Book Title: Katantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Author(s): Jankiprasad Dwivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
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भूमिका [आचार्यपारम्पयर्थम्] १. आचार्यपारम्पर्याद् यथादृष्टपरिकल्पनावशाद् दीर्घादिरेवायमादेशः (क०
च० २।३।८)। २. तस्मादाचार्यपारम्पर्यमेव व्याख्यानम् (क० च० २।३।६२)। [असन्देहार्थम्] १. तपरकरणमसन्देहार्थम् (दु० टी० २।१।९,६३)। [वैचित्र्यार्थम्] १. गुरुकरणं वैचित्र्यार्थम् (क० च० २।१।४७)। २. एवं घुटीति सिद्धेऽन्तग्रहणमुभयपक्षे वैचित्र्यार्थमेव (दु० टी० २।२।३६)। [योगविभागार्थम्] १. अरः प्राङ् निर्देशो योगविभागार्थ इति वररुचिः (क० च० २।१।६६) [सम्प्रदायार्थम्] १. भावसप्तम्यां विषय एव नास्तीति सम्प्रदायः (क० च० २।१।६८)। २. प्रत्ययलोप इत्यस्य तु अतः पञ्जिकायामपि आमि च विशेषविधानादिति
यदुक्तं तद् युक्तमेवेति साम्प्रदायिकाः (क० च० २।२।१)। ३. तस्मादकारान्तत्वे आम्नाय एव शरणमिति साम्प्रदायिकाः (क० च०
२।३।७) [उपचारार्थम्] १. सखिस्थ इकारः सखिरुच्यते, उपचारात् (दु० टी० २।२।१)। २. स्त्र्याख्यावयवोऽपि स्व्याख्य इत्युपचारात् (वि० प० २।२।४)। [उत्तरार्थम्] १. पृथग्योगोऽयमुत्तरार्थः (दु० वृ० २।१।६७; दु० टी० २।२।२३)। २. नदीश्रद्धाग्रहणमुत्तरार्थमिहार्थं च (दु० वृ० २।१।७१)।

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