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मद्रासका सन् १२६ का कांग्रेस अधिवेशन था। हम श्री श्रीनिवास अय्यगारजीके मकान पर ठहरे थे । वे हिन्दू-मुस्लिम अकताके निस्वत अक मसविदा तैयार करके बापूकी सम्मतिके लिओ लाये । सुन दिनों बापू देशकी राजनीतिसे निवृत्त-से हो गये थे। वे अपनी सारी शक्ति खादी कार्यमें ही लगाते थे। वह मसविदा अनके हाथमें आया, तो वे कहने लगे-'किसीके भी प्रयत्नसे और कैसी भी शर्त पर हिन्दू-मुस्लिम समझौता हो जाय तो मंजूर है । मुझे जिसमें क्या दिखाना है?' फिर भी वह मसविदा बापूको दिखाया गया । अन्होंने सरसरी निगाइसे देखकर कहा-'ठीक है।'
शामकी प्रार्थना करके बापू जल्दी सो गये । सुबह बहुत जल्दी झुठे । महादेवमामीको जगाया । मैं भी जग गया । कहने लगे'बड़ी गलती हो गयी । कल शामका मसविदा मैंने ध्यानसे नहीं पड़ा । यों ही कह दिया कि ठीक है। रातको याद आयी कि असमें मुसलमानोंको गोवध करनेकी आम अिजाजत दी गयी है और हमारा गौरक्षाका सवाल यों ही छोड़ दिया गया है । यह मुझसे कैसे बरदाश्त होगा ? वे गायका वध करें, तो हम अन्हें जबरदस्ती तो नहीं रोक सकते । लेकिन अनकी सेवा करके तो अन्हे समझा सकते हैं न ? मैं तो स्वराज्यके लिओ भी गौरक्षाका आदर्श नहीं छोड़ सकता। उन लोगोंको अभी जाकर कह आओ कि वह समझौता मुझे मान्य नहीं है । नतीजा चाहे जो कुछ भी हो, किन्तु मैं बेचारी गायोंको जिस तरह छोड़ नहीं सकता।' __सामान्य तौर पर कैसी भी हालतमें बापकी आवाजमें क्षोभ नहीं रहता, वे शान्तिसे ही बोलते हैं । लेकिन सूपरकी बातें बोलते समय वे अत्तेजित-से मालूम होते थे। मैंने मनमें कहा- अहो बत महत्पापं कर्तु व्यवसिता वयं । यद्राज्यलाभलोभेन गां परित्यक्तुमुद्यताः ॥' बापूकी हालत जैसी ही थी।