Book Title: Kruparaskosha
Author(s): Shantichandra Gani, Jinvijay, Shilchandrasuri
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
-
-
-
-
---
-
-
---
-
--
--
-
---------
-
-
-
-
---
--
---
-
--
-
--
MITALIABARLALITARATrianRIMILAAAmlambikamudalaimaLAAAAAAAAALIAnaimalTulaswaminism
शस्त्रग्रहेण धुरि लब्धसमन्तुताके
शस्त्रं विमोच्यमिति वीरजनप्रतिज्ञा। जन्तूनमन्तुदरितान् किमहं निहन्मि
वीरावतंस इति धीरनुकम्पतेऽसौ ॥१०८॥ अन्यैर्नृपैर्यः खलु साधुवाक्य
प्रवेशविघ्नाय निजश्रवस्सु । दौवारिकत्वं प्रतिलम्भितः स
निर्वासनीयोऽजनि दुर्जनोऽस्य ॥१०९॥ त्वं जीव ! नंद ! विजयस्व ! चिरं जय ! त्व
मित्याशिष ददति डाबरपालिसंस्थाः । मत्स्या नृपाय विभया जलकेलिकामो ___ यद्येति तद्वरमसाविति निर्निमेषाः ॥११०॥ क्रूरा बका अकबरस्य महामहीन्दोः
पुण्याय चञ्चपुटकेन तिमीन् गृहीत्वा । आश्चर्यपूर्णहृदया अनुकम्पमाना
स्तन्मात्रभक्षणकृतोऽपि सकृत्त्यजन्ति ॥१११॥ चोलीबेगमनन्दने क्षितिपतौ नानीतयो नेतयो
दुर्भिक्षं न न विड्वरं न मरकं काले घनो वर्षति । काले वृक्षफलोद्गमः सरसता बाहुल्यमिक्षोवन
धातूनां बहुता करेषु महिमा नेतुस्तु दृष्टेरहो ! ॥११२॥ कन्ये ! कासि ? कृपा, कुतोऽसि विधुरा ?, राजा कुमारो गत,
स्तत्किं ?, हिंसकमानवैरहरहर्गाढं प्रमुष्टास्म्यहम् । १. शास्त्र० हं. ॥ २. ०दुरितान् हं. ।। ३. बहुताकरेषु मु.॥
AsalmanumaniasinianRAMNAARAK
MARATHI
PRAMNATIHARDHA
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96