Book Title: Kasaypahudam Part 13
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 12
________________ ( ९ ) मनुष्यगति सो इस गतिमें जब कि पर्याप्त मनुष्योंका प्रमाण ही संख्यात है ऐसी अवस्था में इस गतिमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियों का प्रमाण भी संख्यात ही प्राप्त होगा । फिर भी उनकी निश्चित संख्या कितनी है ऐसा प्रश्न होनेपर निश्चित संख्याका निर्देश करते हुए वह संख्यात हजार बतलाई है । यह दर्शनमोहनी की क्षपणा नामक अनुयोगद्वार में निबद्ध पाँच सूत्रगाथाओं में प्रतिपादित विषयका स्पष्टीकरण है । आगे गाथासूत्रोंके आश्रयसे विशेष व्याख्या की गई है । ऐसा करते हुए आगे गाथासूत्रोंमें निबद्ध अर्थका विशेष व्याख्यान तो किया ही गया है, साथ ही प्रकृत में उपयोगी जो अर्थ गाथासूत्रों में निबद्ध नहीं है उसका भी विशेष व्याख्यान किया गया है । नियम यह है कि असंयत, संयतासंयत प्रमत्तसंयत या अप्रमत्तसंयत इनमें से किसी एक गुणस्थानवाला वेदक सम्यग्दृष्टि कर्मभूमिज मनुष्य तीर्थंकर केवली, सामान्य केवली या श्रुतकेवीके पादमूलमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेका प्रारम्भ करता है । उसमें भी सर्वप्रथम वह अनन्तानुबन्धी विसंयोजना करता है, क्योंकि जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी वियोजना नहीं की है वह दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेमें समर्थ नहीं होता। इसके बाद अन्तर्मुहूर्त विश्रामकर वह दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके योग्य अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन प्रकारके करणपरिणामोंको क्रमशः करता है । इनके लक्षण जैसे दर्शनमोहकी उपशामना अनुयोगद्वारका स्पष्टीकरण करते समय भाग १२ में बतला आये हैं वैसे ही यहाँ पर जानने चाहिए । इसप्रकार दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए उद्यत हुए इस जीवके अधःप्रवृत्तकरणरूप परिणामोंको प्राप्त होनेके अन्तर्मुहूर्त पूर्व से ही ( १ ) प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि वृद्धिंगत होता हुआ विशुद्ध परिणाम होता है । ( २ ) चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिककाययोग इनमें से कोई एक योग होता है । ( ३ ) क्रोध, मान, माया और लोभ इनमें से कोई एक कषाय होती है जो उत्तरोत्तर हीयमान होती है । ( ४ ) साकार उपयोग होता है, क्योंकि ज्ञान-दर्शनस्वभाव आत्माविषयक विशेष उपयोग हुए बिना दर्शनमोहनी की क्षपण सन्मुख नहीं हो सकता । यद्यपि इस विषय में एक उपदेश यह भी पाया जाता है कि उक्त जीवके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनरूप उपयोगका होना भी सम्भव है । सो इसका यह आशय समझना चाहिये कि जब उक्त जीव अन्य अशेष विषयोंसे निवृत्त होकर आत्माके सन्मुख होता है तब उसके चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन रूप उपयोग भी बन जाता है और श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिए उक्त क्रम परिपाटीमें मतिज्ञान भी बन जाता है । ( ५ ) पीत, पद्म और शुक्ल इन तीन शुभ लेश्याओं में से कोई एक वर्धमान लेश्या होती है । ( ६ ) तीनों वेदोंमेंसे कोई एक वेद होता है । ( ७ ) पूर्वबद्ध कर्मोंकी सत्ता पूर्वोक्त चार गुणस्थानोंमेंसे जिस गुणस्थानमें क्षपणाके लिए प्रारम्भ करता है प्रायः उसके अनुसार है । इतना अवश्य है कि इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी सत्ता नहीं होती है तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नियमसे होती है । ( ८ ) वर्तमान काल में यह किन प्रकृतियों का बन्ध करता है इसका विचार यथासम्भव उक्त चारों गुणस्थानोंके अनुसार जान लेना चाहिये । इतना अवश्य है कि यह यथासम्भव इन गुणस्थानोंमें बन्धयोग्य नोकषायों से अरति और शोकका बन्ध नहीं करता, किसी आयुका बन्ध नहीं करता तथा नामकर्म की परावर्तमान किसी अशुभ प्रकृतिका बन्ध नहीं करता । सत्कर्मकी अपेक्षा इन कर्मों की संख्यातगुणी हीन स्थितिका बन्ध करता है । प्रशस्त प्रकृतियोंका चतुःस्थानीय और अप्रशस्त

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