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नामचतुष्टयाध्याये चतुर्थः कारकपादः
११ निषेधौ विशेषण एव पर्यवस्यतः इति, सत्यम् । विशेष्यविवक्षायां विशिष्टान्यस्यापि उपस्थितत्वात् केवलो विशेष एव प्रतीयते । न तु विशेषणम्, अप्रधानत्वादिति । अपञ्चम्या इति नानुवर्तते, पूर्वसूत्र एव तन्निवृत्तेः । नापि तृतीयासम्तम्योरनुवृत्तिः, विशेषातिदिष्टत्वात् । नापि वाशब्दस्य तृतीयासप्तमीभ्यां सह निर्दिष्टत्वात् । पूर्वपाठाच्चाधिकारस्येष्टत्वादिति सिद्धान्तितम् ।।२८८।
[समीक्षा]
'उपवधु + सि, उपकर्तृ + सि' इस अवस्था में कातन्त्रकार अकारान्तभिन्न अव्ययीभावसमास में सि-आदि विभक्तियों का लुक् करके 'उपवधु, उपकर्तृ' आदि शब्दरूप सिद्ध करते हैं | पाणिनि ने “अव्ययीभावश्च" (अ० १।४।४१) से अव्ययीभावसमास की अव्ययसंज्ञा मानकर "अव्ययादाप्सुपः" (अ० २।४।८२) से सु-आदि प्रत्ययों का लुक् किया है, जबकि कातन्त्रकार ने अव्ययीभावसमास की अव्ययसंज्ञा नहीं की है । अतः उन्हें लुविधायक दो सूत्र बनाने पड़े हैं । अस्तु, दोनों की ही प्रक्रिया में साम्य ही मानना पड़ेगा, क्योंकि एक को यदि लुविधायक दो सूत्र बनाने पड़ते हैं तो दूसरे को अव्ययसंज्ञाविधायक एक सूत्र अधिक बनाना पड़ता है।
[रूपसिद्धि]
१. उपवधु । उपवधु + सि इत्यादि विभक्तियाँ | वध्वाः समीपम् । अव्ययीभावसमास, विभक्तिलुक्, “स नपुंसकलिङ्गं स्यात्" (२।५।१५) से नपुंसकलिङ्गता, "स्वरो हस्वो नपुंसके" (२।४।५२) से 'वधू' शब्द के अन्तिम दीर्घ ऊकार को ह्रस्व तथा प्रकृत सूत्र से सि आदि विभक्तियों का लुक् ।
२. उपकर्तृ । उपकर्तृ + सि आदि विभक्तियाँ । कर्तुः समीपम् । अव्ययीभावसमासादि तथा प्रकृत सूत्र द्वारा 'सि' आदि विभक्तियों का लुक् ।।२८८।
२८९. अव्ययाच्च [२।४।४] [ सूत्रार्थ] अव्ययसंज्ञक शब्दों से परवर्ती विभक्तियों का लुक् होता है ।।२८९/