Book Title: Mahatma Pad Vachi Jain Bramhano ka Sankshipta Itihas
Author(s): Vaktavarlal Mahatma
Publisher: Vaktavarlal Mahatma

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Page 85
________________ ७४ साल तो ठीक याद नहीं । मैं चिंचवडसे लोटा था। वापूकी आत्मकथा 'नवजीवन में प्रकरणशः प्रकाशित हो रही थी। उसके बारेमें चर्चा चली । मैंने कहा- 'आपकी आत्मकथा' तो विश्व-साहित्यमें अक अद्वितीय वस्तु गिनी जायगी । लोग तो अभीसे असे यह स्थान देने लगे हैं । लेकिन मुझे उससे पूरा सन्तोष नहीं हुआ। युवावस्थामें जब मनुष्यको अपने जीवनके आदर्श तय करने पड़ते हैं, अपने लिओ कोनसी लाअिन अनुकूल होगी मिस चिन्तामें वह जब पड़ता है, तब मनका मन्थन महासग्रामसे कम नहीं होता । अस कालमें की परस्पर विरोधी आदर्श भी अक-से आकर्षक दिखाी देते हैं । मैं आपकी 'आत्मकथा 'मे असे मनोमन्थन देखना चाहता था। लेकिन वैसा कुछ नहीं दिख पड़ता। अंग्रेजोंको देशसे भगानेके लिओ आप मांस तक खानेको तैयार हो गये। अिस अक सिरेकी भूमिकासे अहिंसाकी दूसरे सिरेकी भूमिका पर आप कैसे आये, यह सारी गढ़मथन आपने कहीं नहीं लिखी।" मिस पर वापूने जवाब दिया - 'मैं तो अकमार्गी आदमी हूँ। तुम कहते हो वैसा मन्थन मेरे मनमें नहीं चलता । कैसी भी परिस्थिति सामने आवे, अस वक्त मै अितना ही सोचता हूँ कि असमें मेरा कर्तव्य क्या है। वह तय हो जाने पर मैं असमें लग जाता हूँ। यह तरीका है मेरा।' तब फिर मैंने दूसरा प्रश्न पूछा - सामान्य लोगोंसे मैं कुछ भिन्न हूँ, मेरे सामने जीवनका अक मिशन है ।' जैसा भान आपको कबसे हुआ? क्या हामीस्कूलमें पढ़ते थे तब कभी आपको जैसा लगा था कि में सब जैसा नहीं हूँ?" मेरे प्रश्नकी ओर शायद बापने ध्यान नहीं दिया होगा । अन्होंने अितना ही कहा - 'वेशक, हामीस्कूलमे मैं अपने क्लासके लड़कोंका अगुवा बनता था।' अितनेमें कोसी आ गया और यह महत्वका प्रश्न असा ही रह गया ।

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