Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 13
________________ इसी प्रकार और भी कितनी ही भ्रान्तियाँ हैं। मेरा प्रयास यह रहा है कि पुस्तक के पठन से इस प्रकार की सभी भ्रान्तियों का निरसन हो और कर्मसिद्धान्त का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीचीन ज्ञान प्राप्त हो। - इस पुस्तक के लेखन में मैंने तुलनात्मक और समन्वयात्मक दृष्टि रखी है। जैन कर्मविज्ञान की भारतीय तथा भारतेतर और वर्तमान भौतिक विज्ञानों के साथ तुलना भी की है और समन्वय का भी प्रयास किया है। प्रस्तुत पुस्तक को चार खंडों में विभाजित किया गया है प्रथम खंड "कर्म का अस्तित्व" में विभिन्न अपेक्षाओं, दृष्टियों और प्राचीन एवं आधुनिक (पश्चिमी और पौर्वात्य) प्रमाणों के आधार पर कर्म का अस्तित्व सिद्ध किया है। यूँ "कर्म" सत्ता स्वयं सिद्ध है किन्तु अनुभव आदि प्रमाणों के आधार पर उसका विश्वास दृढ़-दृढ़तर करने का प्रयास प्रथम-खंड में है। द्वितीय खंड "कर्मवाद का ऐतिहासिक पर्यालोचन" में कर्मवाद की विकास यात्रा का प्रागैतिहासिक काल से वर्तमानकाल तक का वर्णन किया गया है। साथ ही कर्मवाद के विरोधी वादों का तर्कपुरस्सर प्रमाणों से निरसन भी किया गया है। तृतीय खंड में कर्म का विराट स्वरूप वर्णित है। घाति-अघाति, द्रव्य-भाव, कर्म-नोकर्म, सकाम- अकाम-निष्काम कर्म आदि कर्मों के अनेक प्रकारों का विवेचन करके कर्म-शक्ति का विराट स्वरूप वर्णित हुआ है। चतुर्थ खंड में कर्मविज्ञान की आध्यात्मिक तथा व्यावहारिक जीवन में उपयोगिता, कर्मवाद एवं समाजवाद की संगति, कर्यकर्ता, कर्मफलभोक्ता, आदि विषयों पर व्यापक दृष्टि से विचार किया गया है। जहाँ तक संभव हुआ है, मैंने प्रत्येक विषय को विस्तारपूर्वक प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। सैकड़ों ग्रन्थों, पत्र-पत्रिकाओं तथा वैज्ञानिक खोजों के आधार पर कर्मवाद को सिर्फ सिद्धान्त रूप में ही नहीं, अपितु एक विज्ञान एवं जीवन-शैली का नियामक तत्त्व मानकर प्रतिपादित करने का प्रयास किया है। ... "कर्म" का सम्यग परिज्ञान प्राप्तकर मानव अपने धार्मिक, नैतिक एवं समग्र सामाजिक जीवन को आदर्श बना सकता है, इस दृष्टि से इस ग्रंथ में पर्याप्त चिन्तन किया है। सर्वप्रथम मैं श्रमण संघ के अध्यात्मनायक आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषि जी महाराज का स्मरण करता हूँ कि जिनके मंगलमय आशीर्वाद से हम अपनी अध्यात्म-साधना में यशस्वी हो रहे हैं! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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