Book Title: Karm Vignan Part 01
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 12
________________ जैन कर्मशास्त्र - विवेचकों के अनुसार कर्मों का वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है १. ज्ञानावरणीय २. दर्शनावरणीय ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. नाम ७. गोत्र और ८. अन्तराय कर्म । इन कर्मों का बन्ध किस-किस प्रकार की प्रवृत्तियों और आत्मभावों से होता है ? कितने काल तक ये आत्मा से सम्बद्ध रहते हैं ? किस प्रकार ये आत्मा से पृथक होते हैं आदि पूरी प्रक्रिया का बड़ा ही सूक्ष्म एवं तर्कयुक्त विवेचन जैनशास्त्रों में उपलब्ध होता है। कर्मों के घाति- अघाति भेद, उनके कार्य आदि की विवेचना भी पाठक को ऐसे ज्ञान से लाभान्वित करती है कि वह अपने उद्धार के लिए प्रस्तुत होता है। जैन कर्मवाद का उद्देश्य जैन कर्मवाद अथवा कर्मविज्ञान का उद्देश्य कर्मबन्धन और उसके कारणों को जानकर तथा बंधन को तोड़कर आत्मा को सर्वतन्त्र स्वतन्त्र और मुक्त बनाना है। भगवान महावीर के शब्दों में - "बुज्झिज्ज तिउट्टिज्जा, बंधण परिजाणिया " मानव मात्र को बोध प्राप्त करना चाहिए और बंधन (कर्मबन्धन) के स्वरूप को जानकर उसे (पूर्णरूप से) तोड़ देना चाहिए। प्रस्तुत पुस्तक प्रस्तुत पुस्तक लिखने का मेरा उद्देश्य भी यही है कि पाठक कर्मों के स्वरूप का भली-भाँति यथार्थ ज्ञान प्राप्त करें, कर्म एवं कर्मफल के विषय में फैली भ्रान्त धारणाएँ दूर हों । एक उदाहरण यथेष्ट होगा साधारण व्यक्ति और यहाँ तक कि विद्वान और ज्ञानी कहलाने वाले व्यक्ति भी कह देते हैं- "जो कुछ होता है, वह कर्मोदय से ही होता है, कर्म का उदय ही ऐसा था।" लेकिन जैनकर्मविज्ञान के अनुसार यह बहुत बड़ी भ्रान्ति है । सभी काम कर्मों के उदय से ही नहीं होते, कुछ कार्य ऐसे होते हैं, जो कर्मों के क्षय, क्षयोपशम और अनुदय से भी होते हैं। आत्मोन्नति की जितनी भी क्रियाएं हैं, वे कर्मों के क्षय, क्षयोपशम से ही होती हैं । सम्यक्व, विरति आदि में उन-उन कर्मों का क्षयोपशम ही निमित्त होता है। Jain Education International १० For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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