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: 3 : मे लिया२९॥ : : .. जो सूरत स्थित खरतर गच्छ के जिनचन्द्रसूरि था । यशोविजयजी के आनन्दघनजी को मिलन को मेडता से पाठक पुण्यकलश, जयरंग, प्रसंग आदि को लेकर तपागच्छ के कुछ विद्वानों त्रैलोक्यचन्द्र और चारित्रचन्द्र ने दिया था। इस ने इसको मान्य नहीं करते हुए उन्हें तपागच्छ पत्र के अंत में यह लिखा हुआ है:- "पं. का बतलाया, पर उनके इस पत्र पर उनके सुगणचन्द्र अष्टसहस्त्री लाभानन्द आगइ भणइ लाभानन्द नाम से ऊनका मूलतः खरतरछइ । अर्द्ध रइ टाणइ भणी । घणु खुशी हुई गच्छीय होना भलीभांति सिद्ध हो जाता है । भणावइ छइ ।” अर्थात् पुण्यकलश के शिष्य इस संबंध में मेरी सप्रमाण विचारणा इस और जयरंग के गुरुभाई सुगनचन्द्र, लाभान- प्रकार है:न्दजी के पास अष्टसहस्री ग्रंथ पढता है। १ खरतरगच्छीय सुगनचन्द ने अष्टसहआधी करीब पढली है, लाभानन्द बहुत खुशी हो स्रीका अभ्यास लाभानन्दजी याने आनन्दघनजी के पढाता है ।" इन पत्र से कुछ ऐसे नवीन से किया था । उस समय प्रायः अपने ही गच्छ तथ्यों की सूचना मिलती है जो आनन्दघनजी के विद्वानों से शास्त्राभ्यास करने का आम के गच्छ, उनके अध्ययन, उनकी उदारता आदि रिवाज था। श्रीमद देवचंद्रजी के पास अनेक बातों पर नवीन प्रकाश डालती है । जैसा तपागच्छीय मुनियों ने अभ्यास किया, कि जैन धर्म प्रकाश वर्ष ८ अंक ४ में प्रका- इसका कारण दुसरा है। और वह शित अपने लेख में मैंने सप्रमाण विचारणा अपवाद रूप ही हैं । साधारणतया उस करते हुए इस पत्र को संवत् १७१९ का लिखा समय अपने शिष्यों को दूसरों के पास रखने हुआ बतलाय। १ है और आनन्दघनजी मेडते में भेजने व पढाने में गच्छागच्छ का बडा रहते थे यह प्रसंगही है यह पत्र भी वहींसे विचार रहता था. इसी लीए हम लिखते है कि लिखा गया है। अतः उनकी विद्यमानता में समकालीन हीरविजयसूरि का विशेष उल्लेख,
और उनके रहने के स्थान से ही पत्र लीखे खरतर गच्छ के ग्रंथों में नही मिलता और जाने से शंका को तनिक भी स्थान नहीं रहता तपागच्छ के ग्रंथों में जिनचन्द्रसूरि के प्रभाव है । मेडते में जो आनन्दघनजी का उपासरा और महान शासन सेवा का कुछ भी उल्लेख कहलाता है वह खरतरगच्छ का था इस नहीं है । इस परिस्थिति में सुगनचन्द लाभाप्रमाण और अन्य श्रति परम्परा के आधार से नन्दजी से पढ़े है तो अवश्य ही अपने गच्छ खतरगच्छ के महान विद्वान गीतार्थ शिरोमणि व समुदाय का होने से ही पढ़े होगे। आचार्य कृपाचन्द्रसूरिजी ने बुद्धिसागरसूरिजी को (२) 'लाभानन्द' शब्द के आगे न कोई आनन्दघनजी का खरतरगच्छके होने का कहा विशेषण हैं और न 'जी' आदि आदर सूचक
१ प. सुगनचन्द की दीक्षा संवत् १७१२ शब्द ही प्रयुक्त है । इससे यह ध्वनित होता में हुई थी वे श्री जिनचन्द्रसूरिजी को सूरत पत्र है कि पुण्यकलश पाठक से वे दीक्षा पर्याय लिखा गया वे संवत १७१९ में सूरत थे। में छोटे थे । अपने ही गच्छ के छोटे गुरुभाइ