Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 13
________________ ( १० ) प्रकृतियों का द्विस्थानीय अनुभागबन्ध करता है तथा अजधन्यानुत्कृष्ट या कुछ प्रकृतियोंका स्यात् उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । जिन प्रकृतियोंका स्यात् उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है उनका नामनिर्देश मूल किया ही है । ( ९ ) इसके कितनी प्रकृतियाँ उदद्यावलिमें प्रवेश करती हैं। और किन प्रकृतियों का यह प्रवेशक होता है इसका विशेष विचार मूलमें किया ही है, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिये । (१०) यहाँ जिन प्रकृतियोंका बन्ध होता है उनके सिवाय शेष प्रकृतियोंकी पहले ही बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है । ( ११ ) जिन प्रकृतियोंकी यहाँ उदयउदीरणा होती है उनके सिवाय शेषकी उदयव्युच्छित्ति हो जाती है । ( १२ ) यहाँ दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियों में से किसी भी प्रकृतिका अन्तरकरण नहीं होता । तथा ( १३ ) यह जीव किस स्थितिवाले और किन अनुभागवाले कर्मोंका अपवर्तनकर किस स्थानको प्राप्त होता है । इसप्रकार इन विशेषताओंका अधःप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में विचार कर लेना चाहिए । इसप्रकार अधःप्रवृत्तकरणको करके पश्चात् यह जीव अपूर्वकरणको प्राप्त होता है । पूर्वकरण प्रथम समयसे ही स्थितिकाण्डकघात आदि क्रिया प्रारम्भ हो जाती है । स्थितिAarushघात और अनुभागकाण्डकघात तथा गुणश्रेणि रचनाकी प्रवृत्ति अधःप्रवृत्तकरण में नहीं होती। वहाँ मात्र प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता रहता है। शुभकर्मोंका उत्तरोत्तर अनन्तगुणी वृद्धिको लिये हुए अनुभागबन्ध होता है और अशुभकर्मों का उत्तरोत्तर अनन्तगुणी हानिको लिये हुये अनुभागबन्ध होता है । तथा एक एक स्थितिबन्धके पूर्ण होनेपर अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्तकाल तक उत्तरोत्तर पल्योपमका संख्यातवाँ भाग कम अन्यअन्य स्थितिबन्ध होता है । इसप्रकार अधःप्रवृत्तकरणरूप क्रियाको करनेके बाद अपूर्वकरणरूप परिणाम होते हैं । वहाँ सब जीवोंका स्थितिसत्कर्म एक समान नहीं होता । जो एक साथ उपशम सम्यक्त्वको प्राप्तकर पश्चात् अनन्तानुबन्धीको एक साथ विसंयोजनाकर दर्शनमोहनीयकी क्षपण के लिए हो अपूर्वकरण में एक साथ प्रवेश करते हैं उनका स्थितिसत्कर्म एक समान होता है और तदनुसार घात के लिए गृहीत स्थितिकाण्डक भी एक समान होता है । किन्तु इनके सिवाय अन्य जीवोंका स्थितिसत्कर्म विसदृश ही होता है । तथा तदनुसार घात के लिए गृहीत स्थितिकाण्डक भी विसदृश होता है। इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण मूलमें किया है, अतः उसे वहाँसे जान लेना चाहिए । अपूर्वकरणके प्रथम समय में जो विशेष कार्य प्रारम्भ होते हैं। उनका विवरण ( १ ) स्थितिकाण्डकघातका प्रारम्भ । उसमें जघन्य स्थितिकाण्डक पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण होता है और उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका प्रमाण सागरोपमपृथक्त्व प्रमाण है। (२) अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्तकाल तक सदृश परिमाणको लिए हुए होनेवाले एक स्थितिबन्धसे उत्तरोत्तर पल्योपमके संख्यातवें भाग कम दूसरे-तीसरे आदि स्थितिबन्धका होना । (३) अप्रशस्त कर्मों के अनुभागकाण्डकघातका प्रारम्भ । यहाँ प्रत्येक अनुभागकाण्डक अनुभागसत्कर्मके अनन्त बहुभागप्रमाण होता है । (४) उदयावलि बाह्य गुणश्रेणि रचनाका प्रारम्भ । जो गुणश्रेणि अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के काल से कुछ अधिक आयामको लिये हुए होती है | दर्शनमोहनीय की क्षपणा उदयादि गुणश्रेणि नहीं होती । (५) मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियोंका गुणसंक्रम - उत्तरोत्तर गुणतक्रम से संक्रम होने लगना ।

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