Book Title: Mahatma Pad Vachi Jain Bramhano ka Sankshipta Itihas
Author(s): Vaktavarlal Mahatma
Publisher: Vaktavarlal Mahatma

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Page 81
________________ पंजाबका अत्याचार तो हो ही चुका था । उसके बारेमें किसीको सजा दिलानेकी शर्त भी बापूने देशको नहीं रखने दी थी। सरकार अपनी भूल स्वीकार कर लेती, तो मामला तय हो जाता । बाकी रही थीं दो बातें। खिलाफत पर वाअिसरायकी दलील थी कि यह सवाल हिन्दुस्तानका नहीं, अन्तरराष्ट्रीय राजनीतिका है। असमें कभी नाजुक बातें भरी हुभी हैं । असे छोड़ दो और केवल स्वराज्यकी बातें करो, तो आपसे समझौता हो जायगा । बापूने कहा- यह नहीं हो सकता। हिन्दुस्तानके मुसलमान हिन्दुस्तानका महत्वपूर्ण अंग हैं । झुनके दिलमें जो अन्यायकी चांट है, असके प्रति मैं अदास नहीं रह सकता ।' । अिसी पर समझौतेकी बात टूट गयी । देशके बड़े बड़े नेताओंने -खानगी बातचीतमें बापूको दोष दिया। सुनका कहना था कि खिलाफतकी बात हिन्दुस्तानकी है ही नहीं । झुसे छोड़ देते तो क्या हर्ज था । स्वराज्य तो मिल जाता! (अन दिनों स्वराज्यकी हमारी कल्पना आज-जैसी शुद्ध . और निश्चित नहीं थी । जो कुछ मिलता असे ही शायद लोग स्वराज्य समझकर ले लेते और बड़ी राजनीतिक प्रगति मान लेते।) लेकिन बापूके -सामने हमारे राजनैतिक चारित्र्यका प्रश्न था। मुसलमानोंको साथ दिया, सुनका दुःख अपना दुःख बनाया और अब अपनी चीज मिलते ही सुनका हाथ छोड़ देना यह तो दगाबाजी कहलाती । अिस तरह दगाबाजी करके जो भी मिले वह बापूकी नजरमें मलिन ही था। अिसीलिओ अपना शुद्ध निर्णय वाअिसरायको कहते अन्हें तनिक भी संकोच नहीं हुआ । ४७ । चि० चन्दनकी मेरे लड़केके साथ शादी तय हुओ थी। वह आक्सफोर्ड में पढ़ता था और चन्दन अपनी अमेरिकाकी पढ़ाी पूरी करके हिन्दुस्तान लौटी थी। वह वर्धा आयी । बापू कहने लगे-'यह चन्दन तो अंग्रेजी सीखकर विदुषी होकर आयी है। यह क्या काम की ? असे हिन्दी तो आती ही नहीं । शादी होनेके बाद क्या पढेगी! अभीसे असे हिन्दी सिखानेका कुछ प्रबन्ध करना चाहिये ।' हम दोनोंने

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