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इन दोनों फरमानों के छाया - चित्र हमें शांतमूर्ति श्रीमान् मुनि हंसविजयजी | महाराज की कृपा से प्राप्त हुए हैं। एतदर्थ आप को अनेक धन्यवाद । सुना जाता है कि ऐसे और भी कितने ही बादशाही फरमान तपगच्छ के मुख्य गद्दीधर आचार्य के पास मौजूद है परंतु संरक्षकों में सामयिक शिक्षा का अभाव होने से वे बेचारे अभी तक, जीर्ण-सदकों के अंदर, शोचनीय हालत में, कैद पडे हुए हैं। कोई साहित्य-रसिक उन्हें सुंदर स्वरूप में सज कर, जगत् के प्रकाशित प्रदेश में स्थापन करें तो जैनधर्म की || विभुता में और भी अधिक वृद्धि होगी। अस्तु। ___जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरि के इन पुण्यावदातों का उल्लेख सेंकडों ही शिला-लेखों और सेंकडों ही ग्रंथों में बडी विशद रीति से किया गया है (- देखो, मेरी संपादित, 'प्राचीनजैनलेखसंग्रह' आदि पुस्तकें) जिन में से संक्षेप में और केवल प्रकृत पुस्तकोपयोगी हाल हमने यहां पर दिया है । जिन जिज्ञासुओं को इन महात्माका संपूर्ण वृत्तांत जानने की जिज्ञासा हों वे, जगद्गुरु काव्य, हीरसौभाग्य काव्य, विजयप्रशस्ति काव्य, विजयदेवमहात्म्य और पट्टावली आदि ग्रंथ देखें । ये सब ग्रंथ जगद्गुरु के जीवनकाल में या थोडे ही वर्षों बाद रचे गये हैं । इस लिये इन की प्रामाणिकता में कुछ भी संदेह नहीं
। अकबर बादशाह के विश्वासु और प्रिय प्रधान शेख अबुल-फजल ने भी अपनी आईन-ए-अकबरी नामक प्रसिद्ध पुस्तक में लिखा है कि- बादशाह के दरबार के जितने विद्वान् थे वे सब ५ वर्गों में विभक्त किये गये थे । उन में हीरविजयसूरि प्रथम वर्ग के विद्वान् थे । (Ain-i-Akbari, vol.1, Pages 1531 & 547.) इस से भी ज्ञात होता है कि सूरिजी का सन्मान अकबर के
दरबार में बहुत अच्छा हुआ था।
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इस कृपारस कोश की केवल एक ही प्राचीन प्रति प्राप्त हुई है और उसी के आधार पर यह मुद्रित किया गया है। प्रति कुछ विशेष अशुद्ध होने से कहीं कहीं अशुद्धता और एक दो जगह अपूर्णता भी रह गई है । मुनिमहाराज श्रीवल्लभविजयजी के पास से एक दूसरी भी प्रति उपलब्ध हुई परंतु वह प्रथम ही की नकल मात्र थी । ग्रंथकर्ता के विद्वान् शिष्य रत्नचंद्र उपाध्याय ने इस कृपारसकोश पर संस्कृत टीका बनाई है परंतु वह अभी तक कहीं उपलब्ध नहीं हुई । इस पुस्तक के अंत में, हिन्दी में, संक्षिप्त - भावार्थ भी लगा दिया गया है जिस से संस्कृत नहीं जानने वाले भी इस ग्रंथ का तात्पर्य जान सकेंगे।
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