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'विद्यापीठमें हरिजनको
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सन् २१ की ही बात है । अहमदाबादमे गुजरात विद्यापीठकी स्थापना हुआ । स्थापनामे मेरा काफी हाथ था। अन दिनों में दिनरात भूत- जैसा काम करता था । येक दिन विद्यापीठके नियामक मण्डलकी बैठक थी । असमें मि० अँड्रयूज भी आये थे । अन्होंने सवाल छेड़ा तो प्रवेश रहेगा न ?' मैंने तुरन्त जवाब दिया हॉ, रहेगा ।' किन्तु हमारे नियामक मuse असे लोग थे, जिनकी अस्पृश्यता दूर करनेकी तैयारी नहीं थी । हमारी सम्बद्ध सस्थाओं में अक था मॉडल स्कूल | असके संचालक fre सुधारके लिये तैयार नहीं थे । और भी लोग अपनी अपनी कठिनाजियों पेश करने लगे । अस दिन यह प्रश्न अनिश्चित ही रहा । जितना ही तय हुआ कि जिसके बारेमे बापूजी से पूछेंगे । मैं निश्चिन्त था । आखिर बापूसे पूछा गया । अन्होंने भी वही जवाब दिया जो मैंने दिया था ।
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जिस बात की चर्चा वैष्णव घनिकोंने बापूके पास आकर कहाधर्म कार्य है। हम असमें आप कहें अतने पैसे सवाल आप छोड़ दीजिये । वह हमारे समझमे नहीं आता । ' आये हुये वैष्णव कुछ पाँच सात लाख रुपये देनेकी नियतसे आये थे । बापूजीने अन्हें कहा - 'विद्यापीठ निधिकी बात तो अलग रही, कल अगर कोभी मुझे अस्पृश्यता कायम रखने की शर्त पर हिन्दुस्तानका स्वराज्य भी दे, तो असे मैं नहीं लूँगा ।' बेचारे वैष्णव धनिक जैसे आये थे वैसे ही चले गये ।
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गुजरात भरमें होने लगी । बम्बओके चन्द
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राष्ट्रीय शिक्षाका कार्य बढ़ा
सकते हैं, किन्तु हरिजनों का
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