Book Title: Kalyan 1959 03 04 Ank 01 02
Author(s): Somchand D Shah
Publisher: Kalyan Prakashan Mandir

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Page 35
________________ .: ४८या : माय-येप्री : : १८५८ : 33 : गुर्जर कविओ भाग ३ पृष्ट ११०० में मिलता उनके पदों के दो विवेचन, बुद्धिसागरसूरि और हैं पर अभी और प्राचीन प्रति की खोज की मोतीचंद कापडिया के निकले है। और चाबीसी जाना आवश्यक हैं। हमारे संग्रहमें चौवीसी के तो ४-५ विवेचन प्रकाशित हो चुके हैं। पर व पद संग्रह का एक और गुटका है आनन्दघनजी की जीवनी के संबंध में अतिहाजो संवत् १६६० से ८० के लगभग का सिक तथ्य अभी बहुत थोडे ही मिले हैं। लिखा जाना संभव है। जैन गूर्जर ४-५ वर्ष पूर्व अहमदाबाद के श्री साराभाई कविओं भाग २ के पृष्ठ २५ में पाटन मणिलाल नवाब ने 'श्री आनन्दघन पद रत्नाभंडार के एक फूटकर पन्ने पर संवत् १७६८ वली' का सम्पादन कर उसमें आपके २४ स्तकाती बदी २ पत्तन में लिखित उपाध्याय यशो- वन और १०९ पद प्रकाशित किए है। इस विजय जी के ग्रन्थों की सूची नोटस् छपे हैं। ग्रंथ का सम्पादन उन्होंने छपे ग्रंथों के ही जिसमें आनन्दघनजी चोवीसी बालावबोध आधार से किया है या किसी हस्तलिखित प्रति यशोविजयजी की कृति होने का महत्त्वपूर्ण का भी उपयोग किया है इसका कुछ भी उल्लेख उल्लेख है । यह बालावबोध प्राप्त होने . उन्होंने अपने निवेदन में नहीं किया । पर पर अवश्य ही कुछ नया प्रकाश मिलेगा। निवेदन में एक नई भ्रमपूर्ण बात उन्होंने लिखी क्योंकि उपाध्याय यशोविजयजी आनन्दघनजी है उसी पर यहां पर विचार किया जा रहा के समकालीन तो थे ही पर वे उनसे मिले भी है. वे लिखते है:थे । उन्होंने आत्मविभोर हो कर के उनकी स्तुति अष्टपदी बनाई, ऐसा प्रवाद है। वह "परम योगी श्री आनन्दघनजी ते बीजा काई अष्टपदी छप भी चुकी है। उसके बाद ज्ञान ज नहीं, परन्तु न्यायविशारद श्री यशोविजयजी विमलसूरि ने भी चौवीसी के २२ स्तवनों पर ज छे एम मारू पोतानु अने केटलाक जैन बालावबोध लिखा, जो संवत् १७५० की बाद मुनिवोनु मानवु छे। की रचना है । यह बालवबोध भी छप चुका आ मान्यताना समर्थनमां जबरदस्त पुरावा है पर यह है बहुत ही साधारण । ज्ञानविमल- ए ज छे के परम योगी श्री आनन्दघनजीनो सूरि के बाद ज्ञानसारजीने , २९ वर्षों के उल्लेख उपाध्यायजी वगर सतरमा सैकाना बीजा गंभीर मनन पूर्वक विस्तृत बालावबोध लिखा काई पण विद्वान करता नथी । वली उपाध्यायसंवत् १८६५ किशनगढ में । उन्होने कुछ पदों जी रचेली श्री आनन्दघनजी स्तुतिरुप अष्ट पर भी विवेचन लिखा, पर वह पूरा प्राप्त नहीं पदीना जे पहला पदमां “मारग चलत चलत होता। जात आनन्दघन प्यारे" वगेरे शब्दो तथा तेओ___ गत ५० वर्षों में आनन्दधनजी चौबीसी श्रीए रचेली बत्रीस बत्रीसी अने आनन्दघनजीना और पदों के अनेक संस्करण निकल चुके है। पदमां घणु साम्य देखाय छे । श्री आनदघनजी जुदा छे एवी मान्यता ५

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