत्र है कि जिसमें हरओकको अपने लक्ष्यकी ओर जानेका रास्ता भी अपने आप तैयार करना पड़ता
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है। अध्यात्म हमेशा unchartered sea के जैसा क्षेत्र ही रहा है। मेरी साधना मुझे मेरे कवि होनेसे मिली है। जब मैं सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म' कहता हूँ, तब यह सारा विश्व मुझे सत्य रूप दीख पड़ता है। जिस विश्वको अिन्कार करनेवाला मायावाद मेरे पास नहीं है ।' अिसी तरह
अनेक बातें कहीं। सारे प्रवचनकी रिपोर्ट देनेका यह स्थान नहीं है । मुझे अितना ही बताना है कि गुरुदेवके नामसे अपनी मण्डलीमें जो हमेशा पुकारे जाते थे, वे स्वयं गुरु-जैसी किसी वस्तुको मानते ही नहीं थे।
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१९२१में बेजवाडाकी अखिल हिन्द कांग्रेस महासमिति (A. I.C.C.) ने तय किया था कि लोकमान्य तिलकके स्मारकमें अक करोड़. रुपया अिकट्ठा किया जाय । असी सिलसिलेमें धन अिकट्ठा करनेकी कोशिगे चल रही थीं। अक दिन श्री शंकरलाल बैंकरने आकर कहा'हमारे प्रान्त (बम्बी ) में जितनी मुख्य मुख्य नाटक कम्पनियाँ हैं, वे सब मिलकर अपने सबसे अच्छे नटों द्वारा अक किसी अच्छे नाटकका अभिनय करेंगी। झुस दिन अगर बापू थियेटरमें अपस्थित हो जाये, तो वे लोग सुस खेलकी सारी आमदनी तिलक स्वराज्य फण्डमें देनेके लिओ तैयार हैं।' अन्होंने आगे कहा - 'हजारोंकी नहीं, लाखोंकी बात है, क्योंकि टिकटोंकी मनमानी कीमत रखेंगे ।' बापू ओक क्षणका भी विलंब किये बगैर बोले ---- 'यह नहीं हो सकता। मैं कभी धंधादारी नटोंके नाटक देखने नहीं जाता । कोभी मुझे करोड़ रुपया भी दे, तो भी मैं अपना नियम नहीं तोड़ सकता ।'
शंकरलालजीका प्रस्ताव जैसाका तैसा रह गया ।
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'विद्यापीठमें हरिजनको
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सन् २१ की ही बात है । अहमदाबादमे गुजरात विद्यापीठकी स्थापना हुआ । स्थापनामे मेरा काफी हाथ था। अन दिनों में दिनरात भूत- जैसा काम करता था । येक दिन विद्यापीठके नियामक मण्डलकी बैठक थी । असमें मि० अँड्रयूज भी आये थे । अन्होंने सवाल छेड़ा तो प्रवेश रहेगा न ?' मैंने तुरन्त जवाब दिया हॉ, रहेगा ।' किन्तु हमारे नियामक मuse असे लोग थे, जिनकी अस्पृश्यता दूर करनेकी तैयारी नहीं थी । हमारी सम्बद्ध सस्थाओं में अक था मॉडल स्कूल | असके संचालक fre सुधारके लिये तैयार नहीं थे । और भी लोग अपनी अपनी कठिनाजियों पेश करने लगे । अस दिन यह प्रश्न अनिश्चित ही रहा । जितना ही तय हुआ कि जिसके बारेमे बापूजी से पूछेंगे । मैं निश्चिन्त था । आखिर बापूसे पूछा गया । अन्होंने भी वही जवाब दिया जो मैंने दिया था ।
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दे
जिस बात की चर्चा वैष्णव घनिकोंने बापूके पास आकर कहाधर्म कार्य है। हम असमें आप कहें अतने पैसे सवाल आप छोड़ दीजिये । वह हमारे समझमे नहीं आता । ' आये हुये वैष्णव कुछ पाँच सात लाख रुपये देनेकी नियतसे आये थे । बापूजीने अन्हें कहा - 'विद्यापीठ निधिकी बात तो अलग रही, कल अगर कोभी मुझे अस्पृश्यता कायम रखने की शर्त पर हिन्दुस्तानका स्वराज्य भी दे, तो असे मैं नहीं लूँगा ।' बेचारे वैष्णव धनिक जैसे आये थे वैसे ही चले गये ।
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गुजरात भरमें होने लगी । बम्बओके चन्द
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राष्ट्रीय शिक्षाका कार्य बढ़ा
सकते हैं, किन्तु हरिजनों का
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४५ आश्रमके प्रारम्भके दिनोंमें आसपास हमें अच्छा दूध नहीं मिलता था। अिसलिमे हमने अपना प्रबन्ध कर लिया, अच्छी अच्छी गायें और भैसें रख लीं।
कुछ दिनों के बाद बापूने हमे समझाया कि हमें गोरक्षा करनी है । भैसको रखकर हम गायको नहीं बचा सकते । दोनोंको आश्रय देकर. हम दोनोंका नाश कर रहे हैं । गायकी सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धी है भैस । बैल तो अपनी सेवाके बल पर बच जाता है, और भैस अपने दूध, घीकी अधिकताके बल पर । रही गाय और भैसके पाड़े। सो गाय कतल की जाती है और भैसके पाड़े बचपनमें ही मार डाले जाते हैं । ___ • नतीजा यह हुआ कि आश्रमसे सब मैसे हटायी गयीं । केवल गोशाला ही रही।
अक दिन गायका अक बछड़ा बीमार हुआ। हम लोगोंने असकी दवाके लिअ जितनी कोशिशे हो सकती थीं की । देहातोंसे पशुरोगोंके जानकार आये । व्हेटरनरी डॉक्टर आये । जितना हो सकता था सब कुछ किया । किन्तु बछड़ा ठीक नहीं हुआ।
बछड़ेके अन्तिम कष्ट देखकर बापूने हम लोगोंके सामने प्रस्ताव रखा कि अिस मूक जानवरको जिस तरह पीड़ा सहन करते रखना घातकता है । असे मृत्युका विश्राम ही देना चाहिये ।
अिस पर बड़ी चर्चा चली । श्री वल्लभभाभी अहमदाबादसे आये। कहने लगे -'बछड़ा तो दो-तीन दिनमें आप ही मर जायेगा, किन्तु असे आप मार डालेंगे तो नाहक झगडा मोल लेंगे। देश भरके हिन्दू समाजमें खलबली मचेगी। अभी फंड अिकट्ठा करने बम्बभी जा रहे हैं। वहाँ हमें कोसी कौड़ी भी नहीं देगा । हमारा बहुतसा काम रुक जायेगा।'
बापूने सब कुछ ध्यानसे सुना और अपनी कठिनाभी पेश करते हुओ कहा -'आपकी बात सब सही है। लेकिन बछड़ेका दुःख देखते हम
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कैसे बैठ सकते हैं ? हम असकी जो अन्तिम सेवा कर सकते हैं, वह न करें तो धर्मच्युत होंगे।'
जैसी बातोंमे वल्लभभाभी बापूसे कभी वादविवाद नहीं करते थे। वे चुपचाप चले गये । फिर बापूने हम सब आश्रमवासियोंको बुलाया । हमारी राय ली । मैंने कहा- 'आप जो करते हैं सो तो ठीक ही है। किन्तु अगर मुझे अपनी राय देनी है, तो मै गौशालामे जाकर बछड़ेको प्रत्यक्ष देख यूँ तभी अपनी राय दे सकता हूँ। मैं गौशालामें गया । वछड़ा वेभान पड़ा था । मैं अपनी राय तय नहीं कर पाया । अिसलिमे वहाँ कुछ ठहरा । बादमें जब देखा कि बछड़ा जोर जोरसे टाँगें झटक रहा है, तो मैं बाके पास गया और कह दिया - मैं आपके साथ पूर्णतया सहमत हूँ।' वापूने किसीको चिट्ठी लिखकर गोली चलाने वाले आदमियोंको बुलवाया। अन्होंने कहा - 'गोलीसे मारनेकी जरूरत नहीं। डॉक्टर लोगोंके पास असा अिन्जेक्शन रहता है जो लगाते ही प्राणी शान्त हो जाता है।' अस पर ओक पारसी डॉक्टर बुलवाया गया। असने अस पीड़ित बछड़ेको 'मरण' दे दिया।
जिस पर तो देशभरमें खुब हो-हल्ला मचा था । बापूको की लेख लिखने पड़े थे। सारा हिन्दू समाज जड-मूलसे हिल गया था । बाकी अनन्य धर्मनिष्ठा और गौभक्तिके कारण ही वे मिस आन्दोलनसे बच सके।
पंजाबके अत्याचार, खिलाफतका मामला और स्वराज्य प्राप्ति अिन तीन बातोंको लेकर बापूने अक देश-व्यापी आन्दोलन शुरू किया । भारतके अितिहासमे शायद यह अपूर्व आन्दोलन था, जिसमे हिन्दू और मुसलमान अक हुमे थे । यह अद्भुत दृश्य देखकर अंग्रेज भी घबरा गये । सरकारको लगने लगा कि गांधीजीके साथ कुछ न कुछ समझोता करना ही चाहिये । वाअिसरायने बापूको मिलनेके लिओ बुलवाया।
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पंजाबका अत्याचार तो हो ही चुका था । उसके बारेमें किसीको सजा दिलानेकी शर्त भी बापूने देशको नहीं रखने दी थी। सरकार अपनी भूल स्वीकार कर लेती, तो मामला तय हो जाता । बाकी रही थीं दो बातें। खिलाफत पर वाअिसरायकी दलील थी कि यह सवाल हिन्दुस्तानका नहीं, अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिका है। असमें कभी नाजुक बातें भरी हुभी हैं । असे छोड़ दो और केवल स्वराज्यकी बातें करो, तो आपसे समझौता हो जायगा । बापूने कहा- यह नहीं हो सकता। हिन्दुस्तानके मुसलमान हिन्दुस्तानका महत्वपूर्ण अंग हैं । झुनके दिलमें जो अन्यायकी चांट है, असके प्रति मैं अदास नहीं रह सकता ।' ।
अिसी पर समझौतेकी बात टूट गयी । देशके बड़े बड़े नेताओंने -खानगी बातचीतमें बापूको दोष दिया। सुनका कहना था कि खिलाफतकी बात हिन्दुस्तानकी है ही नहीं । झुसे छोड़ देते तो क्या हर्ज था । स्वराज्य तो मिल जाता! (अन दिनों स्वराज्यकी हमारी कल्पना आज-जैसी शुद्ध .
और निश्चित नहीं थी । जो कुछ मिलता असे ही शायद लोग स्वराज्य समझकर ले लेते और बड़ी राजनीतिक प्रगति मान लेते।) लेकिन बापूके -सामने हमारे राजनैतिक चारित्र्यका प्रश्न था। मुसलमानोंको साथ दिया, सुनका दुःख अपना दुःख बनाया और अब अपनी चीज मिलते ही सुनका हाथ छोड़ देना यह तो दगाबाजी कहलाती । अिस तरह दगाबाजी करके जो भी मिले वह बापूकी नजरमें मलिन ही था। अिसीलिओ अपना शुद्ध निर्णय वाअिसरायको कहते अन्हें तनिक भी संकोच नहीं हुआ ।
४७ । चि० चन्दनकी मेरे लड़केके साथ शादी तय हुओ थी। वह आक्सफोर्ड में पढ़ता था और चन्दन अपनी अमेरिकाकी पढ़ाी पूरी करके हिन्दुस्तान लौटी थी। वह वर्धा आयी । बापू कहने लगे-'यह चन्दन तो अंग्रेजी सीखकर विदुषी होकर आयी है। यह क्या काम की ? असे हिन्दी तो आती ही नहीं । शादी होनेके बाद क्या पढेगी! अभीसे असे हिन्दी सिखानेका कुछ प्रबन्ध करना चाहिये ।' हम दोनोंने
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तय किया कि असे देहरादून कन्या गुरुकुलमे भेज दें। पूज्य बाको वहाँ अत्सवके निमित्त जाना ही था। मुझे भी अन्होंने बुलाया था। हम चन्दनको साथ ले गये। वहाँके लोगोंने असे हिन्दी पढ़ानेका प्रबन्ध किया
और बदलेमे अससे पानेका काम भी लिया। वह बोस्टन विश्वविद्यालयकी सोगियॉलाजी (समाजशास्त्र) मे अम० अ० थी। जितनेमे बापूका राजकोटका सत्याग्रह शुरू हुआ । चन्दन काठियावाड़की लड़की ठहरी । अससे कैसे रहा जा सकता था। वह सत्याग्रहमें गरीक होनेके लिओ देहरादूनसे राजकोट गयी। मितनेमें समझौता होकर सत्याग्रह स्थगित हो गया और बापू वर्धा आ गये । चन्दन राजकोटमे कुछ बीमार हो गयी।
वर्धा चन्दनका पत्र आया कि मैं बीमार हूँ। अस दिन बापू वर्धासे वम्बी जा रहे थे । मैं बापूको पहुँचाने स्टेशन पर गया था। मैंने चन्दनके बीमार होनेकी बात सुनायी । बापू तफसील पूछने लगे । मैंने चन्दनका पत्र ही सुनके हाथमें दे दिया । स्टेशन पर भीड़ होनेके कारण वे असे पढ़ न सके, साथ ही ले गये ।।
दूसरे दिन सुबह बम्बी पहुँचनेके पहले ही उन्होंने चन्दनको अक तार भेजा जिसमे क्या दवा करनी चाहिये, किन बातोंकी संभाल रखनी चाहिये, सब कुछ लिखा था । और तुरन्त अहमदाबाद जाकर अमुक वैद्यकी दवा लेनेकी सूचना भी की थी। तार खासा १२-१५ रुपयोंका था । असे काममे चाहे जितना खर्च हो बापूको सकोच नहीं रहता है।
और जहाँ कंजूसी करने बैठते हैं। वहाँ तो पानी पानीकी काट कसर करते हैं।
४८ अक समय वापू दार्जिलिंगमे थे । बंगालमें प्रान्तीय परिषद् होनेवाली थी । असमे चित्तरंजन दासका किसी पक्षसे बड़ा विरोध होनेवाला था। अन्होंने वापूको भुपस्थित रहनेके लिो कहा था। बापूने स्वीकार भी किया था।
निश्चित समय पर बापू दार्जिलिंगसे निकलनेके लिो प्रस्तुत हुमे । (बापूकी गफलत नहीं थी, मोटरकी कोजी गड़बड़ी हुी होगी या क्या,
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मुझे ठीक याद नहीं है।) लेकिन स्टेशन पर पहुंचे तो देखा कि मेल चली गयी है। अब क्या किया जाय ? बापूने सोचा यह अच्छा नहीं हुआ । अन्होंने तुरन्त रेलवे स्टेशनसे ही तार भेजकर अक स्पेशल ट्रेन मँगवायी और चले। जिसमें कुछ समय तो लगा ही । अधर जहाँ कान्फरेन्स होनेवाली थी, वहाँ लोग स्टेशन पर बापूको लेने गये थे। अन्होंने देखा बापू डाकगाड़ीमें नहीं है। दासबाबू बड़े मायूस हो गये थे। वह स्वाभाविक भी था।
कान्फरेन्सकी कार्रवामी शुरू हो गयी थी। अितनेमें पंडालके सामने ही रेलवे लाअिन पर स्पेशल ट्रेन आकर खड़ी हो गयी। बापू अतरे । बापूको देखकर दासबाबकी आँखोंमें ऑसू भर आये। विरोध हवा हो गया । और अस दिनका काम कल्पनातीत सफलतासे सम्पन्न हुआ।
यह तो हुी बड़ोंकी बात ।
अक समय हम मद्रासकी ओर खादी दौरेमें धूम रहे थे । शायद कालीकट पहुंचे थे । वहाँसे अत्तरकी ओर नीलेश्वर नामक अक छोटा-सा केन्द्र है । वहाँ मेरा अक विद्यार्थी बड़ी ही प्रतिकूल परिस्थितिमें खादीका कार्य करता था । असे बापूके आगमनकी आशा थी। असने स्वागतकी तैयारी भी की थी। पर कार्यक्रममें कुछ असी बाधा पड़ी कि नीलेश्वरका कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा । बापूसे यह सहा न गया। कहने लगे'बेचारा कितनी श्रद्धासे काम कर रहा है, अक कोनेमें पड़ा है, किसीकी सहानुभूति नहीं । वहाँ तो मुझे जाना ही चाहिये ।' बापूका स्वास्थ्य भी सुन दिनों अच्छा नहीं था । राजाजीने बताया कि किसी भी सूरतसे नीलेश्वर जाना सम्भव नहीं है । बापूने झुत्तेजित होकर कहा - 'सम्भव क्यों नहीं है ? स्पेशल ट्रेनका प्रबन्ध करो । अस लड़केकी श्रद्धाकी मुझे कीमत है ।' राजाजी खर्च करनेके लिअ तैयार थे, किन्तु बापूको काफी कष्ट होनेका डर था । अनके स्वास्थ्यको भी खतरा था । राजाजी बापूको समझानेकी कोशिश करने लगे । महादेवभाजीने भी समझाया । अन्तमें मैंने कहा- "राजाजीकी बात मुझे भी ठीक लगती है । मैं अस
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७३ यरवडा जेलमें हम शामको टहल रहे थे । किसी सिलसिलेमें बापू कहने लगे-'कोी विषय सामने आते ही आजकल तो मुझे अस पर लिखनेमें देर नहीं लगती । लेकिन जिसका मतलब यह नहीं कि जिसके लिओ मैंने साधना नहीं की । दक्षिण अफ्रीकामें अक साथीको कानूनके अिम्तिहानमें बैठना था। असके पास न काफी समय था न शक्ति । मैं असके लिओ डच लॉके नोट्स निकालता और रोज पैदल असके घर जाकर असे कानून सिखाता था। अिधर मेरे मुकदमे भी अिस तरह तैयार करके कोर्टमें ले जाता था कि मानो मुझे आज अिम्तिहानमें बैठना हो ।'
अिसके पहले मैंने श्री मगनलालभाीके मुंहसे सुना था कि दक्षिण अफ्रीकामे अक वक्त अक मुसलमान बटलरने बापूसे आकर कहा कि यदि मुझे अग्रेजी आती होती तो अच्छी तनख्वाह मिल जाती। आजकी तनख्वाहमें मेरा पूरा नहीं पड़ता। बस, बापूने तो असे अग्रेजी सिखानेकी तैयारी कर ली। अिस पर वह कहने लगा कि 'आप तो तैयार हो गये, यह आपकी मेहरबानी है । लेकिन मैं नौकरी करूँ या आपके पास अग्रेजी सीखने आy?' अिसका अिलाज भी बापूने देव निकाला । रोज 'चार मील पैदल जाकर असके घर झुसे अग्रेजी पढ़ाने लगे ।
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७४ साल तो ठीक याद नहीं । मैं चिंचवडसे लोटा था। वापूकी आत्मकथा 'नवजीवन में प्रकरणशः प्रकाशित हो रही थी। उसके बारेमें चर्चा चली । मैंने कहा- 'आपकी आत्मकथा' तो विश्व-साहित्यमें अक अद्वितीय वस्तु गिनी जायगी । लोग तो अभीसे असे यह स्थान देने लगे हैं । लेकिन मुझे उससे पूरा सन्तोष नहीं हुआ। युवावस्थामें जब मनुष्यको अपने जीवनके आदर्श तय करने पड़ते हैं, अपने लिओ कोनसी लाअिन अनुकूल होगी मिस चिन्तामें वह जब पड़ता है, तब मनका मन्थन महासग्रामसे कम नहीं होता । अस कालमें की परस्पर विरोधी आदर्श भी अक-से आकर्षक दिखाी देते हैं । मैं आपकी 'आत्मकथा 'मे असे मनोमन्थन देखना चाहता था। लेकिन वैसा कुछ नहीं दिख पड़ता। अंग्रेजोंको देशसे भगानेके लिओ आप मांस तक खानेको तैयार हो गये। अिस अक सिरेकी भूमिकासे अहिंसाकी दूसरे सिरेकी भूमिका पर आप कैसे आये, यह सारी गढ़मथन आपने कहीं नहीं लिखी।"
मिस पर वापूने जवाब दिया - 'मैं तो अकमार्गी आदमी हूँ। तुम कहते हो वैसा मन्थन मेरे मनमें नहीं चलता । कैसी भी परिस्थिति सामने आवे, अस वक्त मै अितना ही सोचता हूँ कि असमें मेरा कर्तव्य क्या है। वह तय हो जाने पर मैं असमें लग जाता हूँ। यह तरीका है मेरा।'
तब फिर मैंने दूसरा प्रश्न पूछा - सामान्य लोगोंसे मैं कुछ भिन्न हूँ, मेरे सामने जीवनका अक मिशन है ।' जैसा भान आपको कबसे हुआ? क्या हामीस्कूलमें पढ़ते थे तब कभी आपको जैसा लगा था कि में सब जैसा नहीं हूँ?"
मेरे प्रश्नकी ओर शायद बापने ध्यान नहीं दिया होगा । अन्होंने अितना ही कहा - 'वेशक, हामीस्कूलमे मैं अपने क्लासके लड़कोंका अगुवा बनता था।'
अितनेमें कोसी आ गया और यह महत्वका प्रश्न असा ही रह गया ।
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'आत्मकथा के बारेमें ही फिर अक दफे मैंने चर्चा करते हुओ कहा'बापूजी, आपने 'आत्मकथा में बहुत ही कंजूसी की है। कितनी ही अच्छी बातें छोड़ दीं । जहाँ आपने 'आत्मकथा' पूरी की है, असके आगे की बातें आप शायद ही लिखेंगे । अगर छूटी हुभी बातें लिख दें, तो 'आत्मकथा' जैसा ही अक और बडा समान्तर अन्य तैयार हो जाय । बापू कहने लगे-'असा थोड़ा ही है कि सब बातें मैं ही लिखू । जो तुम जानते हो तुम लिखो।'
मैंने कहा- 'कहीं कहीं तो जैसा मालूम होता है कि आपने जानबूझकर बातें छोड़ दी हैं। अपने विरुद्ध बातें तो आपने मानो चाक्से लिखी हैं । लेकिन औरोंके बारेमें जैसा नहीं किया। जैसे दक्षिण अफ्रीकामें आपके घर पर रहते हुओ, आपकी अनुपस्थितिमें आपका मित्र अक वेश्या ले आया था, भुसका वर्णन तो ठीक है। लेकिन यह नहीं लिखा कि यह व्यक्ति वही मुसलमान था जिसने हामीस्कूलके दिनोंमें आपको मांस खानेकी ओर प्रवृत्त किया था और जिसके कारण आपने घरमें चोरी की थी।'
बापूने कहा- 'तुम्हारी बात ठीक है । यह मैंने जानबूझकर ही नहीं लिखा । मुझे तो 'आत्मकथा' लिखनी थी। असमें अिस बातका जिक्र जरूरी नहीं था । दूसरी बात यह है कि वह आदमी अभी जीवित है । कुछ लोग असका मेरा सम्बन्ध जानते भी हैं। दोनों प्रसंग ओक होनेसे असके प्रति अन लोगोंके मनमें घृणा बढ़ सकती है।'
हर मनुष्यके लिओ बापूके मनमें कितना कारुण्य है, यह देखकर मुझे अक पुरानी बातका स्मरण हो आया :
बनारस हिन्दू युनिवर्सिटीवाले बापूके भाषणके बाद, अखबारोंमें बापू और श्रीमती बेसंटके बारेमें बड़ी लम्बी-चौडी और तीखी चर्चा चल पड़ी थी। असी सिलसिलेमें बम्बीके अिण्डियन सोशल रिफार्मरमें श्री नटराजन्ने बापूके बारेमें लिखा था Every one's honour is safe in his hands - argo Tent repellant 'भिज्जवको खतरा नहीं है।
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बापूके चरित्रका यह पहलू नटराजन्ने ही भैसे सुन्दर शब्दोंमें व्यक्त किया है ।
fret प्रसके साथ अक और प्रसग याद आता है.
अक प्रमुख मुस्लिम कार्यकर्ता के बारेमें बातें चल रही थीं। मैंने rus किसी सार्वजनिक अनुचित व्यवहारका जिक्र किया। बापूने दुःखके साथ कहा - ' तबसे असकी मेरे पास पहले जैसी कीमत नहीं रही। लेकिन अससे क्या ? असका कुछ नुकसान नहीं होगा । मेरे मनमें किसीकी कीमत बढ़ी तो क्या और घटी तो क्या ? मेरा प्रेम थोड़े ही कम होनेवाला है । '
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१९२६-२७ की बात है । खादीदौरा पूरा करके बापू अडीसा पहुँचे । वहाँ हम लोग अटामाटी नामके अक गाँवमें पहुँचे । बापूका व्याख्यान हुआ । फिर लोग अपनी अपनी भेंट और चन्दा लेकर आये कोभी कुम्हड़ा लाया, कोभी विजौरा (विजपुर, मातुलिंग) लाया, कोभी बैंगन लाया और कोओ जंगलकी भाजी । कुछ गरीबोंने अपने चीथड़ोंसे छोड़ छोड़कर कुछ पैसे भी दिये । समामें घूम घूमकर मैं पैसे अिकट्ठे कर रहा था । पैसोंके जगसे मेरे हाथ हरे हरे हो गये थे। मैंने बापूको अपने हाथ दिखाये । मुझसे बोला न गया। दूसरे दिन सुबह बापूके साथ घूमने निकला । रास्ता छोड़कर हम खेतोंमें घूमने चले | तब बापू कहने लगे ८ कितना दारिद्र्य और दैन्य है यहाँ ! क्या किया जाय भिन लोगोंके लिये ? जी चाहता है कि मेरी मरणकी घड़ीमे झुदीसामें आकर जिन लोगों के बीच मरूँ । अस समय जो लोग मुझे यहाँ मिलने आयेंगे, वे तो जिन लोगोंकी करुण दशा देखेंगे । किसी न किसीका तो हृदय पसीनेगा और वह अिनकी सेवाके लिये आकर यहाँ स्थायी हो जायगा । " जिस पर मैं क्या कह सकता था ! झुनकी अिस पवित्र भावनाका धन्य साक्षी ही हो सका ।
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अिसी दौरेमें हम चारबटिया पहुंचे । वहाँ भी जैसी अक सभा हुी। मैं खयाल करता था कि पीटामाटीसे बढ़कर करुण दृश्य कहीं नहीं होगा । लेकिन चारबटियाका तो अससे भी बढ़ गया । लोग आये थे तो थोड़े, लेकिन जितने भी थे अनमेंसे किसीके मुँह पर चैतन्य नहीं दिखाी देता था। प्रेत-जैसी शून्यता थी ।
यहाँ पर भी बापने पैसेके लिओ अपील की। लोगोंने भी कुछ न कुछ निकालकर दिया ही । मेरे हाथ वैसे ही हरे हो गये ।
भिन लोगोंने रुपये तो कभी देखे ही नहीं थे। ताँबेके पैसे ही सुनका बड़ा धन था। कोी पैसा हाथमें आ गया, तो असे खर्च करनेकी ये कभी हिम्मत ही नहीं कर पाते थे। बहुत दिन तक बॉधे रखनेसे या जमीनमें गाड़नेके कारण सुन पर जंग चढ़ जाता था ।।
____ मैंने बापूसे कहा-'अिन लोगोंसे जैसे पैसे लेकर क्या होगा?' बापूने कहा-'यह तो पवित्र दान है। यह हमारे लिओ दीक्षा है। अिसके द्वारा यहाँकी निराश जनताके हृदयमें भी आशाका अंकुर झुगा है। यह पैसा झुस आशाका प्रतीक है। ये मानने लगे हैं कि हमारा भी अद्धार होगा।'
वह स्थान और दिन याद रहनेका अक कारण और भी हुआ। रातको हम वहीं सोये । दूसरे दिन सूर्योदय अितना सुन्दर था कि बापूने मुझे देखनेको बुलाया । फिर मुझे पूछने लगे- 'तुम तो (गुजरात) विद्यापीठकी हालत जानते हो । अगर मैं उसका चार्ज तुम्हें दे दूं तो लोगे?' मैंने कहा- 'बापूजी, विद्यापीठकी हालत जितनी आप जानते हैं, अससे अधिक मैं जानता हूँ । सवाल पेचीदा हो गया है। लेकिन कमसे-कम किसी अक बातमें आपको निश्चित करनेके लिओ मैं असका चार्ज लेनेको तैयार हूँ।' बापूने कहा- किसी डॉक्टरके पास जब कोी मरीज आता है, तब वह जैसी भी हालतमें हो डॉक्टर असकी चिकित्सा करनेसे
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अिनकार नहीं कर सकता । डॉक्टर यह तो कह ही नहीं सकता कि जिसके बचनेकी खातरी हो, असी रोगोकी में चिकित्सा करूँगा।'
मैंने कहा - 'तिनी खराब हालत नहीं है। मैं जरूर विद्यापीठको अच्छे पाये पर ला दूंगा, और धीमे धीमे असे ग्रामोन्मुख भी कर दूंगा।'
जब मैंने विद्यापीठका चार्ज लिया, तो असके अभ्यास-क्रममें खादी, वही-काम आदि तो शुरू किये ही, साथ ही 'ग्राम-सेवा-दीक्षित' की नयी अपाधि स्थापित करके असके लि भी विद्यार्थी तैयार किये । श्री बबलभाभी मेहता और झवेरभाजी पटेल असी ग्रामसेवा मन्दिरके आदि-दीक्षित हैं । सब जानते ही हैं कि जिन दोनोंने ग्रामसेवाका काम कैसा अच्छा चलाया है। बबलमामीने अपने जो अनुभव 'मारू गामई'
(मेरा गाँव) नामक कितावमें दिये हैं, वे किसी अपन्यास-जैसे । रोमांचकारी मालूम होते है ।
७८ हिन्दुस्तान लौटे बापूको बहुत दिन नहीं हुझे थे। किसी कारण वश सुन्हें बम्बी जाना पड़ा। वहाँ बुखार आ गया। वे रेवाशकरभाभीके मणिमुवनमें ठहरे थे। वहाँ महादेवमामी सुनकी सेवामे थे । अक दिन बुखार अितना चढ़ा कि सन्निपात हो गया । रातको महादेवभाजीको जगाकर कहने लगे- 'महादेव, ये बगाली लोग कलकत्तेमें कालीके नामसे कालीघाटके मन्दिरमें पशु-इत्या करते हैं। जिन्हें कैसे समझाया जाय कि यह धर्म नहीं, महा अधर्म है ? चल, हम दोनों जाकर सत्याग्रह करें, अन्हें रोकें। फिर चिढ़े हुझे बंगाली ब्राह्मण वहाँ हम पर टूट पड़ेंगे
और हमारे टुकड़े टुकड़े कर डालेंगे। जिस पशु-हत्याको रोकनेमें यदि हमारे प्राण चले जायँ तो क्या बुरा है ?'
यह बात मैंने महादेवमाीके मुंहसे ही सुनी है ।
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मद्रासका सन् १२६ का कांग्रेस अधिवेशन था। हम श्री श्रीनिवास अय्यगारजीके मकान पर ठहरे थे । वे हिन्दू-मुस्लिम अकताके निस्वत अक मसविदा तैयार करके बापूकी सम्मतिके लिओ लाये । सुन दिनों बापू देशकी राजनीतिसे निवृत्त-से हो गये थे। वे अपनी सारी शक्ति खादी कार्यमें ही लगाते थे। वह मसविदा अनके हाथमें आया, तो वे कहने लगे-'किसीके भी प्रयत्नसे और कैसी भी शर्त पर हिन्दू-मुस्लिम समझौता हो जाय तो मंजूर है । मुझे जिसमें क्या दिखाना है?' फिर भी वह मसविदा बापूको दिखाया गया । अन्होंने सरसरी निगाइसे देखकर कहा-'ठीक है।'
शामकी प्रार्थना करके बापू जल्दी सो गये । सुबह बहुत जल्दी झुठे । महादेवमामीको जगाया । मैं भी जग गया । कहने लगे'बड़ी गलती हो गयी । कल शामका मसविदा मैंने ध्यानसे नहीं पड़ा । यों ही कह दिया कि ठीक है। रातको याद आयी कि असमें मुसलमानोंको गोवध करनेकी आम अिजाजत दी गयी है और हमारा गौरक्षाका सवाल यों ही छोड़ दिया गया है । यह मुझसे कैसे बरदाश्त होगा ? वे गायका वध करें, तो हम अन्हें जबरदस्ती तो नहीं रोक सकते । लेकिन अनकी सेवा करके तो अन्हे समझा सकते हैं न ? मैं तो स्वराज्यके लिओ भी गौरक्षाका आदर्श नहीं छोड़ सकता। उन लोगोंको अभी जाकर कह आओ कि वह समझौता मुझे मान्य नहीं है । नतीजा चाहे जो कुछ भी हो, किन्तु मैं बेचारी गायोंको जिस तरह छोड़ नहीं सकता।' __सामान्य तौर पर कैसी भी हालतमें बापकी आवाजमें क्षोभ नहीं रहता, वे शान्तिसे ही बोलते हैं । लेकिन सूपरकी बातें बोलते समय वे अत्तेजित-से मालूम होते थे। मैंने मनमें कहा- अहो बत महत्पापं कर्तु व्यवसिता वयं । यद्राज्यलाभलोभेन गां परित्यक्तुमुद्यताः ॥' बापूकी हालत जैसी ही थी।
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मिसेस अनी बेसेन्टने होमरूल लीगकी स्थापना की और हिन्दुस्तान में राजनीतिक आन्दोलन जोरोंसे चलाया | सरकारने अन्हें नजरकैद कर दिया | अब असके लिये क्या किया जाय, यह सोचनेके लिये श्री शकरलाल कर बापूके पास आये । चापूने अन्हें सत्याग्रहकी सिफारिश करनेवाला पत्र लिखा । वह पत्र श्री शंकरलालभाभीने प्रकाशित कर दिया और सत्याग्रहकी तैयारी की। यह सब देखकर सरकारने मिसेस अनी बेसेन्टको मुक्त कर दिया । फिर तो आन्दोलनका रूप ही बदल गया । असहयोगके दिन आ गये । मिसेस अनी बेसेन्टने 'न्यू भिण्डिया' नामक अंक अंग्रेजी दैनिक पत्र चलाया । असमे बापूके खिलाफ रोज कुछ न कुछ लिखा जाने लगा । अक दिन असमें बहुत ही खराब लेख आया । मैंने बापूसे पूछा 'कलके 'न्यू अिण्डिया ' का लेख आपने पहा है १' बाप्पू कहने लगे - 'मैंने
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'न्यू भिण्डिया' पढना कबसे छोड़ दिया है। जब तक कोभी खास दलील वाले लेख आते थे, मैं असे पढ़ता था । लेकिन जब देखा कि असमें मुझपर व्यक्तिगत टीका ही होने लगी है, तो मैंने पढ़ना छोड़ दिया । व्यक्तिगत टीका सुननेसे असका मन पर कुछ न कुछ असर होनेकी सम्भावना रहती है। पढ़ा ही नहीं, तो मनका सद्भाव जैसाका तैसा रहता है । अब यदि मैं मिसेस् बेसेन्टसे मिला तो मेरे मन में अनके प्रति जो आदरभाव है, भुसमें • कमी नहीं होगी ।
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आश्रमकी स्थापनाके दिन थे । हम कोचरबके बंगले में रहते थे । reat संस्थाके लिये धन भिकट्ठा करनेके लिये प्रोफेसर कर्वे अहमदाबाद आये थे । वे बापूसे मिलने आश्रममे आये ।
बापूने सब आश्रमवासियोंको अिकट्ठा किया और सबको झुन्हें साष्टांग नमस्कार करनेके लिये कहा । फिर समझाने लगे 'गोखलेजी दक्षिण
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________________ अफ्रीकामें आये थे, तब मैंने अनसे पूछा था कि आपके प्रान्तमें सत्यनिष्ट लोग कौन कौन हैं ? अन्होंने कहा था कि मैं अपना नाम तो दे ही नहीं सकता / मैं कोशिश तो करता हूँ कि सत्य पथ पर ही चले, लेकिन राजनीतिके मामलेमें कभी कभी असत्य मुँहसे निकल ही जाता है। मैं जिनको जानता हूँ, अनमें तीन आदमी पूरे पूरे सत्यवादी हैं : अक प्रोफेसर कर्वे, दूसरे शकंरराव लवाटे (ये मद्य-निषेधका कार्य करते थे।) और तीसरे . . . / ' आगे बोले - 'सत्यनिष्ठ लोग हमारे लिओ तीर्थ-जैसे हैं / सत्याग्रह आश्रमकी स्थापना सत्यकी अपासनाके लिओ ही है / जैसे आश्रममें कोसी सत्यनिष्ठ मूर्ति पधारे, तो हमारे लिअ वह मंगल दिन है।' बेचारे कर्वे तो गद्गद हो गये / कुछ जवाब ही नहीं दे सके / कहने लगे-'गांधीजी, आपने मुझे अच्छा झेपाया। आपके सामने मैं कौन चीज हूँ?' सन् '३०में मैं. यरवडा जेलमें बापूके साथ रहनेके लिऔ भेजा पया / मैं अपने साथ काफी पूनिया ले गया था। वहाँ मुझे पाँच महीनेसे ज्यादा नहीं रहना था / मेरी पूनियाँ अितनी थीं कि पाँच महीने मुझे बाहरसे मँगवानेकी जरूरत नहीं रहती / लेकिन हुआ यह कि कुछ ही दिनोंमें सरकारने श्री वल्लभभाभीको भी यरवडा जेलमें लाकर रख दिया। शुनके और हमारे बीच थी तो सिर्फ अक ही दीवाल; लेकिन हम मिल नहीं सकते थे / बापूको भिसका बहुत ही बुरा लगता / कहते -- 'यह सरकार कैसी तंग कर रही है! वल्लभभासीको साबरमतीसे यहाँ ले आयी / हम उनकी आवान भी कभी कभी सुन सकते हैं, किन्तु मिल नहीं सकते / सरकारको अिसमें क्या मजा आता होगा ?' जो लोग बापूको दूरसे ही देखते हैं, वे अनकी धीरोदात्तता ही देख सकते है / सुनका प्रेम कितना अत्कट है और असपर आघात लगनेसे वे कितने घायल होते हैं, यह तो बाहरके लोग नहीं जान सकते। बापू जब 100