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कविवर बूचराज एवं उनके
समकालीन कवि
इतिहास
हिन्दी साहित्य के इतिहास में संवत् १५६० से संवत् १६०० तक के कान को किसी विशिष्ट नाम से सम्बोधित नहीं करके उसे भक्ति काल में ही समाहित किया गया है । इस भक्तिकाल में निर्गुण भक्ति एवं सगुण भक्ति इन दोनों की ही प्रधानता रही और दोनों ही बारात्रों के कवि होते रहे। इस समय देषा में एक मोर अमट छाप के कवियों को सगुण भक्ति पारा की गंगा बह रही थी तो दूसरी ओर महाकवि कबीर की निर्गुण भक्तिमा प्रसार भी ज: भाः पर
। 1 संवत् १५६० से १६०० तक के ४० वर्ष के काल में १५ से भी अधिक वैष्णव' कवि हए जिन्होंने प्रष्ट छाप की कविता के उंग पर कृष्ण भक्ति से प्रोतप्रोत कृतियों को निबद्ध किया । भक्ति धारा को प्रवाहित करने वाले ऐसे कवियों में नरवाहन (सं० १५६५), हितकृष्णा गोस्वामी (सं० १५६७), गोपीनाथ (सं. १५६८), विठ्ठलदास (सं १५६८), अजबेग भट्ट (सं० १५६६), महाराजा केशव (सं० १५६६), मलिक मुहम्मद जायसी (सं० १५६३), मंझन (सं० १५६७), लालदास (सं० १५८५८८), स्वामी निपट निरंजन (सं० १५६५), गोस्वामी विट्ठलनाथ (स० १५६५), कृपाराम (सं० १५६८) के नाम उल्लेखनीय हैं ।।
लेकिन इन ४० वर्षों में जन हिन्दी कवियों की संख्या जेनेतर करियों से भी अधिक रही। मिश्र बन्धु विनोद ने ऐसे कवियों में ईश्वरसूरि, छीहल, गारबदास जन, कुरसी एवं बालचन्द ये पांच नाम गिनाये है।
मार
__ "हिन्दी रासो काव्य परम्परा" में जिन जैन कवियों की रासा कृतियों का उल्लेख किया गया है उनमें उदयमानु, विमल मूत्ति, मेलिग, मुनि पन्नलाभ, सिपमुख सहजसुन्दर एवं पार्श्व चन्द्र सूरि के नाम उल्लेखनीय है । लेकिन उक्त जैन कवियों के अतिरिक्त म. शानभूषण, ब्रह्म बूचराज, ब्रह्म यशोधर, भ० शुभचन्द्र, चनुरुमल,
१. विस्तृत परिचप के लिए देखिये मिश्रमन्षु विमोद पृष्ठ १३० से १५० ।