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समय हो जाने से सूरीश्वर ने स्वस्थान पर जाने की इजाजत मांगी । | बादशाह ने थानसिंह को बुला कर कहा कि "मेरे जो खुद शाही बाजे हैं उन के साथ, बडी धूमधाम पूर्वक, मुनीश्वर को अपने स्थान पर पहुंचा दो * ।” शाही हुक्म होते ही सब तैयारी की गई । शाहीफौज, बडे बडे अफ़सर और अनेक प्रकार के वादित्रों के साथ सूरिमहाराज़ अपने स्थान पर पहुंचे । जैन लोगोंने | इस बात की बडी भारी खुशी मनाई और हजारों रूपयें गरीब-गुरबों को बॉट दिये गये ।
कुछ दिन फतहपुर ठहर कर मुनीश्वर चातुर्मास करने के लिए आगरा को | गये । संवत् १६३९ का चातुर्मास वहीं बिताया । मार्गशिर महिने में सूरिजी शोरीपुर - तीर्थ की यात्रा करने को गये । कुछ समय तक इधर उधर घूम कर फिर वापस आगरा आये। वहां पर चिंतामणि पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा की । थोडे दिन ठहर कर, आगरा से फिर फतहपुर पहुँचे । सूरिजी को शहर में आये सुनकर अकबर ने फिर उन से मिलने की इच्छा प्रकट की । अबुल फजल के महलों में, दूसरी वार सूरि महाराज मुगल सम्राट् से मिले। घंटों तक धर्मचर्चा होती रही । सूरिजी ने प्रजा और प्राणियों के हित के लिये बादशाह को अनेक प्रकार का सद्बोध दिया। मद्य और मांस का सेवन नहीं करने के लिये भी उपदेश दिया गया पहली मुलाकात के समय, सूरिजी की निःस्वार्थ वृत्ति ने अकबर के दिल में जिस सद्भाव के बीज को बोह दिया था वह इस समय की मुलाकात से अंकुरित हो गया । बादशाह बोला- “मुनीश्वर ! आपने जो जो बातें मुझे, अपने हित के लिये कही हैं वे बिल्कुल ठीक है और आप के कथन का मैं अवश्य आदर करूंगा । मैंने आप को बडी दूर से, बहुत कष्ट दे कर बुलाये हैं और आपने भी अपना परोपकार-भाव, यहां आकर स्पष्ट रूप से प्रकट किया है। आपने जो जो सदुपदेश मुझे दिये हैं वे अमूल्य है; मैं आपकी इस कृपा का बडा ही ऋणी- कर्जदार हूं । मेरी यह इच्छा है कि मेरे आधिपत्य में गाँव, नगर, देश, हाथी, घोडे, सुन्ना, चांदी आदि जितनी चीजें हैं उन में से | जो आप की मर्जी में आवें उसे स्वीकार कर मेरे सिर पर से इस उपकार के
* मदीयतूर्यादिनिनादसादरं जगज्जनानन्दिमहेन मेदुरम् ।
त्वमालयं लभ्भय साधुसिन्धुरं तटं शशीवामृतवाहिनीवरम् ॥
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हीरसौभाग्य काव्य, १४ सर्ग ।
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