Book Title: Kruparaskosha
Author(s): Shantichandra Gani, Jinvijay, Shilchandrasuri
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 23
________________ Hostel नाममालामा भार को कुछ कम कीजिए । सूरिमहाराज ने कहा - "शाहन्शाह ! मेरे जीवनोद्देश और मुनिधर्म से आप बहुत कुछ परिचित हो चुके हैं इस लिये इन। चीजों के लेने का मुझ से आग्रह करना निरर्थक है । मुझे इच्छा है केवल | आत्म-साधन करने की । इस से यदि वैसी चीज आप मुझे दें कि जिस से मेरा आत्म-कल्याण हों, तो मैं उसे बडे उपकार के साथ स्वीकार लूंगा।' बादशाह । इस के उत्तर में क्या कह सकता था ? वह चुप कर गया । अकबर को मौन । हुआ देख फिर मुनि महाराज बोले - "आप मुझे जो कुछ देना चाहते हैं उस के बदले में, मेरे कथन से, जो कैदी वर्षों से कैदखाने में पडे पडे सड़ रहे हैं, उन अभागे पर दया ला कर, छोड दीजिए। जो बेचारे निर्दोष पक्षी बेगुनाह पीजडों । में बन्ध किये गये हैं उन्हें उडा दीजिए। आप के शहर के पास जो डाबर नाम | का १२ कौस लंबा चौडा तालाब है, कि जिस में रोज हजारों जालें डाली जाती। है, उन्हें बंध कर दीजिए। हमारे पर्युषणों के पवित्र दिनों में आप के सारे राज्य । में, कोई भी मनुष्य, किसी प्रकार के प्राणि की हिंसा न करें ऐसे फरमान लिख दीजिए।' बादशाह ने कहा - 'महाराज ! यह तो आप ने अन्य जीवों के । मतलब की बात कही है। आप अपने लिये भी कुछ कहें*।" सूरिजी ने उत्तर दिया - "नरेश्वर ! संसार के जितने प्राणि हैं उन सब को मैं अपने ही प्राणों के समान गिनता हूं । इस लिये उन के हित के लिये जो कुछ किया जायगा वह मेरे । ही हित के लिये किया गया है; ऐसा मैं मानूंगा।' बादशाह ने सूरिजी की। आज्ञा का बडे आदर-पूर्वक स्वीकार किया। वहां बैठे ही बैठे, कैदखाने में। जितने कैदी थे उन्हें छोड देने का और पीजडों में जितने पक्षी थे उन्हें उडा देने का हुक्म दे दिया । डावर तालाब में जालें डालने की मनाई भी की गई ।। पर्युषणों के आठ ही दिन नहीं परंतु उन में ४ दिन बादशाह ने अपनी ओर के भी मिला कर १२ दिन तक जीववध के बंध करने के ६ फरमान लिख दिये। जिन का व्योरा इस प्रकार है: - १ ला सूबे गुजरात का, २रा सूबे मालवे का, ३रा । सूबे अजमेर का, ४था दील्ली और फतहपुर का, ५वा लाहोर और मुलतान का तथा ६ठा पांचों सूबों का, सूरिजी के पास रखने का । बादशाह बोलाः MALARIAAAAALAnima MAINA l . I MILAINER IMALA * इयं तु पूज्येषु परोपकारिता प्रसादनीयं निजकार्यमप्यथ। तंमूचिवानेष यदङ्गिनोऽखिलानसूनिवावैमि ततः परोऽस्तु कः ।। हीरसौभाग्य, स. १४, श्लो. १७९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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