Book Title: Katantra Vyakaranam Part 02 Khand 01
Author(s): Jankiprasad Dwivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
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भूमिका
(११) तथा च प्रयोगो दृश्यते - इमैर्गुणैः सप्तर्षयः स्वर्गं गताः (क० च० २।२।३८) इति ।
(१२) विशेषणविशेष्यभावस्य प्रयोक्तुरायत्तत्वात् (वि० प० २।१।५८, क० च० २।२।५९, दु० टी० २।३।१)।
सूत्रकारेण आचार्यशर्ववर्मणा किञ्चित् कार्यं बालबोधनार्थम्, असन्देहार्थम्, प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थम्, स्पष्टार्थम्, वैचित्र्यार्थम्, योगविभागार्थम्, उत्तरार्थम्, साक्षात्प्रतिपत्त्यर्थम्, उपचारार्थम्, लोकव्यवहार -आचार्यपारम्पर्यनिर्वाहार्थं च विहितम्, परं स सुखार्थमधिकं विधि-पद - वर्णादिकं विदधाति । टीकाकारो दुर्गसिंहः सूत्रकार शर्ववर्माणमीदृशमेव समुद्घोषयति- "सुखप्रतिपत्तिकृतप्रतिशोऽयं भगवानिति" (दु० टी० २।१।६६)। प्रायेण चत्वारिंशत् कार्याणि सुखार्थं विहितानि दृश्यन्ते । इह निदर्शनाय कानिचिद् वचनानि प्रस्तूयन्ते -
[सुखार्थम्] १. वस्तुतस्तु धुड्ग्रहणं सुखार्थम् (क० च० २।१।१९)। २. यद् घोषवद्ग्रहणं तत् श्रुतिसुखार्थमिति (क० च० २।१।१४)। ३. सुखार्थं व्यञ्जनग्रहणम् (क० च० २।१।१३)। ४. सुखार्थम् अर्थवद्ग्रहणम् (क० च० २।१।१)। ५. इह (सिप्रत्यये) ङकार इकारश्चानुबन्धः सुखप्रतिपत्त्यर्थ एव (दु० टी०
२।१।२१)। ६. ह्रस्वग्रहणं सुखप्रतिपत्त्यर्थम् (दु० टी० २।१।४०)। ७. स्वरग्रहणं सुखप्रतिपत्त्यर्थम् (दु० टी० २।१।५१)। ८. सपूर्वग्रहणं सुखप्रतिपत्त्यर्थम् (दु० टी० २।१।६३)। ९. भिन्नयोगस्तु सुखप्रतिपत्त्यर्थ एव (दु० टी० २।२।१७)। १०. सुखार्थमेव समासान्तग्रहणम् (वि० प० २।२।५२)। ११. वद्ग्रहणं तु सुखप्रतिपत्त्यर्थम् (दु० टी० २।२।५३; ३।५०)।

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