Book Title: Kusumvati Sadhvi Abhinandan Granth
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Kusumvati Abhinandan Granth Prakashan Samiti Udaipur
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आदिवचन
राजेन्द्र मुनि (एम० ए०, साहित्य महोपाध्याय)
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पुरुष और नारी......"नारी और पुरुष, दोनों ही स्पष्ट उजागर हो जाती है। महात्मा गांधी की न समाज रूपी सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों समान, मान्यता भी कुछ ऐसी ही थी। वे कहा करते थे
परस्पर पूरक तथा अन्योन्याश्रित हैं। यही तो वह कि स्त्री बच्चे की प्रथम शिक्षक होती है और अवस्था है जो दोनों के सुखद संयोग की पृष्ठभूमि उसके चरित्र का संगठन करने वाली होती है । इस तैयार करती है। इनमें से प्रत्येक को पूर्णता की दृष्टि से नारी ही राष्ट्र की माता होती है, ऐसी स्थिति प्राप्त करने के लिए अन्य की अनिवार्य अवस्था में नारी को हीन समझना, आत्महनन का अपेक्षा बनी रहती है तथापि यह विडम्बना भी प्रयास नहीं तो और क्या है ? वास्तविकता यह है बनी रहती है कि पुरुष वर्ग की दाम्भिक प्रवृत्ति कि नारी किसी भी दृष्टि से पुरुष की अपेक्षा निम्न स्वयं को श्रेष्ठ घोषित किए बिना नहीं रहती। नहीं समझी जा सकती अपितु किसी रूप में वह नरकृत शास्त्रों के बन्धन भी नारियों के लिए ही उच्चतर भी है, और पुरुष उसका उपकृत भी है। प्रतिबन्ध प्रस्तुत करते हैं। उसे हीन और क्षुद्र नारी में पुरुष को 'मानव' बनाने और बनाए रखने स्वीकार किए जाने लगा। अबला के दीन विशेषण की अद्भुत शक्ति है । स्वभाव से पुरुष कठोर, कर का विशेष्य उसे बना दिया गया। यह कदाचित् व स्वच्छन्दताप्रिय होता है और नारी कोमल होती नारी की समर्पण-भावना और क्षमाशीलता के है, सदय होती है, संयत होती है। यह नारी ही कारण ही घटित होता रहा कि पुरुष का अहं तो है, जो पुरुष को अपने स्नेहिल व्यवहार, उत्सर्ग अधिकाधिक तीव्र होता चला गया, नारी का सामा- भाव व सेवा समर्पण से प्रभावित करती है, उसकी जिक स्थान अधोमुख होता गया-वह देवी से उद्दण्डता को बाधित करती है, पाशविकता पर दीना बन गई ऐसी कि जिसके साथ पुरुषवर्ग की वल्गा लगाती है, उसकी कठोरता को अनुराग के सहानुभूति भी नहीं रह पायी।
द्रव में घोल कर समाप्त कर देती है। देवत्व के किसी देश व समाज के निर्माण में नारी की लक्षण ही नारी की सम्पदा होती है और इस B भूमिका सदा ही गरिमामयी रही है। एक बार नेपो- वैभव को पुरुषों पर न्यौछावर करने में वह तनिक
लियन बोनापार्ट ने अपने देशवासियों से कहा था- भी कार्पण्य नहीं बरतती। उसके प्रयत्न का 'तुम मुझे सुमाताएँ दे सको तो मैं तुम्हें एक महान साफल्य पुरुष की मानवोचित प्रवृत्तियों के रूप में जाति बना सकता हूँ।' इस कथन में नारी की महत्ता भासित होता है। अन्यथा नर हिंसा-प्रतिहिंसा का
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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