Book Title: Mahatma Pad Vachi Jain Bramhano ka Sankshipta Itihas
Author(s): Vaktavarlal Mahatma
Publisher: Vaktavarlal Mahatma

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Page 88
________________ | ভ9 अिसी दौरेमें हम चारबटिया पहुंचे । वहाँ भी जैसी अक सभा हुी। मैं खयाल करता था कि पीटामाटीसे बढ़कर करुण दृश्य कहीं नहीं होगा । लेकिन चारबटियाका तो अससे भी बढ़ गया । लोग आये थे तो थोड़े, लेकिन जितने भी थे अनमेंसे किसीके मुँह पर चैतन्य नहीं दिखाी देता था। प्रेत-जैसी शून्यता थी । यहाँ पर भी बापने पैसेके लिओ अपील की। लोगोंने भी कुछ न कुछ निकालकर दिया ही । मेरे हाथ वैसे ही हरे हो गये । भिन लोगोंने रुपये तो कभी देखे ही नहीं थे। ताँबेके पैसे ही सुनका बड़ा धन था। कोी पैसा हाथमें आ गया, तो असे खर्च करनेकी ये कभी हिम्मत ही नहीं कर पाते थे। बहुत दिन तक बॉधे रखनेसे या जमीनमें गाड़नेके कारण सुन पर जंग चढ़ जाता था ।। ____ मैंने बापूसे कहा-'अिन लोगोंसे जैसे पैसे लेकर क्या होगा?' बापूने कहा-'यह तो पवित्र दान है। यह हमारे लिओ दीक्षा है। अिसके द्वारा यहाँकी निराश जनताके हृदयमें भी आशाका अंकुर झुगा है। यह पैसा झुस आशाका प्रतीक है। ये मानने लगे हैं कि हमारा भी अद्धार होगा।' वह स्थान और दिन याद रहनेका अक कारण और भी हुआ। रातको हम वहीं सोये । दूसरे दिन सूर्योदय अितना सुन्दर था कि बापूने मुझे देखनेको बुलाया । फिर मुझे पूछने लगे- 'तुम तो (गुजरात) विद्यापीठकी हालत जानते हो । अगर मैं उसका चार्ज तुम्हें दे दूं तो लोगे?' मैंने कहा- 'बापूजी, विद्यापीठकी हालत जितनी आप जानते हैं, अससे अधिक मैं जानता हूँ । सवाल पेचीदा हो गया है। लेकिन कमसे-कम किसी अक बातमें आपको निश्चित करनेके लिओ मैं असका चार्ज लेनेको तैयार हूँ।' बापूने कहा- किसी डॉक्टरके पास जब कोी मरीज आता है, तब वह जैसी भी हालतमें हो डॉक्टर असकी चिकित्सा करनेसे

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