Book Title: Kruparaskosha
Author(s): Shantichandra Gani, Jinvijay, Shilchandrasuri
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 21
________________ DIRAAMANA परंतु सूरि महाराज ने “हां, कुछ थोडे से हैं" कह कर अपनी विभुता नहीं बताई। बादशाह ने पहले ही सुन रक्खा था कि सूरिमहाराज के दो हजार शिष्य हैं; इस । लिये उसने आप ही उतने बताये, जिस का समर्थन थानसिंहने "जी हुजूर" कह कर किया। सभा में जितने शिष्य बैठे हुए थे उन के नाम बादशाहने पूछे, जिन का उत्तर एक दूसरे शिष्य ने, एक दूसरे का नाम बता कर दिया। पद्मसुन्दर नामक नागपुरीय तपागच्छी- जैन यति पर, अकबर का, पूर्वावस्था में बड़ा प्रेम था । अकबर उसे सदा अपने पास ही रखता था। उस के पुस्तकालय में हिन्दु-और जैनसाहित्य की बहुत पुस्तकें थी । यति के मर जाने पर वे सब पुस्तकें अकबर ने अपने महल में रक्खी थीं; यह विचार कर कि जब कोई सब से अच्छा महात्मा मुझे मिलेगा तब उसे ये भेंट करूंगा। अकबर की। दृष्टि में हीरविजयसूरि सर्वोच्च साधु मालूम दिये इस लिये उसने अपने बड़े पुत्र युवराज सलीम सुलतान द्वारा वे सब पुस्तकें महल में से वहां पर मंगवाईं। खानखाना नामक अफसर ने पेटियों में से पुस्तकें निकाल निकाल कर। बादशाह के सामने रक्खी । बादशाह ने सूरिजी से, पुस्तकों का पूर्व-इतिहास कह कर उन्हें लेने की प्रार्थना की। अकबर बोला कि- "आप सर्वथा निःस्पृह महात्मा हैं इस लिये और कोई मेरे पास ऐसी चीज नहीं है जो आप को भेंट करने योग्य हो । केवल एक मात्र ये पुस्तकें ही ऐसी हैं जो आप को ग्राह्य हों।। इस लिये इन्हें स्वीकार कर मुझे उपकृत कीजिए।' सूरिजी ने पुस्तकें लेने का । इनकार कर कहा कि- “राजेश्वर ! हम लोगों को जितनी पुस्तकें चाहिये उतनी तो हमारे पास हैं । फिर इन्हें, बिन जरूरत, ले कर हम क्या करें ? यह भी एक प्रकार का परिग्रह ही है परंतु आत्मसाधन में मुख्य सहायक होने के कारण इन || का रखना हमारे लिये उचित है। परंतु, आवश्यकता से अधिक रखना ममत्व का कारण होने से हमें इन पुस्तकों की जरूरत नहीं है।" सूरिमहाराज के बहुत । इनकार कर ने पर भी अन्त में अबुल फजल ने बीच में पड कर उन्हें पुस्तकें लेने से बाध्य किये । सूरिजी ने उन का सादर स्वीकार कर "अकबरीयभाण्डागार' के नाम से आगरे में रख दीं। HTTE * गृहादथानायितमङ्गजन्मना स खानखानेन च मुक्तमग्रतः। महीमरुत्त्वान्प्रमदादिवोपदां मुनीशितुढौँकयति स्म पुस्तकम् । हीरसौभाग्य काव्य, सर्ग १४।। RAMMARI Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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