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गये वरना दोनों प्रकार के गुरु श्रादि नाथ के समय से चले
आते है और अपने २ मार्ग में पुज्य है । इस इतिहास को त्रिष्टीशला का पुरुष चरित्र नामी ग्रन्थ जो कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी महाराज ने विक्रम सं. १२२० में गजा कुमार पाल के अनुरोध से रचा है उसको देखिये उसमें इसी माफिक उत्पति इस जाति की होना व पुज्यता व महत्वतों का वर्णन मिलेगा इसके सिवाय श्री मद बर्द्धमान सूरि कृत ओचार दिन कर निग्रन्थ के २४ स्तम्भ उपनयन संस्कार विधि को देखिये उसमें भी जैन ब्राह्मण माहणा की उत्पत्ति का प्रकाशन पड़ेगा भारद्वाज गौत्रिय, चन्द्रगच्छ मेणवाल अवटंकिय, महात्मा महा शय अपने आचार्य धनेश्वर सूरिजी महाराज जो गुप्त संवत ४७४ में वहत्रभीपुर के महाराज धिराज श्री शिलादीत्य जिनका नाम हाल की फहरिस्त में इतिहास वेता ध्रुव भट से सम्बोधन करते है उनके गुरुपद पर आरूढ़ होनेका इतिहास इस तरह देते है । और इनका इस संवत में विद्यमान होने के प्रमाण में एक दोहा भी प्रसिद्ध है । "संवत चार चीमोत्तरे हुआ धनेश्वर सूर । शत्रु जयमहातमरचा शिला दित्य हजुर ॥ " इनका इस संचयत में होने के विषय मे महामहोपाध्याय राय बहादुर पंडित गौरीशंकरजी श्रोमा अपने रचीत इतिहास में इस तरह शंका करते है। "धनेश्वर सूरि ने शत्रुजयमहातम बनाया था जिसमें वह अपने को वह श्रमीक राजा शिला दिस्यका गुरु बतलाता है शिला दित्य४७७ होना मानता है,परन्तु वास्तवमें यह पुस्तक विक्रय, संवत की तेहरवी शताब्दी या उसके पीछे की बनी होना चाहिये बोंकि उसमें राजा कुमारपाल का जीकर है।