Book Title: Kruparaskosha
Author(s): Shantichandra Gani, Jinvijay, Shilchandrasuri
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 34
________________ LEARNIMAHARMA ALLILAHNAAlalaanim alandneindiankan hinmmmmmmmmmmmm . MEMONS OF CENTRAL INDIA & MALCOLM VOL. II. LC.135 & 136 (Foot note.) अर्थ- जैनियोंने मुझसे प्रार्थना की कि पचूसर (पजूसण) के उन १२ दिनों। । में जिन कों वे पवित्र मानते हैं जीवों की हिंसा को रोका जाय और अकबर बादशाह का दिया हुआ असली फरमान जिस को उज्जैन में रहने वाले उन के बडे पुजारी ने यत्न से रक्खा था उन्हों ने मेरे देखने के लिये भेजा। इस अपूर्व । पत्र का निम्न लिखित तर्जुमा है: ईश्वर के नाम से ईश्वर बडा है। ___ "महाराजाधिराज जलालुद्दीन अकबर शाह बादशाह गाजी का फरमान." ___"मालवा के मुत्सदियों को विदित हो कि चूंकि हमारी कुल इच्छायें इसी बात के लिये हैं कि शुभाचरण किये जाय और हमारे श्रेष्ठ मनोरथ एक ही अभिप्राय अर्थात् अपनी प्रजा के मनको प्रसन्न करने और आकर्षण करने के लिये नित्य रहते हैं। ___"इस कारण जब कभी हम किसी मत वा धर्म के ऐसे मनुष्यों का जिक्र । सुनते हैं जो अपना जीवन पवित्रतासे व्यतीत करते हैं, अपने समय को आत्मध्यान में लगाते हैं, और जो केवल ईश्वर के चिन्तवनमें लगे रहते हैं तो हम उन की पूजा की बाह्य रीति को नहीं देखते हैं और केवल उनके चित्तके अभिप्राय को विचार के उनकी संगति करने के लिये हमें तीव्र अनुराग होता है और ऐसे कार्य करने की इच्छा होती है जो ईश्वर को पसंद हो । इस कारण हरिभज सूर्य (हीरविजयसूरि) और उन के शिष्य जो गुजरात में रहते हैं और वहां से हाल ही में यहां आये हैं उन के उग्रतप और असाधारण पवित्रता का वर्णन सुनकर हमने उन को हाजिर होने का हुक्म दिया है और वे आदर के स्थान को चूमने की आज्ञा पाने से सन्मानित हुये हैं । अपने देश को जाने के लिये विदा (रुखसत) होने के पीछे उन्हों ने निम्न लिखित प्रार्थना कीः-यदि बादशाह जो अनाथों का रक्षक है यह आज्ञा दे दें कि भादों मास के बारह दिनों में जो पचूसर (पजूषण) कहलाते हैं और जिन को जैनी विशेषकर के पवित्र समझते हैं कोई जीव उन नगरों में न मारा जाय जहां उन की जाति रहती है; तो इससे दुनिया के मनुष्यों में उनकी प्रशंसा होगी। बहुत से जीव वध होने से JAHIRAIMEROLALIlaitanAAILAMMARITAMANNImiRINAMulaaniml Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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