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पलाशतां बिभ्रति यातुधाना इवाखिला अप्यनुगामिनो मे।
अमारिरेषां न च रोचते क्वचिन्मलिम्लुचानामिव चन्द्रचन्द्रिका ॥ शनैः शनैस्तेन मया विमृश्य प्रदास्यमानामथ सर्वथैव । दत्तामिवैतामवयान्तु यूयममारिमन्तर्महतेव कन्या ॥
हीरसौभाग्य, स.१४, प.१९९-२००। “मुनीश्वर ! मेरे जितने अनुगामि - नौकर हैं वे सब मांसाहारी हैं इस लिये । उन्हें यह जीवहत्या के बंध कर ने की बात रुचती नहीं है इस लिये मैं धीरे।। धीरे, इतने ही दिन नहीं परंतु और भी अधिक दिन आप को दूंगा-अर्थात् अधिक दिनों तक जीव बध न किया जाने के फरमान लिख दूंगा। पहले की तरह अब मैं शिकार भी न करूँगा। संसार के पशु- प्राणि सुखपूर्वक मेरे राज्य में, मेरी ही तरह रहें ऐसा काम करूंगा* ।'' यह कह कर बादशाहने सूरिजी की परोपकारिता की वारंवार प्रशंसा की और उन्हें “जगद्गुरु " की महान् उपाधि (पद्वी) दी। कुछ बडे बडे कैदियों को अपने पास बुला कर सूरिजीके पगों में उन का मस्तक टिकवाया और उन्हें छोड़े जाने का आनंद-समाचार सुनाया। बाद में अकबर वहां से उठ कर डाबर- तालाब के किनारे गया। साथ । में सूरिजी के प्रधानभूत शिष्य धनविजयजी को ले गया। वहां पर उन की
समक्ष, सब पक्षियों को पीजडों में से निकाल निकाल कर आकाश में उड़ा दिये ।। ।। सूरिजी वहां से उठ कर शाही बाजों के बजते हुए अपने उपाश्रय में पहुंचे।
श्रावकों ने उस समय जो आनंद और उत्सव मनाया उस का वर्णन नहीं किया जाता । मेडतीया शाह सदारंग ने, उस खुशाली में हजारों रूपये गरीब गुरबों को और सेंकडों हाथी घोडे याचकों को दान में दे दिये । शाह थानसिंह ने अपने बनवाये हुए मंदिर में जिनप्रतिमा की प्रतिष्ठा कराने के निमित्त बडा भारी महोत्सव प्रारंभ किया। प्रतिष्ठा के साथ श्रीशांतिचंद्रजी को "वाचक (उपाध्याय)" पद भी प्रदान किया गया। थानसिंह ने उस समय अगणित द्रव्य
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* प्राग्वत्कदाचिन्मृगयां न जीवहिंसां विधास्ये न पुनर्भवद्वत् ।
सर्वेऽपि सत्त्वाः सुखिनो वसन्तु स्वैरं रमन्तां च चरन्तु मद्बत् ।। x गुणश्रेणी मणिसिन्धोः श्रीहीरविजयप्रभोः। जगद्गुरुरिदं तेन बिरुदं प्रददे तदा ॥
हीरसौभाग्य
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