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आनंदघनजी संबंधी
श्री अगरचन्दजी नाहटा बीकानेर
योगीराज आनन्दघन आध्यात्मिक जैन जगत के चमकते हुए सितारे है ! उनकी जैसी आध्यात्मिक गहराई और उंचाइ विगत क शताब्दियों में बहुत विरलों ने ही प्राप्त की होगी। उनकी रचनाऐ बहुत सीमित हैं ।
चोवीसी के २२ स्तवन और ९० से १०० की बीच की संख्या के पद, इतनी ही उनकी साहित्य सम्पत्ति है पर उसका महत्त्व बहुत अधिक है। अर्थगांभीर्य और गहरी पैढ उनकी रचनाओं की असाधारण विशेषता है । पर इन रचनाओ में आनन्दघन नामके अतिरिक्त उनका कुछभी परिचय नहीं मिलता और समकालीन प्राय: समी व्यक्ति भी उनके संबंध में मौन है । उस समय यद्यपि जैन विद्वान अनेक थे, पर उन्होंने कुछभी उल्लेख नहीं किया। यह बडा ही आश्चर्य है । आपके स्वर्गवास के बाद तो इनकी रचनाओं का प्रचार दिनों दिन बढ़ता गया, पर दो गुटके ऐसे भी मिले हैं जो शायद आप की विद्यमानता में भी लिखे गये
समाद्दिमरणं च नी भागली मां नन्भरहित થવાની માગણી આવી જાય.
સાધુ જીવનના અભિલાષી અસમાધિમાં लवतो नथी, साथ नैन उही असमाधिभां भवता नथी.
एक विचारणा
या ते न्भलु समला लय, घेर बन्भे तेना परनो राग लुडो छे, मे समन्नय, સંતાનને તમારા પર રાગ થાય એ પણ ભુંડા છે, એ સમજાઇ જાય તે સમાધિ આવી જાય અને આ જે મનુષ્યજન્મ મળ્યા તે સાર્થક થઈ જાય.
है । पहला गुटका संवत् १६८४-८५ में सुप्रसिद्ध कवि बनारसीदासजी के साथी व मित्र कुंअरपाल चोरडीया के लिखा हुआ हमारे संग्रह में है. इसमें आनंदघनजीके ६६ पद ही हैं, व प्रारंभ के कुछ पत्र कट जाने से पत्र व पद त्रुटित रूप में मिलते हैं ।
ये पद संवत १६८४-८५ में तो शायद. नहीं लिखे गये. क्योंकि ये भिन्नाक्षरों में लिखित है, पर वे संवत् १७०० के भासपास में लिखे गये प्रतीत होते है. जब कि आगे दिये जाने वाले उल्लेख के अनुसार आनन्दघनजी का स्वर्गवास संवत् १७३१ में मेड़ते में हुआ था । मेड़ते में आप बहुत वर्षो तक रहे यह तो प्रसिद्ध है ही । वहां आपके नाम का आपके सम्बन्ध में वहां भी कोई जानकारी एक उपासरा भी बताया जाता है। इससे अधिक आदि तो संवत् १६५०-६० में लिखित हैं । नहीं मिलती. दूसरे गुटके में अन्य कई रास खरतरगच्छ के कई मुनियों ने १६५५ -६३ में इसे लिखा था । एक जगह संवत् १७३४ में इसे खरीदे या लियेजाने का उल्लेख है । अतः इससे पूर्व तक लिखा जाता रहा है ।
इस गुटके के पिछले पत्रों में भिन्न मक्षरों में लिखे हुए आनन्दघनजी के कुछ पद हैं ये भी पूर्वोक्त गुटके के समय के आसपास याने उनकी विद्यमानता में ही लिखे जाने सम्भव है। उनकी चोवीसी की प्राचीन प्रति संवत १७५२ की लिखित का उल्लेख जैन