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महाबन्ध
मिथ्यादर्शन का लक्षण है- 'स्व' की सत्ता का पृथक् रूप से अनुभव में न आना और 'पर' को 'स्व' मानना। संसार में जीव और देह का संयोग है। इसलिए यह जीव मिथ्यादर्शन के प्रभाववश अपने ज्ञायक स्वभाव को भूलकर पुद्गल को 'स्व' मान रहा है। मिथ्यादर्शन का अर्थ है-विपरीत श्रद्धान। संसारी जीव की यह प्रथम भूमिका है। इसके सद्भाव में जीव की अदेव में देवबुद्धि, अगुरु में गुरुबुद्धि और अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि होती है। धर्म-अधर्म का स्वरूप भी पहिचान में नहीं आता। यह दो प्रकार से होता है। किसी जीव के निसर्ग से होता है और किसी के अन्य के उपदेश का निमित्त पाकर होता है।
विरति का अभाव अविरति है। जीव के प्रति समय हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म और अन्य वस्तु के संचय के भाव होते हैं। उसके जीवन में यह कमजोरी घर किये हुए है कि अन्य वस्तु के बिना मेरा काम नहीं चल सकता, इसलिए कभी वह अन्य जीव के वध का विचार करता है, कभी असत्य बोलता है, कभी उस वस्तु के संग्रह का भाव करता है, जिसका उसने अपने पुरुषार्थ से न्याय्यवृत्ति से अर्जन नहीं किया या जो उसे अन्य से प्राप्त नहीं हुई, कभी अन्य में रति करता है और कभी आवश्यकता से अधिक का संचय करता है।
प्रमाद का अर्थ है-अपने कर्तव्य के प्रति अनादर भाव । यह भाव स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों के विषय में तीव्र आसक्ति होने से. क्रोध-मान-माया और लोभरूप परिणाम होने से. स्त्रीकथा, राजकथा, देशकथा और भोजनकथा के निमित्त से तथा निद्रा और स्नेहवश होता है, इसलिए इसके मुख्य भेद पन्द्रह हैं।
जो आत्मा को कृश करता है, स्वरूप रति नहीं होने देता, उसे कषाय कहते हैं। कषाय के मुख्य भेद चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये भी इसी के भेद हैं। किन्तु ये ईषत् कषाय हैं, इसलिए इन्हें नोकषाय कहते हैं।
योग का अर्थ है-आत्मप्रदेशों का परिस्पन्द। यह मन, वचन और काय के निमित्त से होता है, इसलिए इसके मनोयोग, वचनयोग और काययोग ये तीन भेद हैं।
जीव की स्पन्दन क्रिया इन भावों का निमित्त पाकर कर्मबन्ध का कारण होती है, इसलिए कर्मबन्ध के हेतु रूप से इनकी परिगणना की जाती है। 'तत्त्वार्थसत्र' में कहा है
'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्धहेतवः ॥८,१॥' -मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बन्ध के हेतु हैं। प्रमाद को पृथक् न गिनकर यह बात ‘समयप्राभृत' में इन शब्दों में कही गयी है
'सामाण्णपच्चया खलु चउरो भणंति बंधकत्तारो।
मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य बोद्धव्वा ॥ १०६॥' कर्मबन्ध के कर्ता सामान्य कारण चार हैं-मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय और योग।
संसारी जीव परिणामों के अनसार कई भमिकाओं में विभक्त हैं। उनके आधार से उक्त प्रकार से बन्ध-कारणों का निर्देश किया है। प्रथम भूमिका मिथ्यादर्शन की है। यह जीव की ज्ञानचेतना के अभाव में होती है। यहाँ किसी के कर्मफल-चेतना की और किसी की कर्म-चेतना की प्रधानता देखी जाती है। इसमें बन्ध के सब हेतु पाये जाते हैं। किन्तु उनमें मिथ्यादर्शन की मुख्यता होने से यह मिथ्यादर्शन की भूमिका कहलाती है। दूसरी, तीसरी, चौथी और पाँचवीं ये अविरति की भूमिकाएँ हैं। आदि की सब भूमिकाओं में परिपूर्ण अविरति होती है और पाँचवीं भूमिका में वह आंशिक होती है। इन भूमिकाओं में मिथ्यादर्शन के सिवाय बन्ध के केवल चार हेतु होते हैं। किन्तु यहाँ अविरति की प्रधानता होने से इन्हें अविरति की भूमिका कहते हैं। छठी प्रमाद की भूमिका है। यहाँ मिथ्यादर्शन, अविरति के बिना बन्ध के तीन हेतु होते हैं। किन्तु इसमें प्रमाद की प्रधानता होने से इसे प्रमाद की भूमिका कहते हैं। सातवीं, आठवीं, नौवीं और दसवीं ये
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