Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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श पुतला विवेकहीन दुर्जन व स्वेच्छाचारी होकर 'मानव जाति की माता' का इस प्रकार अनादर १ असर मात्र रह जाता । नारी ही वह पारस-स्पर्श होने लगा और यह क्रम उत्तरोत्तर तीव्र होता चला
है जो नर लोह को स्वर्णिम कान्ति से आसमान गया । सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष तो यह रहा 37 कर देता है। डा. ऐनी बेसेंट से सर्वथा सहमत कि इसका दुष्परिणाम भोगने वाला नारी वर्ग भी
होते हुए हम कह सकते हैं-'नारी वर्ग असत् को अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सका, उसका जागरण दूर भगाकर सत् की पुनः प्रतिष्ठा करता है।' न जाने कहाँ चला गया ? स्वाधीनता और स्वाधिपुरुष वर्ग भी नारी की इस उपकार वृत्ति से सदा कार के लिये संघर्ष के स्थान पर उसने आत्मसमअनभिज्ञ रहा हो, यह नहीं कहा जा सकता, उसने र्पण कर दिया। फिर तो स्वेच्छाचारी पुरुषवर्ग की भी अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन नारी को सम्मान्य बन आयी, और उसने अपने अमानवीय स्वरूप का स्थान प्रदान कर किया था।
खुलकर परिचय दिया। नारो अबला कही ही नहीं i प्राचीनकाल में नारी को समाज में समानता ज
जाने लगी, स्वयं हो भी गई। का दर्जा प्राप्त था । मनु के अनुसार
___ मनुष्य का उत्थान तो मन्थर गति से ही होता यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः
है, किन्तु एक बार जब पतन आरम्भ हो जाता है, अर्थात्-जहाँ नारी का सम्मान किया जाता तो फिर उनकी गति तीव्र से तीव्रतर ही होती 300 है, वहाँ देवता निवास करते हैं। नारियों ने चलती है । आज की स्थिति तो ओर भी विषम है।
यह श्रद्धेय स्थान अपनी सत्यशीलता, देवत्व, हमें इस सन्दर्भ में मुन्शी प्रेमचन्द के ये शब्द स्मरण साधना और तप के आधार पर प्राप्त हो आते हैं-'मेरे विचार में नारी सेवा और त्याग किया था । सीता, सावित्री, रुक्मिणी, की मूर्ति है, जो अपनी कुर्बानी से अपने को बिल्कुल द्रौपदी, कौशल्या, दमयन्ती, कुन्ती, सुलसा मिटाकर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती
मगावती, राजीमती, चन्दनबाला, ब्राह्मी, सुन्दरी हैं........' मुझे खेद है कि बहनें पश्चिम का आदर्श 37 आदि अगणित महती नारियों को इस सन्दर्भ में लेती जा रही हैं, जहाँ नारी ने अपना पद खो दिया
स्मरण किया जा सकता है । बड़ा गौरव समझा है और स्वामिनी से गिरकर वह विलास की वस्तु जाता था नारी वर्ग का । किन्तु समय एक-सा कहाँ बन गई है । कृत्रिम तड़क-भड़क से आकर्षित होकर बना रहता है, वक्त ने कुछ ऐसा करवट बदल दी नारी अपनी गरिमा को जिस तेजी के साथ खोती कि क्या-क्या हो गया, सामन्ती युग में एक-एक कर जा रही है, वह वास्तव में खेद का विषय है, और उनके सारे अधिकार छिनते गये और नारी पुरुषा- नारियों के प्रति सहानुभूति होना स्वाभाविक हो धीन हो गई । और उसका कोई स्वतन्त्र अधिकार गया है। दिग्भ्रान्त इस नारी समाज को अपनी ही नहीं रहा, स्वाश्रित व्यक्तित्व का ह्रास होता भटकन का अहसास भी नहीं है, किन्तु क्या मात्र चला गया और वह पुरुष की एक सम्पत्ति बनकर इसी से उसकी लक्ष्यप्राप्ति की कामना पूर्ण हो रह गई । नारी को पुरुष अपनी वासनापूर्ति का सकेगी। वस्तुस्थिति तो यह है कि आज की भारसाधन मानने लगा । वे असूर्यम्पश्या बनकर घरों तीय नारी के समक्ष कोई स्पष्ट लक्ष्य ही नहीं है, में बन्दिनी बना दी गईं । नीति बना दी गई कि उसकी दौड़ भी सारी व्यर्थ जा रही है। वह बनना नारी स्वतन्त्र नहीं रह सकती। बाल्यावस्था में क्या चाहती है ? इसका कोई स्पष्ट चित्र उसके
उसे पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन सामने नहीं है । इसके कारण सारी नारी समाज की । । और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिये । हानि तो होगी ही, इस माध्यम से सारी जाति व
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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