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अिनकार नहीं कर सकता । डॉक्टर यह तो कह ही नहीं सकता कि जिसके बचनेकी खातरी हो, असी रोगोकी में चिकित्सा करूँगा।'
मैंने कहा - 'तिनी खराब हालत नहीं है। मैं जरूर विद्यापीठको अच्छे पाये पर ला दूंगा, और धीमे धीमे असे ग्रामोन्मुख भी कर दूंगा।'
जब मैंने विद्यापीठका चार्ज लिया, तो असके अभ्यास-क्रममें खादी, वही-काम आदि तो शुरू किये ही, साथ ही 'ग्राम-सेवा-दीक्षित' की नयी अपाधि स्थापित करके असके लि भी विद्यार्थी तैयार किये । श्री बबलभाभी मेहता और झवेरभाजी पटेल असी ग्रामसेवा मन्दिरके आदि-दीक्षित हैं । सब जानते ही हैं कि जिन दोनोंने ग्रामसेवाका काम कैसा अच्छा चलाया है। बबलमामीने अपने जो अनुभव 'मारू गामई'
(मेरा गाँव) नामक कितावमें दिये हैं, वे किसी अपन्यास-जैसे । रोमांचकारी मालूम होते है ।
७८ हिन्दुस्तान लौटे बापूको बहुत दिन नहीं हुझे थे। किसी कारण वश सुन्हें बम्बी जाना पड़ा। वहाँ बुखार आ गया। वे रेवाशकरभाभीके मणिमुवनमें ठहरे थे। वहाँ महादेवमामी सुनकी सेवामे थे । अक दिन बुखार अितना चढ़ा कि सन्निपात हो गया । रातको महादेवभाजीको जगाकर कहने लगे- 'महादेव, ये बगाली लोग कलकत्तेमें कालीके नामसे कालीघाटके मन्दिरमें पशु-इत्या करते हैं। जिन्हें कैसे समझाया जाय कि यह धर्म नहीं, महा अधर्म है ? चल, हम दोनों जाकर सत्याग्रह करें, अन्हें रोकें। फिर चिढ़े हुझे बंगाली ब्राह्मण वहाँ हम पर टूट पड़ेंगे
और हमारे टुकड़े टुकड़े कर डालेंगे। जिस पशु-हत्याको रोकनेमें यदि हमारे प्राण चले जायँ तो क्या बुरा है ?'
यह बात मैंने महादेवमाीके मुंहसे ही सुनी है ।
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