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स्थापन किया । माता पिता के हर्ष के साथ बढता हुआ यह अकबर बरोबरी के राजपुत्रों के साथ नाना प्रकार के खेल खेलने लगा और किसी को मंत्री, किसी को छडीदार, किसी को सेनापति तथा किन्हीं को प्रजा आदि बना कर उन में अपना प्रभुत्व की कल्पना करने लगा । बुद्धिमान् मनुष्यों को इस की इस क्रीडा में भावी महान् सम्राट्त्व का अनुमान हो जाता था। जिस प्रकार शुक्ल पक्ष का चंद्रमा दिन प्रतिदिन कृशता का त्याग कर पूर्णता को प्राप्त करता जाता है वैसे यह अकबर भी अपने बाल- भाव को छोड कर प्रतिदिन प्रौढावस्था को धारण करने लगा। थोडे ही समय में इस ने सब कलाओं में निपुणता प्राप्त कर ली । घोडों को चलाने में यह बडा अद्वितीय निपुण था । जो घोडा दूसरों के चलाने | पर मिट्टी का सा बना हुआ जान पडता था और पैर पैर पर रुक जाता था वही इस के चलाने पर पवन की तरह आकाश में उछलने लगता था । बडे बडे | मदोन्मत्त हाथियों के लंबे लंबे दांत तो इस के चढने के लिये सीढियों का काम | देते थे । इस की वज्र के जैसी मुट्ठी ही हाथियों के लिये तीक्ष्ण अंकुश रूप थी । यह केवल हाथ ही से केसरी सिंह की सटा को पकड़ कर उसे, खरगोस की तरह, बांध लेता था । अर्जुन की तरह धनुष्य चलाने में भी यह बडा कुशल था । इस के हाथ में रहा हुआ खड्ग शत्रुओं का प्राणनाश करने में, काले साँप का अनुकरण करता था ।
जैसे प्रातःकालिक चंद्र के अस्त होने पर नभोमंडल का स्वामी सूर्य बनता | है वैसे हुमायु के परलोक वासी होने पर अकबर पृथ्वीमंडल का अधिपति बना । | राज्यश्री और यौवनलक्ष्मी रूप दोनों स्त्रियें एक ही साथ अकबर के सम्मुख आ कर उपस्थित हुई- क्यों कि जो असाधारण सौन्दर्यवान् होता है उसे कौन स्त्री नहीं चाहती ? अकबर के मुंह की बराबरी चंद्र भी नहीं कर सकता है । क्योंकि वह तो सदोदित और संपूर्ण कलावान् नहीं रहता है और इस का मुंह तो नित्योदय और सकल कला सहित है । दुष्ट मनुष्य रूप सर्प से इसे जाने वाले मनुष्य को अकबर की जबान अमृत का काम देती है- अर्थात् यह अपने न्यायोचित आदेश द्वारा अन्यायी जनों को पूरी शिक्षा देता है। अकबर के वचन की मधुरता की समानता करनेवाली, सक्कर और साधु- वचन में भी मीठास नहीं है ? याने इस का मीठा वचन सक्कर और साधुवचन करते भी लोकों को अधिक मधुर लगता है । कवि कल्पना करता है कि
अकबर का जो मुँह है वह तो
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