Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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१२ संयमासंयमलब्धि अनुयोगद्वार
संयमासंयमलब्धि जयधवला टीकाके अनुसार यह बारहवाँ अर्थाधिकार है । इसके आगे चारित्रलब्धि नामक तेरहवाँ अर्थाधिकार है । इन दोनों अर्थाधिकारोंमें 'लद्धी य संयमासं यमस्स' यह एक सूत्रगाथा निबद्ध है । इसमें बतलाया गया है कि जो जीव अलब्धपूर्व संयम संयम लब्धि और चारित्रलब्धिको प्राप्त करते हैं उनके अन्तर्मुहूर्तकाल तक प्रति समय विशुद्धिरूप परिणामों में अनन्तगुणी श्रेणिरूपसे वृद्धि होती जाती है। दूसरे इसमें यह भी बताया गया है कि उक्त दोनों लब्धियोंके यथासम्भव प्रतिबन्धक कर्मोंकी उपशामना होने पर उन दोनों लब्धियोंकी प्राप्ति होती है ।
उन दोनों लब्धियोंके प्रतिबन्धक कर्म कौन हैं और उनकी किस प्रकारकी उपशामना होती है इसका विशेष खुलासा करते हुए उनकी टीका में बतलाया है कि उपशामना चार प्रकारकी है - प्रकृति उपशामना, स्थितिउपशामना, अनुभागउपशामना और प्रदेशउपशामना । संयमासंयमलब्धि में अनन्तानुबन्धीचतुष्क और अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क इनकी उदयाभावस्वरूप प्रकृतिउपशामना ली गई है । यद्यपि संयम संयम के काल में प्रत्याख्यानावरणचतुष्क; संज्वलनचतुष्क और नौ नोकपायोंका यथासम्भव उदय बना रहता है, परन्तु वह सर्वघातिस्वरूप नहीं होता । इसलिए उन कर्मोंकी भी देशोपशामना यहाँ पर बन जाती है । यदि कहा जाय कि प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका उदय तो सर्वघाति है, इसलिए उसकी देशोपशामना कैसे सम्भव है सो यह भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि संयमासंयमलब्धि में उसका व्यापार नहीं होता। इसलिये इस अपेक्षासे उसका उदय देशघातिस्वरूप होनेसे उसका भी देशोपशम स्वीकार करनेमें कोई बाधा नहीं आती ।
यह तो संयम संयम लब्धिकी अपेक्षा प्रकृति-उपशामनाका विचार है । चारित्रलब्धिकी अपेक्षा विचार करनेपर प्रारम्भकी बारह कषायोंके उदद्याभावरूप प्रकृति उपशामना तथा चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी देशोपशामना प्रकृत में लेनी चाहिये ।
स्थितिउपशामना—यहाँ उक्त दोनों लब्धियों में पूर्वोक्त जिन प्रकृतियोंका उदय नहीं है। उनकी स्थितियोंके उदयका न होना एक तो यह स्थितिउपशामना है और सभी कमोंकी अन्तकोड़ाको प्रमाण स्थितिसे उपरिम स्थितियोंका उदय नहीं होना यह दूसरी स्थिति उपशामना है ।
अनुभाग- उपशामना - पूर्वोक्त कषायप्रकृतियोंके द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागका उदय नहीं होना तथा उदयप्राप्त कषायोंके सर्वघाति स्पर्धकोंका उदय नहीं होना यह अनुभाग-उपशामना है । ज्ञानावरणादि कर्मोंके त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभाग परित्यागपूर्वक द्विस्थानीय अनुभागकी प्राप्ति होना यह भी प्रकृत में अनुभाग- उपशामना है ऐसा स्वीकार करने में भी कोई विरोध नहीं आता ।
प्रदेश-उपशामना अनुदयरूप उन्हीं पूर्वोक्त प्रकृतियों के प्रदेशोंका उदय नहीं होना यह प्रदेशोपशामना है ।
यह उक्त सूत्र गाथामें आये हुए 'उपसामणा-य तह पुनवबद्धाणं । इस पदकी व्याख्या है।
संयमासंयम और संयमकी प्राप्ति उपशमसम्यक्त्व के साथ भी होती है, इसलिये सूत्रमें आये हुये 'उपसामणा' पद द्वारा इसका भी ग्रहण हो जाता है । इसीप्रकार 'वड्डावड्डी' पदमें 'वड्ढी' पद द्वारा संयमासंयम और संयमको प्राप्त करते समय जो एकान्तानुवृद्धिरूप परिणाम