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सन् १९१४ की बात है। जब दक्षिण अफ्रीकाका कार्य पूरा करके महात्माजी विलायत गये और वहॉसे हिन्दुस्तान लौटे, तब दक्षिण अफ्रीकाके अिस विजयी वैरिस्टरकी मुलाकात लेनेके लिअ अक पारसी पत्र-प्रतिनिधि बम्बीके बन्दर पर ही जाकर अन्हें मिला । मुलाकात लेनेवालोंमें सबसे प्रथम होनेकी असकी ख्वाहिश थी।
असने जो सवाल पूछा, असका जवाब देनेके पहले बापने कहा'भाभी तुम हिन्दुस्तानी हो, मैं भी हिन्दुस्तानी हूँ। तुम्हारी मादरी जबान गुजराती है, मेरी भी वही है। तब फिर मुझे अग्रेजीमे सवाल क्यों पूछते हो ? क्या तुम यह मानते हो कि चूंकि मैं दक्षिण अफ्रीकामे जाकर रह आया, अिसलिमे अपनी जन्मभाषा भूल गया हूँ या यह कि मेरे जैसे वैरिस्टरके साथ अग्रेजी ही मे बोलनेमे शान है १३
पत्र-प्रतिनिधि शर्मिन्दा हुआ या नहीं मैं नहीं जानता, किन्तु आश्चर्य चक्ति तो जरूर हुआ। उसने अपनी मुलाकातके वर्णनमें बापूके लिसी जवाबको प्रधानपद दिया था ।
असने क्या क्या सवाल पूछे और बापूने क्या जवाब दिये, सो तो मैं भूल गया हूँ। किन्तु सब लोगोंको यही आश्चर्य हुआ, और बहुतों को आनन्द भी, कि हमारे देशके नेताओंमे कमसे कम अक तो असा है, जो मातृभाषामे बोलनेकी स्वाभाविकताका महत्व जानता है ।
अस समयके अखबारोंमें यह किस्सा सब जगह छपा था।
बापू जब विलायतसे हिन्दुस्तान लौटे, तब मैं शान्तिनिकेतनमे था। अस सस्थाका अध्ययन करनेके लिओ झुसमें कुछ महीनों रहकर और