Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 15
________________ ( १२ ) इस प्रकार उक्त विधि से बहुत हजार स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर सम्यक्त्वके असंख्यात समयप्रबद्धों की उदीरणा होती है । पुनः बहुत स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत होनेपर मिथ्यात्व के उदयावलिके बाहर के समस्त द्रव्यको घात के लिए ग्रहण किया। उस समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वा पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्य शेष रहता है, शेष सब द्रव्य घात के लिए ग्रहण कर लिया जाता है । मिध्यात्वकी सर्व प्रथम क्षपणा होती है, इसलिए यहाँ saat विशेषता हो जाती है । इतना अवश्य है कि मिथ्यात्व के अन्तिम काण्डकका फालिरूपसे अन्य दो प्रकृतियों में संक्रमण करता हुआ अन्तिम फालिका सम्यग्मिथ्यात्व में ही संक्रमण करता है । इस प्रकार यथोक्त विधिसे मिथ्यात्वका घातकर पुनः उसी विधि से सम्यग्मिध्यात्वका घात करता हुआ जब उसके उदद्यावलि बाह्य समस्त द्रव्यको घात के लिए ग्रहण करता है तब सम्यक्त्वकी आठ वर्षप्रमाण स्थिति शेष रहती है । किन्तु इस विषय में एक मत यह भी पाया जाता है कि उस समय सम्यक्त्व की संख्यात हजार वर्षप्रमाण स्थिति शेष रहती है । यहाँ पर इस जीवको दर्शनमोहनीयक्षपक यह संज्ञा प्राप्त होती हैं । यद्यपि प्रारम्भ से ही यह जीव दर्शनमोहनीयका क्षपक है पर यदि कोई समझे कि सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय तो सम्यग्दृष्टिके वेदकसम्यक्त्वके साथ होता है, इसलिए इसकी क्षपणा करनेवाले जीवको दर्शनमोहक्षपक कहना योग्य नहीं है तो उसका ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति भी दर्शनमोहनीयका एक भेद है, इसलिए उसकी क्षपणा करनेवाले जीवको भी दर्शनमोहक्षपक कहना योग्य है यह बतलाने के लिए यहाँसे यह संज्ञा विशेषरूपसे प्रवृत्त हुई है । सम्यक्त्वका आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहनेपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितिकाण्डक होता है । एक तो यह विशेषता होती है और यहाँसे लेकर दूसरी यह विशेषता होती है कि सम्यक्त्व अनुभागका प्रत्येक समय में अपवर्तन होने लगता है । तथा यहाँसे लेकर अपवर्तित होनेवाली स्थितियोंमेंसे उदय में थोड़े प्रदेशपुञ्जको देता है। उससे अनन्तर स्थिति में असंख्यातगुणे प्रदेशपुञ्जको देता है । यह क्रम गुणश्रेणिशीर्ष तक चालू रहता है । पुनः उससे उपरिम स्थितिमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुञ्जको देता है और आगे विशेष होन देता है । इस क्रमसे सम्यक्त्व प्रकृतिका भी घात करता हुआ जब अन्तिम स्थितिकाण्डक समाप्त हो जाता है तब इस जीव की कृत्यकृत्य संज्ञा होती है । कृतकृत्य होनेपर इसका मरण भी हो सकता है। लेश्या भी बदल सकती है । लेश्या परिवर्तन होनेपर जघन्य कापोत तथा पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यामेंसे अन्यतर लेश्या हो सकती है। इस जीवके संक्लेश या विशुद्धि इनमें से किसीके भी प्राप्त होनेपर सम्यक्त्वकी एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितिके शेष रहने तक असंख्यातगुणित श्रेणिरूपसे असंख्यात समयप्रबद्धों की उदीरणा होती रहती है। फिर भी यह उदीरणा उदयके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है । कृतकृत्य होनेके प्रथम समय में यदि यह जीव मरता है तो नियमसे देवों में उत्पन्न होता है, क्योंकि अन्य गतिके योग्य उस समय लेश्या नहीं पाई जाती । अन्तर्मुहूर्त बाद यह जीव जैसी लेश्या प्राप्त हो उसके अनुसार अन्य तीन गतियों में भी मरकर उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार क्रमसे सम्यक्त्वका भी घात होनेपर यह जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है।

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