Book Title: Kruparaskosha
Author(s): Shantichandra Gani, Jinvijay, Shilchandrasuri
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ www.............................. ज्ञान के विषय में बहुत कुछ नाना प्रकार के प्रश्न कर अपना ज्ञान बढाता था । | जो बातें उसे ठीक लगतीं उन का स्वीकार भी करता था । हीरविजयसूरि का नाम सुनते ही उसे, उन से मिलने की प्रबल उत्कंठा हो आई । सूरिमहाराज के विषय | में बादशाह ने अपने अधिकारियों से, वे कैसे और कहां पर रहा करते हैं, इस बारे में पूछगाछ की । * इतिमादखान - गुजराती जो अपने गुजरात के अधिकार काल में, सूरिजी से अनेक वार मिला था और उन के पवित्र जीवन से बहुत कुछ परिचित था - ने बादशाह से सूरिराज के संबंध में विशेष बातें कहीं; तथा उन का विहार स्थान, जो अधिकतया गुजरात था, बताया । अकबर ने उसी समय मेवडा जाति के मौंदी और कमाल नाम के अपने दो खास कर्मचारियों को बुला कर अहमदाबाद के तत्कालीन सूबेदार ( गवर्नर ) | शहाबुद्दिन अहमदखाँ के नाम पर एक फरमान पत्र लिख कर, गुजरात की ओर रवाना किये। इस फरमान में बादशाह ने सूबेदार को यह लिखा था किजैनाचार्य श्रीहीरविजयसूरि को, बडे आदर के साथ अपने पास- (दरबारए-अकबरी में ) भेज दें । शहाबुद्दीन ने यह फरमान पाते ही अहमदाबाद के प्रधान प्रधान जैन श्रावकों को अपने पास बुलाये और उन्हें अकबर का वह फरमान दिखा कर सूरिमहाराज को, फतहपुर जाने के लिए प्रार्थना करने की आज्ञा दी । सूरिजी उस समय गंधार - बंदर (जो भरुच जिले में, खंभात की खाडी के किनारे पर बसा हुआ है और आज कल वेरान पडा है) में चातुर्मास रहे हुए थे । इस लिये श्रावक लोक गंधार पहुंचे और अकबर के आमंत्रण का सारा हाल कह सुनाया। साथ में, अपनी ओर से वहां पर जाने की प्रार्थना भी की। सूरिमहाराजने सोचा कि अकबर बडा सत्य- प्रिय है इस लिए उस के पास जाने से और सदुपदेश देने से बहुत कुछ लाभ हो सकता है। धर्म की ख्याति | के साथ देश की भलाई भी हो सकती है । यह विचार कर, सूरिजीने श्रावकों 2 * इतिमाद खान, इ. स. १५५४ से १५७२ तक, गुजरात के सुलतान अहमदशाह २ रे और मुजफ़र शाह ३ रे के समय में, गुजरात के राज्य कार्य में अग्रगण्य अमीर था । इ. स. १५८३-८४ में अकबर ने फिर भी इसे गुजरात का सूबेदार बनाया था । (गुजरातनो अर्वाचीन (इतिहास. ) * तदा मुदा तत्पदपद्मषट्पदोऽतिमेतखानः शुभगीरदोऽवदत् । sesस्ति शस्ताकृतिराप्तवाग् व्रती महामतिहर इति व्रतिप्रभुः ॥ विजयप्रशस्ति, १-१५ । Jain Education International ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96