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(६२) किसने ब्रत है तो वे कहते के १२ व्रत, पांच अणुव्रत और ७ शिक्षाबत, तब वह सन्तुष्ट होता और बाद परीक्षा श्रावकों को भरतराज को दिखलाता तब भरत उनकी शुद्धि के लिये उन में कांकणी रत्न से उतरा संग की भाँति तीन रेखायें, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, के चीन्ह स्वरूप करने लगे यहाँ से जीनों पवित की उत्पति हुई और छठे महीने नये २ भावकों की परीक्षा की माकर घीन्हा किये जाते । मन्त्र के पाठ के अन्तमें महा नशक है उसके उच्चारण वार २ करने से संसार में महाना नाम से प्रसिद्ध हो गये वे अपने बालकों को साधुओं के देने लगे। उनमे से कि तनहिस्वेच्छा पूर्वक विरक्त होकर व्रत ग्रहण करने लगे और कितने ही परिषह सहन करने में असमर्थ होकर श्रावक रह गये । कांकणिरत्न से अंकित होने के कारण उन को भोजन मिलने लगा । राजा इस प्रकार भोजन देते थे तो लोग मी जीमाने लगे उनके स्वाध्याय के लिये चक्रवर्ति ने महतो की स्तुति और मुनियों तथा श्रावकों की समाचारी से पवित्र ४ वेद रचे वो पढ़ने लगे वे महाना ब्राह्मण कह लाने लगे कांकणि रला की रेखा के बदले जिनोपवित धारण करने लगे भरत राजा के पश्चात सूर्ययशा गद्दी बैठा उसने सुवर्ण मई जिनो पवित की चाल चलाई और महायशा आदि राजा के समय चांदी की जिनोपवित बादमें सुत्रकी निनोपवित धारण करने लगे । “सुर्ययशा के बाद महायशा इसके बाद अतिवल व बलभद्र बाद बलवीयं उसके बाद कीर्ति वीर्य बाद नन वीर्य
और उसके बाद दण्डवीर्य ऐसे पुरुषों तक ऐसा ही आचार ' जारी रहा इन्होंने भी इस भरतार्द्ध राज्य भोगा और इन्द्र के